बड़ा सवाल : जगदानंद सिंह ही क्यों… लालू प्रसाद क्यों नहीं?
महेश कुमार सिन्हा
27 नवम्बर 2024
PATNA : बिहार विधानसभा के उपचुनाव में महागठबंधन, विशेष कर राजद (RJD) की दुर्गति हो गयी. सभी चार क्षेत्रों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ गया. भाकपा-माले (CPI-ML) की एक और राजद की दो सीटिंग सीटें बड़ी सहजता से फिसल कर एनडीए (NDA) के हाथों में चली गयीं. चार सीटों में से रामगढ़ (Ramgarh) की हार राजद के लिए सर्वाधिक सदमादायक रही. वहां पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के पुत्र अजीत सिंह औंधे मुंह गिर गये. हार ऐसी-वैसी नहीं हुई, पुश्तैनी गढ़ में पुश्तैनी पार्टी का उम्मीदवार रहते तीसरे स्थान पर लुढ़क गये. शायद जमानत भी जब्त हो गयी.
‘काबिलियत’ पर उठ रहा सवाल
राजद उम्मीदवार के रूप में अजीत सिंह (Ajit Singh) क्यों और कैसे हार गये, विवेचना का यह एक अलग विषय है. बहरहाल, पुत्र की हार को लेकर धीमे स्वर में ही सही, राजद के अंदर जगदानंद सिंह (Jagdanand Singh) की ‘काबिलियत’ पर सवाल उठने लगे हैं. नैतिकता के आधार पर प्रदेश अध्यक्ष का पद त्याग देने की मांग की जाने लगी है. वैसे, बताया जाता है कि हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर जगदानंद सिंह ने खुद प्रदेश अध्यक्ष का पद त्यागने की पेशकश कर दी है. हालांकि, पूर्व में भी उन्होंने कई बार ऐसी पेशकश की थी. इस्तीफा मान्य नहीं हुआ था. विश्लेषकों का मानना है कि इस बार भी वैसा ही कुछ होगा. उससे अलग कुछ नहीं.
हालिया उदाहरण भी कई हैं
पर, इस परिप्रेक्ष्य में यहां एक बड़ा सवाल खड़ा होता है. वैसे तो ‘पारिवारिक पार्टी’ के लिए बड़ा हो या छोटा, इस तरह के सवालों का कोई मतलब नहीं होता, अधिसंख्य लोग इसे मूर्खता मानेंगे.तब भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के हिमायतियों के मन मिजाज को यह अवश्य कुरेदता होगा कि आखिर ऐसे ही नैतिक कारणों से कभी लालू प्रसाद (Lalu Prasad) राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोडने की पेशकश क्यों नहीं करते हैं? पूर्व के प्रकरणों को छोड़ दें, हालिया उदाहरण भी कई हैं.
नैतिकता कहां चली गयी थी तब ?
संसदीय चुनाव में ‘अस्वस्थ’ लालू प्रसाद के सारण में लम्बा आसन जमाने के बाद भी उनकी पुत्री रोहिणी आचार्य (Rohini Acharya) परास्त हो गयीं. उससे पहले पाटलिपुत्र के दो संसदीय चुनावों में उनकी बड़ी संतान मीसा भारती (Misa Bharti) उसी गति को प्राप्त हुईं. तब नैतिकता कहां चली गयी थी? लालू प्रसाद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ देने के लिए कभी किसी ने कोई आवाज नहीं उठायी. विधानसभा के इसी उपचुनाव में क्या हुआ? झारखंड विधानसभा के चुनाव में भी?
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बेलागंज पहुंच गये
हर कोई जानता है कि लालू प्रसाद सजायाफ्ता हैं. खराब स्वास्थ्य के आधार पर जमानत पर जेल से बाहर हैं. आमतौर पर घर में ‘आराम’ फरमाते हैं. पर, राजद सांसद सुरेन्द्र प्रसाद यादव (Surendra Prasad Yadav) के पुत्र विश्वनाथ यादव (Vishwanath Yadav) की जीत सुनिश्चित कराने के लिए वह बेलागंज पहुंच गये. वहां उन्होंने चुनावी सभा को भी संबोधित किया. उनके अघोषित राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) ने तीन दिनों तक सघन चुनाव अभियान चलाया. परिणाम क्या सामने आया?
आखिर, ऐसा क्यों हो गया?
बेलागंज (Belaganj) यादव और मुस्लिम बहुल क्षेत्र है. जीत के लिए इन दोनों के अलावा अन्य किसी जाति समूह के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ती है. इन्हीं दो सामाजिक समूहों यानी ‘माय’ की एकजुटता की बुनियाद पर 34 वर्षों तक सुरेन्द्र प्रसाद यादव और राजद का इकबाल बुलंद रहा. लेकिन, उपचुनाव में वह बालू की भीत की तरह भरभरा कर ढह गया. आखिर, लालू प्रसाद के आह्वान और अभियान के बाद भी ऐसा क्यों हो गया? क्या इसे लालू प्रसाद के अपने ही आधार मतों में प्रभावहीन हो जाना नहीं माना जा सकता?
कौन उठायेगा यह सवाल?
अब झारखंड (Jharkhand) विधानसभा के चुनाव से जुड़ी बात. शारीरिक रूप से दुर्बल लालू प्रसाद की सशरीर मौजूदगी कोडरमा विधानसभा क्षेत्र में भी हुई थी.उनके ‘परमप्रिय’ बालू कारोबारी सुभाष प्रसाद यादव वहां से राजद के उम्मीदवार थे. कोडरमा (Kodarma) झारखंड का एकलौता विधानसभा क्षेत्र था जहां लालू प्रसाद की चुनावी सभा हुई. दुर्भाग्य देखिये, बेलागंज की तरह वहां भी राजद की मिट्टी पलीद हो गयी. क्या सारण, बेलागंज और कोडरमा की हार लालू प्रसाद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ देने का आधार नहीं बनती है? तटस्थ विश्लेषकों की समझ में आधार बनती है. लेकिन, सवाल यहां यह है कि इस सवाल को उठायेगा कौन?
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