झेल पायेगी सरकार?
प्रवासी श्रमिकों का बिहार की ओर अबाध प्रवाह जारी है- रेल से, सड़क से, पांव-पैदल. उनकी इस घरवापसी के साथ सूबे में कोरोना के संक्रमण का विस्तार भी तेजी से हो रहा है, ऐसा सरकार व मीडिया का कहना है. ऐसी बात भी नहीं कि इनके न आने से यहां कोराना की मार घातक नहीं होती या फैलाव रुक जाता. पर, उसकी गति धीमी जरूर होती, रोगी भी अनुपात में कम होते. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले भी- जब वह प्रवासी बिहारियों की घरवापसी के सवाल पर अपनी असहमति जाता रहे थे- इस आशंका को बार-बार और हर मंच पर जाहिर कर रहे थे.अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा था. मगर, उनकी इच्छा के विपरीत- शायद राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए की नेता भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व व सूबे में विपक्ष के आक्रामक रुख के कारण- प्रवासी मजदूरों की घरवापसी को वह तैयार हो गये. अब वह प्रवासी बिहारियों के सबसे बड़े हित-संरक्षक के तौर पर खुद को पेश कर रहे हैं. केन्द्र सरकार ने प्रवासियों को ढोने के लिए बिहार की मांग के अनुरूप अधिक से अधिक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के परिचालन का वायदा किया है, चला भी रही है.
बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार अब तक (इस पंक्ति के लिखे जाने तक) बिहार के कोई 13 लाख प्रवासियों की घरवापसी हो चुकी है. कोरोना त्रासदी के इस दौर में केवल विशेष श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से बिहार लौटनेवाले प्रवासियों की संख्या 25 लाख से अधिक होने का अनुमान है. पर, यह आंकड़ा और अनुमान लॉकडाउन-3 और 4 के आरंभिक दिनों में आयी श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के आधार पर जाहिर किया जा रहा है. इसके अलावा मुम्बई और महाराष्ट्र के अन्य छोटे-बड़े नगरों से लॉकडाउन की घोषणा के ठीक पहले कोई पौने दो लाख प्रवासी बिहार आये थे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘बस अभियान’ का लाभ उठाकर भी दिल्ली- हरियाणा में रह रहे हजारों बिहारियों की घरवापसी हुई. इधर, निजी व्यवस्था से अपनी जमा-पूंजी खर्च कर बस व ट्रक और अन्य चारपहिया वाहनों से अब भी लोग घर आ रहे हैं. ऑटो, ठेला, साइकिल, पांव-पैदल हजार के हजार प्रवासियों की बिहार वापसी हो चुकी है, हो रही है. यह आंकड़ा तो पश्चिम भारत, उत्तर भारत व दक्षिण भारत से प्रवासी बिहारियों की घरवापसी की है, मगर कोलकाता के अलावा पश्चिम बंगाल व ओडिशा के विभिन्न इलाकों से बिहार लौटे प्रवासियों का कोई लेखा-जोखा अब तक जारी नहीं किया गया है.
बिहार सरकार व इसके विभिन्न विभाग और ग्रामीण बिहार क्या इस प्रवाह के दबाव- रोजगार के अवसर सृजन को लेकर और सामाजिक स्तर पर- को झेलने में सक्षम है? इस सवाल का बिना किसी अगर- मगर के सीधा जवाब है- मौजूदा बिहार तो नहीं. मगर इस वैश्विक महामारी की त्रासदी के दौर में आमजन के जीने के नौसर्गिक अधिकार की रक्षा सत्ता और समाज की पहली जिम्मेवारी है. सो, लाख टके का सवाल है : आमजन की इस मजबूरी और अपनी जिम्मेवारी को बिहार कैसे ले रहा है? यह सही है कि यह संवेदना व भावना के उछाल का दौर है. साथ ही, सत्ता राजनीति के लिहाज से वोट और पार्टियों के लिए लाभ-हानि के लेखा-जोखा का भी समय है. पर, यह गौर करने की बात है कि अभी तक बिहार की सत्ता या जिम्मेवार (यदि वैसा पक्ष-विपक्ष में कोई है तो) राजनीतिक दल ने इस मसले पर किसी चर्चा की शायद जरूरत नहीं समझा है, रूप-रेखा या रोड-मैप प्रस्तुत करने की बात तो दूर रही. सरकार संपोषित किसी शोध या अध्ययन संस्थान ने भी कोई बात नहीं कही है. शासकीय स्तर पर भी इस दिशा में कोई सार्वजनिक पहल नहीं की गयी. कोरोना संकट की आहट जनवरी में ही देश-दुनिया को मिल गई और पांच महीने बाद भी ऐसी बौद्धिक-शासकीय खामोशी कई सवालात पैदा करती है, बिहारी मेधा को सवालों के सलीब पर टांग रही है.
बिहार के गांवों और कस्बों में अचानक लाखों की आबादी का प्रवाह समाज में जर्बदस्त उथल-पुथल पैदा करेगा. इस जन व श्रम प्रवाह को सूबे की अर्थव्यवस्था संभाल पायेगी? बिहारी समाज से कटते जा रहे या कट चुके इन बिहार-पुत्रों से मौजूदा सत्ता और समाज कैसा सलूक करेगा? इनकी रोजी-रोटी का क्या इंतजाम किया जायेगा? कोई व्यवस्था होगी भी या सत्ता पस्त हो जायेगी और राजनीति अपनी गति में मस्त रहेगी? इन सवालात के जवाब कहीं से नहीं मिल रहे हैं. आज तो शंका व अनिश्चयता से भरा माहौल स्वागत में है, वे भी स्वागत में हैं जो कल तक इनके आने के विरोध में मुखर रहे. पिछली शताब्दी के अंतिम चार दशक या उससे कुछ ही पहले से बिहार के गांव खाली होने लगे थे. यह पलायन उन पर लाद दिया गया था. रोजगार के अवसर के साथ-साथ स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव और इस मोर्चे पर सत्ता राजनीति के उपेक्षा-भाव ने इसे ताकत दी. हालांकि, बिहार और हिन्दी-पट्टी से पलायन कोई नयी बात नहीं रही है, पहले भी उसकी जरुरत वही थी- रोजगार. पर, अतीत के अनुभव के विपरीत इस बार युवा ही नहीं, अधेड़ों और स्त्री व बच्चों का भी पलायन होने लगा- परिवार का पलायन. गत दशकों में बिहार के गांवों का यह आम चरित्र हो गया. गांवों में बूढ़े, बच्चे और महिलाएं रह गयीं, गरीबी और जहालत रह गयी, रोग और अशिक्षा रह गयी. पहले कोलकाता व उसके आसपास आम पलायन होता था. अब मुम्बई, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, सहित पश्चिम-दक्षिण भारत के रोजगार सम्पन्न क्षेत्र प्रवासी बिहारियों के निवाला के स्रोत बन गये.
आपदा प्रबंधन विभाग में जिन कोई 35 लाख से अधिक बिहारी प्रवासियों ने अपना नाम रजिस्टर्ड करवाया है, वे अपना और अपने परिवार के पोषण के साथ बिहार के गांवों की कोई आठ-नौ दशक पुरानी मनिआर्डर अर्थव्यवस्था को मजबूत भी करते रहे. इन प्रवासियों में बड़ी आबादी जहां है, वहीं शेटल हो गयी. मौजूदा संकट काल में इस बड़े तबके से बिहार की अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था बेअसर रहेगी. एक बड़ा तबका वह है जिसने समय और रुचि के साथ पेशागत कौशल हासिल किया है और अब भी गांव से जुड़ा है. मौजूदा वक्त में इस समूह की प्रतिक्रिया मिली-जुली है. इन दोनों के अलावा तीसरा तबका भी है जो इनकी तुलना में बहुत बड़ा है. अकुशल, मौसमी व दिहाड़ी मजदूरों का है जो कोरोना संकट में अपने गांव-घर के लिए सबसे अधिक परेशान रहा है, किसी भी कीमत पर यहां लौटना चाहता है. समाज विज्ञानियों व अर्थशास्त्रियों की मानें तो ऐसे प्रवासी बिहारियों की संख्या सबसे अधिक है. ये अपने गांव-घर लौटे हैं, लौट रहे हैं. पर, अपने गांव-घर में वे कब तक टिकेंगे?अपना गांव- घर, जिला- जवार, देस-कोस कब तक उन्हें रोक पायेगा? अपनी धरती-अपने लोग उन्हें क्या दे पायेंगे? समय इन और ऐसे अनेक सवालात का जवाब चाहता है.
बिहार के राजनीतिक हलकों में यह जुमला आम है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किसी भी विपरीत अवसर को अपने पक्ष में भुनाने के माहिर हैं. प्रवासी बिहारियों की घरवापसी को लेकर लॉकडाउन के आरंभिक कोई सवा महीने के दरम्यान बनी अपनी नकारात्मक छवि का केंचुल वह पूरी तरह उतार चुके हैं. बिहार एनडीए की राजनीति और सूबे के प्रशासन तंत्र में अब सब कुछ बदल चुका है. कोई तीन हफ्ते के भीतर प्रवासी बिहारियों को लेकर नीतीश कुमार और उनकी राजनीति नये अवतार में दिख रही है, आ गयी है. नीतीश कुमार- और इसलिए एनडीए-का राजनीतिक आचरण और उनका प्रशासन-तंत्र प्रवासी बिहारियों को लेकर पिछले हफ्तों में पूरा सकारात्मक बन गया है. इनकी तात्कालिक समस्याओं के साथ-साथ इनके लिए उपयुक्त रोजगार की व्यवस्था की जा रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घर लौटे लाखों बिहारियों से कहा है, ‘कहां जाइयेगा, बिहार को ही बनाइये, इसके विकास में अपनी भूमिका निभाइये’.बिहार की सत्ता के शिखर-पुरुष के इस अनुरोध का घर लौटे बिहार पुत्रों ने ऐसे ही जज्बे के साथ जवाब दिया ‘नून रोटी खायेंगे, बिहार को बनायेंगे’. इधर, हाल के दिनों में मुख्यमंत्री प्रवासी बिहारियों को रोजगार देने को लेकर रोज नयी-नयी घोषणाएं कर रहे हैं, अधिकारियों को परियोजनायें बनाने, उनके लिए रोड-मैप तैयार करने का निर्देश दे रहे हैं. ग्रामीण विकास, कृषि व वानिकी, पशु व मत्स्य पालन, उद्योग, वन व पर्यावरण, खाद्य प्रसंस्करण सहित अनेक विभागों को इस कार्य में लग जाने को कह दिया गया है. घर लौटे इन प्रवासियों के कार्य-कौशल (पेशेवर-क्षमता) का सर्वेक्षण कराया जा रहा है, हुनर के अनुरूप उनके लिए रोजगार को चिह्न्ति किया जा रहा है. इतना ही नहीं, उनके आधार कार्ड बनवाये जा रहे हैं, बैंकों में खाते खुलवाये जा रहे हैं. इन मजदूरों के लिए सूबे में हजारों कार्यक्रम तैयार और लागू किये जा रहे हैं जिनमें लाखों बेरोजगारों को काम मिल रहा है, मिलेगा. मनरेगा, जल-जीवन-हरियाली कार्यक्रमों सहित सड़क निर्माण व अन्य रोजगार-मुखी योजनाओं में मजदूरों को काम दिया जाना शुरू कर दिया गया है, ऐसा दावा सरकार का है. हालांकि, यह सारा कुछ अब भी बैठक – समीक्षा के स्तर पर ही है. मनरेगा, जल- जीवन-हरियाली एवं पथ निर्माण व ग्रामीण सड़क निर्माण की कुछ परियोजनाओं को अगर अपवाद मान लें तो ऐसा कुछ भी अब तक नहीं सामने आया है जो नयी उम्मीदों को पुख्ता कर सके. फिर भी, नीतीश कुमार जैसे गंभीर राजनेता के वायदों पर भरोसा नहीं करने का कोई कारण नहीं है. हालांकि, सच यह भी है कि बिहार में नये उद्योंगों की स्थापना कर सूबे के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध करवाने के सैकड़ों सरकारी योजनाओं- निर्णयों की घोषणा पिछले पंद्रह साल में की जा चुकी है. सैकड़ों नहीं, नये उद्योग लगाने के हजारों प्रस्ताव पारित हुए. सरकार का दावा है इन में बहुत में काम पूरे हो गये हैं, लोगों को रोजगार मिले हैं, मिल रहे हैं. पर, यह जानकारी बिहार को नहीं है कि इन प्रतिष्ठानों में कितने बिहारी युवा को रोजगार मिला. हां, इतना जरूर है कि मोबाइल और रेस्तरां जैसे सर्विस सेक्टर के कुछ प्रतिष्ठानों ने काफी संख्या में अस्थायी रोजगार दिये हैं. लब्बोलुआव यह कि नीतीश कुमार और एनडीए के भी इन पंद्रह वर्षों के शासन काल में सूबे में रोजगार की गति कैसी रही है, यह बताने की जरूरत नहीं.
कोरोना की वजह से हो रहे इस विस्थापन में बिहार के अर्थ व समाज तंत्र को झटका देने की बड़ी कूबत है. इस विशाल मानव-शक्ति का कहां और कैसा उपयोग होगा, इनका आर्थिक पुनर्वास कैसे होगा, यह यक्ष-प्रश्न है. बिहार के लिए यह चुनावी वर्ष है और ऐसे में सत्ता-राजनीति की अपनी जरुरत होती है. लिहाजा, यह कहना कठिन है कि इन प्रवासियों के साथ बिहार की राजनीति और ‘भाग्यविधाता’ क्या सलूक करेंगे. यह राजनेता, समाज विज्ञानी व अर्थशाश्त्री भी स्वीकार करते हैं कि घर को लौट रहे प्रवासी श्रमिकों में सभी यहीं नहीं रह जायेंगे. कोराना त्रासदी के आरंभिक कुछ महीनों के कुछ बुनियादी संकट के समाप्त होते-होते या हालात के कुछ सहज होने पर बहुत बड़ी तादाद में यह श्रम-शक्ति फिर पुरानी डालों की ओर रुख करेगी. बिहार की मौजूदा व्यवस्था हाल के कई वर्षों तक इतनी बड़ी श्रम-शक्ति को खपाने में लगभग अशक्त है, इतने लोगों को रोजी-रोटी देना लगभग असंभव है. पर, अधिकांश लोगों का मानना है कि किसी भी सूरत में घर लौटे श्रमिकों का-बीस फीसदी तक का हिस्सा-अपने गांव-घर छोड़ने को सहज ही तैयार नहीं होगा. सत्ता, समाज व राजनीति के लिए घर लौटे प्रवासी श्रमिकों का यह हिस्सा बड़ी परेशानी व चुनौती का सबब है. हालांकि, बिहार जैसे बड़े बजट के राज्य और मजबूत पंचायती राज व्ववस्था में इस आबादी को रोजी-रोटी देना मुश्किल नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार-परक मनरेगा जैसा कार्यक्रम चल रहा है. पर, दिल्ली से लेकर पटना तक की सत्ता की इसे लेकर नकारात्मक सोच ने इसको काफी क्षति पहुंचायी है. इस रोजगार-मूलक कार्यक्रम के लिए कम बजटीय आवंटन, धन जारी करने में सत्ता की उदासीनता, सरकार की घोषित न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी, मजदूरी भुगतान में अनावश्यक विलंब, निचले स्तर के जनप्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों के काले गठजोड़ ने इसकी सार्थकता को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. अब प्रवासी मजदूरों के प्रवाह के कारण इसे लेकर राज्य प्रशासन नये सिरे से सक्रिय होने को मजबूर हुआ है. फिर से प्रवासी मजदूरों सहित सभी के लिए जॉब कार्ड बनाने का अभियान आरंभ किया गया है. पर, उसकी गति बहुत ही धीमी है, अब तक कुछ ही हजार जॉब कार्ड बनने का अनुमान है. मुख्यमंत्री के निर्देश के मुताबिक इस मद में बड़े धन का आवंटन किया गया है. पर, इनमें कितना खर्च होता है, यह अब भी गौर करने का मसला है. जल- जीवन-हरियाली कार्यक्रम भी मजदूरों को रोजगार देने का बड़ा साधन बनता जा रहा है. पौधारोपण के व्यापक कार्यक्रम तो इसमें हैं ही, पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर तालाब, पोखर, आहर, पईन आदि निमार्ण के कार्य भी लिये जाने हैं, कुओं का जीर्णोंद्धार भी होना है. ग्रामीण क्षेत्रों में अकुशल श्रमिकों को रोजगार देने की ग्रामीण पथ निर्माण परियोजनाओं में बड़ी क्षमता है. बिहार में ही फिलहाल कोई चौदह हजार किलोमीटर ग्रामीण सड़कें बननी हैं. बिहार में इस साल कम से कम 24 करोड़ मानव दिवस का सृजन करना है जिसे राज्य सरकार बढ़ा कर 48 करोड़ करने की तैयारी में है. इन सब में अकुशल मजदूरों को लगाया जा सकता है.
कोरोना ने इतना तो किया ही है कि बिहार के आर्थिक विकास व बेरोजगारों को रोजगार देने की इसकी पुरकश क्षमता पर नये सिरे से विचार आरंभ किया गया है. यहां की राजनीतिक सत्ता (चूंकि अफसरशाही इसी सत्ता के हिसाब से चलती है, इसीलिए प्रशासन-तंत्र भी) ने पिछले कई दशकों से कृषि आधारित उद्योगों की संभावना पर विचार करना छोड़ दिया था. बड़े उद्योग की मृगतृष्णा की शिकार होकर वह नामचीन औद्योगिक घरानों के मनुहार में लगी थी. कृषि आधारित उद्योग की बात होने पर केवल गन्ना विकास व चीनी उद्योग को ही केन्द्र में रख कर विचार किया जाता था. पिछले दशकों-कांग्रेस से लेकर समाजवादियों तक के शासन-काल-के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जो बिहार के देसी उद्योग को थोड़ी भी ताकत देता. अभी मखाना और लीची की पुरजोर चर्चा हो रही है, पर तथ्य जानकर आप हैरान रह जायेंगे. केन्द्र सरकार की ओर से दरभंगा में स्थापित मखाना अनुसंधान केन्द्र अपनी हाल पर जार-जार रो रहा है. विडम्वना यह कि इसकी स्थापना कभी नीतीश कुमार की पहल पर ही हुई थी. यही हाल मुजफ्फरपुर के लीची अनुसंधान संस्थान का है. मखाना के विकास के लिए एनडीए के शासन-काल में नाबार्ड से धन मिला था. पर, इस धन के उपयोग की नीतीश कुमार की सरकार कोई योजना तैयार नहीं कर सकी, पैसा बगैर खर्च के ही रह गया. आज खादी हाट का जोर है और बड़ी-बड़ी योजना बन रही है. खादी को लेकर यह नजरिया केन्द्र सरकार के रुख में आये बदलाव का परिणाम है, वर्ना यहां तो खादी क्या, हैंडलूम- पावरलूम को भी हमने मरने के लिए छोड़ दिया. अघोषित कारणों से हाल के दशकों में बिहार की राजनीतिक सत्ता- वह किसी के हाथ हो-बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों को लेकर ही परेशान रही, उसी पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करती रही. लघु व मध्यम उद्योग की सुध नहीं ली गयी. नतीजतन, ‘न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के हम’. मखाना, शहद, लीची, आम, केला, टमाटर व अन्य सब्जी, मक्का, पुदीना व औषधीय पौधे आदि को भी औद्योगिक आमदनी और रोजगार का व्यापक स्रोत बनाया जा सकता है, इस पर विचार की जरुरत भी नहीं समझी गयी. सूबे के राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता के कारण में इस सूबे का फलता-फूलता लेदर उद्योग (ब्रांड नाम चलन्तिका), फल को प्रोसेस कर बोतलबंद पेय व पल्प (ब्रांड नाम रसवंती), फलता-फूलता हैंडलूम-पावरलूम सेक्टर लगभग खत्म हो गया, खादी खत्म हो गयी, भागलपुरी रेशम कारखानों पर ग्रहण लग गया…यह फेहरिस्त काफी लंबी है. यह बिहार के भाग्यविधाताओं के जान-बूझ कर सूबे को बर्बाद करने की त्रासद-गाथा है और इससे भी बड़ी त्रासदी यह कि यह सारा कुछ सामाजिक न्याय और सुशासन के दौर में किया गया. बिहार के ये सेक्टर राज्य के राजनीतिक नेतृत्व – जिनके हाथ सत्ता के सूत्र संचालन की कमान होती है- की विफलता के जीवन्त स्मारक हैं-भले खंडहर जैसी शक्ल में हैं.
चलिये, जब जागे तभी सवेरा. खंडहरों के भी उद्धार किये जाते हैं, नालंदा तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. हम चाहते हैं, सूबे के आर्थिक विकास के सपनों के इन स्मारक-खंडहरों के भाग्य भी नालंदा की तरह बदले, ये अपने बदले स्वरूप में दिखें. कोरोना बिहार की क्षमता को जगाये और यहां नयी ऊर्जा का संचार करे. ऐसा लगता है कि बिहार की क्षमता जग रही है, पिछले दो तीन हफ्तों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अधिकारियों के एक विशिष्ट समूह से निरंतर विचार -विमर्श कर बिहार की इस क्षमता को जगाने के दर्जनों निर्देश जारी किये हैं, कर रहे हैं. ये अभी जारी किये ही जा रहे हैं. ये निर्देश बहु आयामी हैं. मुख्यमंत्री सरकार के विभिन्न विभागों से तात्कालिक या दीर्घकालिक रोजगार सृजन के उपाय खोजने व इन्हें लागू करने के लिए रोड-मैप बनाने को कह रहे हैं. इन निर्देशों को प्रायः रोज दुहराया जाता है. पर, किसी विभाग ने ठोस योजना तैयार कर रोड मैप बनाया है, ऐसी कोई खबर अब तक नहीं मिली है. बिहार सरकार के प्रवक्ताओं के अनुसार मुख्यमंत्री के निर्देशों के अनुरूप मजदूरों को काम उपलब्ध करवाने की एक साथ चार लाख से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है. इन योजनाओं को विभिन्न उद्योंगों का कलस्टर तैयार कर कोई साढ़े आठ लाख लोगों को रोजगार दिलाने का कार्यक्रम तैयार किया गया है. यह बताया गया है कि उद्योग विभाग ने प्रवासी बिहारियों का सर्वेक्षण कर छह लाख से अधिक कुशल मजदूरों (स्कील्ड लेबर) की सूची तैयार की है. सरकार के इस प्रचार-मूलक जानकरी ने हालात के सुखद होने का उज्ज्वल अहसास दिलाया है. मुख्यमंत्री ने निजी क्षेत्र को भी बिहार में नयी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना को कहा है ताकि घर लौटे प्रवासी बिहारियों को इस सेक्टर में पर्याप्त रोजगार उपलब्ध हो सके. इस संबंध में जारी निर्देशों का क्या असर है, यह पता नहीं. गौर करने की बात यह है कि निजी क्षेत्र के साथ बिहार सरकार का, किसी भी स्तर पर अब तक कोई औपचारिक विचार-विमर्श हुआ है, इसकी जानकारी नहीं है. मीडिया बैठकों के जरिये निर्देश देने- अनुरोध करने-का कितना और क्या असर होता है, यह किसी को बताने की जरूरत है क्या!
इन सब के बावजूद श्रम शक्ति के इस प्रवाह का पोषण फिलहाल मुश्किल है. बिहार में अगले दो-तीन महीनों तक खेती-किसानी में मौसमी रोजगार के अवसर हैं. बिहार के गांवों को खरीफ के लिए कृषि मजदूरों के संकट इस साल नहीं होगा. फिर, वर्षों व दशकों तक देश के विभिन्न भागों में अपने श्रम का लोहा मनवाने में माहिर बिहार के प्रवासी मजदूर अपने साथ कोई हुनर लेकर नहीं आयेंगे, यह सोचना गलत होगा. घर लौट रहे प्रवासी बिहारियों में काफी संख्या में छोटे-मोटे बिजली मिस्त्री होंगे, पलम्बर होंगे, कारपेंटर होंगे, दस्तकार होंगे, ऑटो मिस्त्री होंगे. ऐसे कुछ सामाजिक समूहों के पुश्तैनी पारंपरिक पेशा से नये जुड़े गैर-परंपरिक सामाजिक समूहों के लोगों की संख्या बहुत अधिक हो सकती है. ऐसों को कोरोना त्रासदी ने अपनी मिट्टी पर जमने का नया अवसर दिया है. ऐसा होना ग्रामीण बिहार में नये ढंग की आर्थिक गतिविधि की शुरुआत होगी. ऐसा होना बिहार के लिए बड़ा ही शुभ होगा, गांव की अर्थव्यवस्था में नयी हवा चलेगी जो बहुत सारे सामाजिक बदलाव में मददगार होगी. गांव आत्मनिर्भरता की ओर तो बढ़ेगे ही, उसकी सूरत व सीरत में भी जरूर बदलाव आयेगा.