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जाति आधारित गणना : तब ऐसा कोई फार्मूला लागू होता?

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बिहार में जाति आधारित गणना का मामला उलझ गया-सा दिखता है. उससे संबंधित किस्तवार आलेख की यह चौथी कड़ी है :


महेन्द्र दयाल श्रीवास्तव
08 मई 2023

PATNA : समाजवादी धारा के शीर्ष नेताओं में शुमार कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) अतिपिछड़ा वर्ग से थे. आरक्षण (Reservation) के उनके फार्मूले पर पिछड़ा वर्ग के अंदर कोई ज्यादा विरोध नहीं हुआ. परन्तु, जनता पार्टी (Janta Party) की सामान्य राजनीति को यह नागवार गुजरा. कर्पूरी ठाकुर की सरकार ‘शहीद’ हो गयी. यहां सवाल मौजू है कि अभी की तरह उस वक्त पिछड़ों के ‘प्रभु वर्ग’ की सत्ता रहती, तो अतिपिछड़ों के हित में आरक्षण का ऐसा कोई फार्मूला लागू होता? विश्लेषकों की समझ में कतई नहीं. इसकी पुष्टि मंडल आयोग (Mandal Commission) की रिपोर्ट को लागू करने में कथित रूप से हुई पक्षपात ही कर देती है. रिपोर्ट के उस अंश पर भी अमल हुआ होता, तो 27 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर अतिपिछड़ों को उनका हक मिल जाता.

उपश्रेणियों में नहीं बंटने दिया
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को इस आशय की मांग उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती. उस अंश में उपलब्ध आरक्षण को विभिन्न उपश्रेणियों में बांटने की सिफारिश थी. लेकिन, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने के लिए आसमान सिर पर उठा रखे पिछड़ों के ‘प्रभु वर्ग’ के प्रभावशाली नेताओं ने आरक्षण को उपश्रेणियों में नहीं बंटने दिया. समाज शास्त्रियों और समाज विज्ञानियों की स्पष्ट और अकाट्य समझ है कि जिस आधार पर पिछड़ा वर्ग (Backword Class) को सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन के पैमाने पर आरक्षण की अनिवार्यता तार्किक है, वैसा ही आधार पिछड़ों के लिए आरक्षण में अत्यंत पिछड़ों की हिस्सेदारी का भी बनता है.

आरक्षण के अंदर आरक्षण!
नीतीश कुमार ने बिहार (Bihar) के फार्मूले की तरह पिछड़ों के आरक्षण के अंदर अतिपिछड़ों को आरक्षण की मांग उठायी थी. लेकिन, उस पर अडिग नहीं रह पाये. बाद में अतिपिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण की बात करने लगे. बाद में जाति आधारित गणना (Caste Based Enumeration) ही इनकी राजनीति (Politics) का मुख्य मुद्दा बन गया. नीतीश कुमार का कहना है कि जाति आधारित गणना का उद्देश्य समाज कल्याण और विकास योजनाओं का वास्तविक लाभ वंचित तबकों तक पहुंचाना है. इससे नीतियों-कार्यक्रमों की दशा व दिशा बदलेगी. इसकी कामयाबी कई मिथक तोड़ेगी. पर, सामान्य समझ में इसका मूल मकसद ‘जिसकी जितनी आबादी, उसको उतनी सुविधा’ उपलब्ध कराना है.

यह बदलाव क्यों?
लोग यह अवश्य जानना चाहेंगे कि नीतीश कुमार के विचारों में यह बदलाव क्यों और कैसे आया? ‘जाति नहीं जमात’ का राग अलापने वाले अचानक फिर जाति (Cast) पर क्यों आ गये? ‘जाति नहीं जमात’ का सूत्र वाक्य सिर्फ सत्ता हासिल करने भर के लिए था? नीतीश कुमार के विरोधियों को यह बदलाव पिछड़ों के उपेक्षित-वंचित तबकों को राष्ट्रीय स्तर (National Level) पर उनका वाजिब हक दिलाने के लिए रोहिणी आयोग (Rohini Ayog) के गठन और फिर सामान्य वर्ग (सवर्ण) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद से दिखने लगा. उनके मुताबिक ‘कानून का राज’ और ‘सुशासन’ का गुब्बारा फूट जाने, विशेष राज्य के दर्जा की मुहिम के सियासी नौटंकी से ऊपर नहीं उठ पाने, शराबबंदी (Liquor Ban) के शर्मिंदगी में बदल जाने के बाद आमलोगों में नया भ्रम फैलाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं बचा.


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काठ की हांड़ी …
आखिरी विकल्प के तौर पर जातीय जनगणना का मुद्दा उछाल दिया गया. समझ संभवतः यह कि पिछड़ा वर्ग की आबादी बढ़ गयी तब आरक्षण की सीमा बढ़ाने का सवाल उनकी राजनीति के लिए संजीवनी बन जायेगा. जैसे कि मंडल आयोग (Mandal Ayog) के मामले ने लालू प्रसाद (Lalu Prasad) की निहायत कमजोर राजनीति को मजबूती प्रदान कर दी थी. प्रचलित लोकोक्ति है ‘काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती’. नीतीश कुमार की ढलान की राजनीति इसे चढ़ा दे, तो उसे चमत्कार ही माना जायेगा. वैसे भी सरकारी नौकरियों की निरंतर घटती संख्या और सरकारी शिक्षण संस्थानों के स्तर में भारी गिरावट से आरक्षण का आकर्षण पूर्व की तरह नहीं रह गया है. अपेक्षाकृत कम हुआ है.

छलावा ही तो है
इसके बावजूद वोटों को प्रभावित करने की इसकी क्षमता बनी हुई है. यही वह वजह है कि तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejaswi Prasad Yadav) इसके मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. तभी तो बुनियादी मुद्दों को प्राथमिकता दे पार्टी को ‘माय’ के चोले से निकाल सर्ववर्ग (ए-टू-जेड) का स्वरूप देना छलावा-सा दिखने लगा है. वैसे भी एक तरफ ‘सर्व वर्ग’ की बात होती है दूसरी तरफ सामान्य वर्ग (सवर्ण) को आरक्षण (Reservation) पर आपत्ति जतायी जाती है. 15 प्रतिशत आबादी को 10 प्रतिशत आरक्षण पर सवाल उठाये जाते हैं. राजनीति का यह दोहरा चरित्र नहीं तो और क्या है?

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