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जाति आधारित गणना : ‘प्रभु वर्ग’ का बड़ा स्वार्थ!

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बिहार में जाति आधारित गणना का मामला उलझ गया-सा दिखता है. उससे संबंधित किस्तवार आलेख की यह तीसरी कड़ी है :


महेन्द्र दयाल श्रीवास्तव
07 मई 2023

PATNA : जातीय जनगणना की मांग लंबे समय से हो रही है. सामान्य समझ है कि मांग उठानेवालों के हाथ में सत्ता रहती है तो मुद्दा गौण पड़ जाता है. फिसल जाती है या फिसलने के कगार पर पहुंच जाती है तब कंठ फिर खुल जाता है. यह क्रम बना रहता है. सप्ताह भर पहले कांग्रेस (Congress) ने जातीय जनगणना की मांग उठा इस धारणा को कुछ अधिक मजबूत बना दिया है. इसने यह आवाज विपक्षी एकता की बाबत राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejaswi Prasad Yadav) की मुलाकात के बाद उठायी है. दरअसल, लोहियावादी राजनीति के गर्भ से निकले नीतीश कुमार और तेजस्वी प्रसाद यादव जैसे नेताओं को आमतौर पर सामान्य पिछड़ों-अतिपिछड़ों के हित-अहित से कोई विशेष मतलब नहीं रहता. मुख्य रूप से उनकी नीति-रणनीति सियासी स्वार्थ की पूर्त्ति और पिछड़ा वर्ग (Backward Class) में भी पैदा हुए ‘प्रभु वर्ग’ का प्रभुत्व बनाये रखने पर आधारित होती है.

मुखरता तभी दिखती है
‘प्रभु वर्ग’ में मुख्य रूप से कृषि के क्षेत्र से जुड़ी जातियां हैं. आमतौर पर ऐसे नेताओं की मूल मुद्दे पर मुखरता तभी दिखती है जब ‘प्रभु वर्ग’ के वर्चस्व के टूटने का खतरा आकार लेने लगता है, सत्ता की नाकामयाबी उनके खुद के जनाधार को निगलने लगती है. ये उन्हीं सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कथित रूप से आरक्षण (Reservation) की मलाई चाट रहे हैं. अतिपिछड़ा समाज के जिस तबके की नियति ‘खुरचन’ खरोचना है, वह कहां मुखर है? मुखरता इसलिए नहीं है कि यह तबका जानता है कि जातीय जनगणना (Caste Census) में भी बड़ा स्वार्थ ‘प्रभु वर्ग’ का निहित है. उसकी पूर्त्ति के लिए ही ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी भागीदारी’ की बात कही जा रही है.

आरक्षण का कर्पूरी फार्मूला
नीतीश कुमार ने कुछ साल पूर्व पिछड़ा वर्ग के लिए बिहार के फार्मूले की तर्ज पर केन्द्रीय आरक्षण व्यवस्था लागू करने की मांग उठायी थी. बिहार (Bihar) में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में ही अतिपिछड़ों की हिस्सेदारी है, जो ‘कर्पूरी फार्मूला’ के नाम से जाना जाता रहा है. यह मंडल आयोग (Mandal Commission) की सिफारिशें लागू होने के पहले से है. 1971 में मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर (Chief Minister Karpoori Thakur) ने पिछड़ों को आरक्षण के लिए मुंगेरी लाल आयोग (Mungeri Lal Commission) का गठन किया था. चार साल बाद 1975 में उसकी रिपोर्ट आयी. उसमें इस वर्ग को दो भागों में विभाजित कर दिया गया. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अतिपिछड़ा वर्ग (एमबीसी) के रूप में. ओबीसी (OBC) में 128 जातियों को रखा गया तो एमबीसी में 93 जातियों को.

बैठा दिया बेहतरीन हिसाब
कर्पूरी ठाकुर सत्ता से बाहर थे. शासन कांग्रेस का था. मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट संचिकाओं का हिस्सा बन गयी. दो साल बाद 1977 में सत्ता परिवर्तन हुआ. संयोग से कर्पूरी ठाकुर को जनता पार्टी (Janta Party) की सरकार में मुख्यमंत्री बनने का फिर से अवसर मिल गया. 1978 में मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकारी नौकरियों में 08 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग, 12 प्रतिशत अतिपिछड़ा वर्ग, 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 10 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 3 प्रतिशत महिला और 3 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर (सामान्य) वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी. इस रूप में 50 प्रतिशत आरक्षण का बेजोड़-बेहतरीन हिसाब बैठा दिया गया. थोड़ा-बहुत इधर-उधर के साथ 2002 तक वही व्यवस्था लागू रही.


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नया आरक्षण प्रतिशत
सन् 2000 में झारखंड (Jharkhand) के अलग राज्य बन जाने के बाद 2002 में नया आरक्षण प्रतिशत का नया निर्धारित हुआ. तब कांग्रेस की सहभागिता वाली राजद (RJD) की राबड़ी देवी (Rabri Devi) की सरकार थी. अनुसूचित जाति और जनजाति को आबादी आधारित आरक्षण देने के बाद बचे कोटे को पिछड़ों और अतिपिछड़ों में 2 और 3 के अनुपात में बांट दिया गया. उस वक्त बिहार में अनुसूचित जनजाति की 15.7 और अनुसूचित जनजाति की आबादी 0.92 थी. इस आधार पर अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को सिर्फ 01 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. 03 प्रतिशत महिलाओं को. शेष 30 प्रतिशत में से 12 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग और 18 प्रतिशत अतिपिछड़ा वर्ग को मिला. ‘कर्पूरी फार्मूला’ के तहत आर्थिक रूप से कमजोर (सामान्य) वर्ग के लिए जो 03 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था थी, उसे मंडल आयोग की सिफारिशों को आधार बना समाप्त कर दिया गया.

नहीं समझी परिमार्जन की जरूरत
गौर करने वाली बात यह है कि खुद को कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक शिष्य बताने वाले नीतीश कुमार ने भी अपने शासनकाल में इसके परिमार्जन की जरूरत नहीं समझी. इन वर्षों के दौरान सरकार के स्तर पर आरक्षण की दृष्टि से जातियों की सूची में काफी उलट फेर हुए. अतिपिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल 14 जातियों को अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग की सूची की 16 जातियों को अतिपिछड़ा वर्ग की सूची में डाल दिया गया. सामान्य वर्ग (General Class) की कुछ जातियां पिछड़ा वर्ग की सूची में आयीं. परन्तु, पिछड़ा वर्ग की सूची से एक भी जाति को सामान्य वर्ग में नहीं लाया गया. जबकि यादव, कुर्मी और कुशवाहा (कोइरी) को राज्य सरकार सामान्य के समान मानती है. पंचायतों और नगर निकायों के चुनावों में उन्हें आरक्षण की सुविधा से वंचित रखने से तो ऐसा ही कुछ परिलक्षित होता है.

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