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दर्दों-गम में भींगी हैं गुलफाम की रगें

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बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार ग्रामीण शब्दावलियों से संपन्न आंचलिक कथा साहित्य के अप्रतिम शैलीकार फणीश्वरनाथ रेणु की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. वैसे, अन्य साहित्यकारों की तुलना में फणीश्वरनाथ रेणु की स्थिति थोड़ा भिन्न है. कृति और स्मृति को सम्मान प्राप्त है. संबंधित किश्तवार आलेख की यह अंतिम कड़ी है:


अश्विनी कुमार आलोक
13 मार्च 2024

णीश्वरनाथ रेणु का निजी जीवन गांव और जमीन से जुड़ा रहा. वह खेतों-खलिहानों से अपने कथा-पात्र सहेज लेते थे. गांव से बाहर रहते थे, तब भी गांव से करीबी बनी रहती थी. उनका जीवन साहित्य और समाज को समर्पित रहा. परंतु, अनेक आंदोलन में मुखर योगदान (Vocal Contribution) करने वाले रेणु जी के परिजनों को राजनीतिज्ञों ने छला. 2010 में रेणुजी के बड़े पुत्र पद्मपराग राय वेणु भाजपा के टिकट पर फारबिसगंज (Forbesganj) से विधायक बने थे. उन्होंने लोजपा के मायानंद ठाकुर को हरा दिया था. परंतु, क्षेत्र में ‘संत विधायक’ नाम से विश्रुत वेणु जी की समझ में राजनीति का दांव-पेंच नहीं आया.

नरेन्द्र मोदी और रेणु साहित्य
रेणु जी कहते थे कि राजनेताओं के दिल की जगह तिल होते हैं. वही हुआ भी. 2015 में विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर भोपाल की सभा में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) बिहार को समझने के लिए रेणु-साहित्य को पढ़ना जरूरी बता रहे थे. सभा के हफ्ते भर बाद रेणु जी के पुत्र पद्मपराग राय वेणु के बदले विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता रहे विद्यासागर को टिकट थमा दिया गया. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का अपनत्व रेणु जी के परिजनों से रहा. 2010 में भाजपा से टिकट दिलवाने में उन्हीं का सहयोग माना गया. नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) के यहां नीतीश कुमार की पैरवी पहुंची थी. वेणु तो महज सीपी ठाकुर को अपना बायोडाटा दे आये थे.

परिजनों की है यह इच्छा
2020 में भाजपा के भूपेन्द्र यादव और नित्यानंद राय (Nityanand Rai) ने फिर टिकट देने का वादा किया, लेकिन छले गये. कहते हैं सुशील कुमार मोदी और मंगल पांडेय के प्रभाव में आकर पद्मपराग राय वेणु का टिकट काट दिया गया. रेणुजी के परिजनों की इच्छा है कि नीतीश कुमार पद्मपराग राय वेणु को राज्यसभा या विधान परिषद में भेजकर पद्मा रेणु को दिया हुआ अपना वचन पूरा करें. रेणु जी के सबसे छोटे पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय ने रेणु की लेखकीय परंपरा (Literary Tradition) को आगे बढ़ाया है. उनकी अनेक कहानियां स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.

जमे हुए हैं भाजपा में
दक्षिणेश्वर प्रसाद राय अनेक असहमतियों के बावजूद भाजपा में बने हुए हैं. 2025 के चुनाव में भाजपा (BJP) से टिकट के प्रबल दावेदार बताये जाते हैं. उन्हें अपनी जाति के करीब पचहत्तर हजार मतदाताओं के अतिरिक्त अन्य मतदाताओं पर भी भरोसा है. रेणु जी के वंशजों की जीविका खेती-बारी और व्यवसाय से-चलती है. साल में किताबों से भी करीब चार लाख रुपये रॉयल्टी के रूप में आ जाते हैं.


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साहित्य आज भी जीवंत है
फणीश्वरनाथ रेणु (Phanishwar Nath Renu) सिमराहा और औराही हिंगना के अतिरिक्त पूर्णिया के लोगों के लिए भी अविस्मरणीय (Unforgettable) बने हुए हैं. कभी पूर्णिया का ही एक भाग था अररिया. पूर्णिया में सांसद संतोष कुशवाहा के भाई शंकर कुशवाहा के सहयोग से पूर्णिया नवनिर्माण मंच सात वर्षों से रेणु जयंती के अवसर पर बड़ा साहित्यिक कार्यक्रम करता है. कार्यक्रम के अवसर पर रामनरेश भक्त के संपादन में हर वर्ष रेणु जी की रचनाओं को विश्लेषित (Analyzed) करनेवाले आलेखों पर पुस्तक का प्रकाशन होता है. फणीश्वरनाथ रेणु साहित्य और समाज में जीवित रहेंगे. उनका समाज बदला, पर साहित्य (Literature) आज भी जीवंत है.

सब कुछ बदल गया
भइया महेंदर (परती परिकथा) के गांव की सड़कें कच्ची न रहीं. उन पर टप्पर गाड़ियां नहीं दौड़तीं. टप्पर गाड़ी में जुते बैल कुसमु बहलमान की दुआलियों के भय से कभी दुलदुलिया डगों के हाते टप जाया करते थे. रेणु के इन्द्रजाल का जादू सेमल पेड़ के भूतों को भले भगा गया, पर लहसन गाड़ीवान को नहीं लौटा सका. अब रेणु भी पटना के पिंटू होटल से मिठाई का लदिया लेकर नही आते. आते, तो पद्मा रेणु अपने हाथों से मांस पकातीं और बेटियां स्वागत में घर-दरवाजे लीप डालतीं. उनके मित्र बद्री भगत और जगनारायण गुप्ता भी दसबजिया ट्रेन से रेणु के उतरने का इंतजार नहीं करते.

आज रेणु होते, तो…
आज रेणु होते, तो उन्हें टोले से दूर छतरी के इरोत में शौच के लिए न बैठना पड़ता, सुविधाएं उनके घर तक आ गयी हैं. कलकत्ता (Calcutta) की सुगंध शृंगार अगरबत्ती की गंध में अनूपलाल बख्शी की लायी हुई गुलाब की कोमल पत्तियों को गांजे के चनका में रगड़कर शंभु काका चिलम में चढ़ाते भी नहीं कि प्रादेशिक समाचार का वक्त भी बीत जाता है. अफसोस कि औराही हिंगना में रेडियो की भी अहमियत नहीं रही. बेतार कहलाने वाले सुमरित दास को मोबाइल के जमाने में कौन पूछे. औराही हिंगना गांव के गुलफाम का है अपना दर्द, अपने छले जाने का गम.

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