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आंचलिक कथा साहित्य के बेजोड़ शैलीकार

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बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार ग्रामीण शब्दावलियों से संपन्न आंचलिक कथा साहित्य के अप्रतिम शैलीकार फणीश्वरनाथ रेणु की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. वैसे, अन्य साहित्यकारों की तुलना में फणीश्वरनाथ रेणु की स्थिति थोड़ा भिन्न है. कृति और स्मृति को सम्मान प्राप्त है. संबंधित किश्तवार आलेख की यह दूसरी कड़ी है :


अश्विनी कुमार आलोक
09 मार्च 2024

णीश्वरनाथ रेणु का यह गांव अररिया (Araria) जिले में है. फारबिसगंज (Forbisganj) विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा. उन दिनों उनके बड़े पुत्र पद्मपराग राय वेणु (Padmparag Ray Venu) भाजपा के विधायक थे. वह दो बार मुखिया भी रह चुके थे. फणीश्वरनाथ रेणु (Phanishwarnath Renu) स्वयं भी विधानसभा का चुनाव लड़े थे, लेकिन जीत नहीं पाये थे. 4 मार्च 1921 को पूर्णिया (Purnea) जिले के औराही हिंगना (Aurahi Hingna) गांव में जन्मे आंचलिक कथा साहित्य के सर्वाधिक चर्चित लेखक रहे फणीश्वरनाथ रेणु. विद्यार्थी जीवन से उन्होंने शोषण और अन्याय का प्रतिकार किया. अंगरेजों से लोहा लिया. उनके पिता शिलानाथ मंडल (Shilanath Mandal) की रुचि लिखने-पढ़ने में थी. पिता के साहित्य-प्रेम एवं अनूपलाल मंडल (Anooplal Mandal) तथा रामदेनी तिवारी द्विजदेनी (Ramdeni Tiwari Dwijdeni) जैसे साहित्यकारों के सान्निध्य से पल्लवित होकर फणीश्वर नाथ रेणु न सिर्फ भारत में, बल्कि संसार के अनेक देशों में अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आंचल’ एवं ‘परती परिकथा’ के कारण चर्चित हो गये.

मारे गये गुलफाम
उनके अन्य उपन्यास ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, ‘जुलूस’, ‘कितने चौराहे’ और ‘पलटू बाबू रोड’ का भी नाम हुआ. अपनी ‘ठुमरी’, ‘अग्निखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘एक श्रावणी दोपहर की धूप’ और ‘अच्छे आदमी’ जैसी कथा-पुस्तकों, ‘ऋणजल-धनजल’, ‘वनतुलसी की गंध’, ‘श्रुत-अश्रुत पूर्व’ जैसे संस्मरणों तथा रिपोर्ताज ‘नेपाली क्रांति कथा’ की ग्रामीण शब्दावलियों से संपन्न आंचलिक भाषा ने उन्हें साहित्य के अप्रतिम शैलीकार के रूप में समादृत किया. उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ पर गीतकार शैलेन्द्र (Shailendra) द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (Tisari Kasam) काफी चर्चित रही.

स्वतंत्रता संग्राम के हिस्सेदार
उनकी आरंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में हुई थी, उसके बाद नेपाल (Nepal) में पढ़े. नेपाल में वह गिरिजा प्रसाद कोइराला (Girija Prasad Koirala) और मातृका प्रसाद कोइराला (Matrika Prasad Koirala) के संपर्क में आये. 1942 में बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद स्वतंत्रता संग्राम के हिस्सेदार बने. रेणु जी के पिता शिलानाथ मंडल के घर ‘चांद’ पत्रिका का फांसी अंक सुरक्षित होने की भनक अंगरेजों को मिली थी. उस समय फणीश्वरनाथ रेणु महज नौ वर्ष के थे. ‘चांद’ का वह अंक अपने स्कूल बैग में छुपाकर भाग गये थे. वास्तव में, अंगरेजों के विरुद्ध लड़ाई में उन्होंने उसी समय अघोषित रूप से भाग ले लिया था. बाद में, बेहद कम उम्र में जेल भी गये. उन्होंने ‘बानर सेना’ के माध्यम से स्वाधीनता संग्राम में अंगरेजों के दांत खट्टे किये.

जयप्रकाश नारायण के साथ फणीश्वरनाथ रेणु.

आंखों की किरकिरी बने रहे
1942 की क्रांति में नक्षत्र मालाकार, रामानंद सिंह, लखनलाल कपूर के साथ उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दी. एक जगह से दूसरी जगह गोला-बारूद पहुंचाने में उन्हें महारत हासिल थी. एक बार फारबिसगंज से पूर्णिया के लिए गोला-बारूद लेकर जानेवाले थे कि अंगरेजों को भनक लग गयी. तब, टप्पर गाड़ी में दूल्हें के रूप में बैठे थे. उनके एक अन्य साथी ने दुल्हन के वेश में बैठकर अंगरेजों को चकमा दे दिया था. अपनी शरारतों की वजह से वह अंगरेज अधिकारियों की आंखों की किरकिरी बने रहे. पकड़े गये, तो अमानवीय यातनाओं के भोक्ता बने.

पहले ही उपन्यास ने यशस्वी बना दिया
अंगरेजों ने ऐसी पिटाई की कि शरीर अनेक बीमारियों का घर बन गया. उन्हीं में से एक पेप्टिक अल्सर के कारण 11 अप्रैल 1977 को उनका देहांत हो गया. भारत सरकार (Indian government) ने उन्हें पद्मश्री (Padmashree) की उपाधि दी थी, उसे ‘पापश्री’ कहकर वापस कर दिया था. उनके नाम पर बाद में एक डाक टिकट भी जारी किया गया. महज पचपन वर्ष जी पाये. फणीश्वरनाथ रेणु के पहले ही उपन्यास ‘मैला आंचल’ ने साहित्य-क्षेत्र में उन्हें यशस्वी बना दिया था.‘मैला आंचल’ पूर्णिया जिले के एक गांव ‘मेरीगंज’ के तीन जातीय दलों की कथा के माध्यम से भारतीय समाज के पाखंड, राजनीति (Politics) और अमानवीयता को सामने लाता है.

राजनीतिक विकृतियों की सजीव कथा
इसके पात्र डा. प्रशांत, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी कमला, बलदेव, लक्ष्मी, महंत रामदास, रामपियरिया, कालीचरण और बावनदास बिहार के पूर्वांचल की चित्रात्मक परिदृष्टि के साथ उपस्थित हुए हैं. ‘परती परिकथा’ जित्तन की राजनीतिक वितृष्णा और इरावती से उसके प्रेम का स्वाभाविक विस्तार देता हुआ रेणु जी का दूसरा उपन्यास है. ‘जुलूस’ उपन्यास पूर्वी बंगाल की विस्थापित युवती पवित्रा और बिहार में व्याप्त राजनीतिक विकृतियों की सजीव कथा पर आधारित है.


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अब कोई अपेक्षा नहीं रही
फणीश्वरनाथ रेणु के निधन के बाद औराही हिंगना (Aurahi Hingna) करीब पैंतालीस बरस आगे निकल आया है. स्वाभाविक है कि उनके कथा पात्र एवं उनकी पृष्ठभूमि में परिवर्तन आ गया. अब किसी अलबत्ता गोधन से ऐसी कोई अपेक्षा न रही कि वह ‘पंचलैट’ जलाकर गांव की इज्जत रख ले. टोले के दीवान, सरदार और छड़ीदार अगनू महतो यह देखने के लिए नहीं बचे कि घर-घर में एलइडी (LED) बल्ब की झक्क सफेद रोशनी बिखर रही है. ‘सलम-सलम’ वाला सलीमा का गीत गाकर कोई गोधन अब मुनरी को आंखों का इशारा नहीं करता. गुलरी काकी माने, या नहीं, इसकी परवाह नहीं और दोनों दूर तक निकल आते हैं.

टप्पर गाड़ी की जगह टेम्पू
हिरामन (Hiraman) ने भले बैल और बैलगाड़ी को नहीं बेचा, लेकिन उसने टप्पर गाड़ी चलाने के बजाय टेंपू ले लिया है. अब उसकी बैलगाड़ी पर हीराबाई नहीं बैठती, उस पर खेतों की फसलें लद रही हैं. लेकिन, हिरामन जब भी टीशन पर खड़े होकर ट्रेन से उतरने वाली सवारियों को पुकारता है, उसकी ओर हीराबाई (Hirabai) उतर आती है. लेकिन, न जाने वह कहां गुम हो जाती है. ‘इस्स! यह दुनिया तो मेला है, एक-न-एक-दिन टूटकर रहेगा, टूटता ही रहता है!’ लेकिन, टेंपू पर बैठते ही हिरामन की पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है. भोलापुर मठ की दीवारें ऐसी ढहीं कि सब कुछ खत्म हो गया.

गुजर गया जमाना
महंथ सेवादास का जमाना गुजर गया, लक्ष्मी दासिन न जाने कैसे लरसिंघ दास के फेरे पड़ गयी. बावन दास ने कहा भी था कि उसका चाल-चलन भरोसे लायक नहीं. जा रे जमाना! अंगरेज बहादुर का जमाना बीता, तो सुराज भी कहां आया? उधर, कमला सूखी और मेरीगंज की नीलकोठी भी वीरान पड़ गयी. मेरी का पोता जोसेफ नंगे बदन बांस फट्टे के मचान पर सोया हुआ है, धूप में देह सुखा रहा है.

पंडुकी का करुण स्वर
पंचकौड़ी मिरदंगिया कोशिशें करके हार गया. चरवाहा मोहना ने रसपिरिया बजाना नहीं सीखा. उसकी उमर के छोरों को ‘विदापत’ नाच नहीं लुभाता, वह तो माथे में रुमाल बांधकर डीजे की धुनों पर दीवाने की तरह कूदता रहता है. जबसे जित्तन बाबू ने कोसी पर बांध बंधवाया भइया महेंदर के सिमराहा में हरे पेड़ की फुनगियां लहलहा उठीं. परानपुर की खबर भिम्मल मामा ने बता ही दी है – अब भी पंडुकी का करुण स्वर न जाने किसलिए पुकार उठता है!

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