चैत, चैती और चैता : पाऊं आनंद अपार हो रामा बाबा दशरथ दुअरिया…
भारतीय ऋतु चक्र में चैत को ‘मधुमास’ कहा गया है. मधुमास मतलब मिलन का महीना. इसमें माधुर्य है, संयोग का उल्लास है, तो विरह की वेदना भी है. इस दृष्टि से विरहणियों के लिए इसे बेहद पीड़ादायक माना जाता है. फागुन उन्मादी महीना है तो चैत पिया-वियोग की पीड़ा जगा-बढ़ा देने वाला उत्पाती महीना. इसलिए इसे फागुन की परिणति के तौर पर देखा और समझा जाता है: चांदनी चितवा चुरावे हो रामा चैत के रतिया… इसी संयोग और वियोग पर आधारित सुरूचिपूर्ण आलेख का यह द्वितीय अंश है :
शिवकुमार राय
13 अप्रैल 2024
चैता और चैती पूर्वी उत्तर प्रदेश, अवध और पश्चिमी बिहार (Bihar) की लोक संस्कृति से जुड़ा गीत-संगीत है. घाटो के रूप में भोजपुरी क्षेत्र, चैतार के रूप में मगही क्षेत्र और चैतावर के रूप में मिथिलांचल में इसका गायन होता है. भाषाएं भिन्न, बोलियां विभिन्न, पर विषय वस्तु, स्वर संयोजन तथा लय प्रवाह में लगभग समानता. विविधता में एकता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? मिथिलांचल (Mithilanchal) में चैती के संदर्भ में मीनाक्षी प्रसाद के आलेख में चर्चा है-‘ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीराम (Sriram) से सीताजी (Sitaji) के विवाह के बाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान के तहत उत्तर प्रदेश से चैती मिथिलांचल पहुंच गयी थी, क्योंकि सीता के जन्म से संबंधित चैती की तुलना में मिथिला की प्रकृति या राम-सीता युगल से संबंधित चैती ज्यादा मिलती है.’ उनके कथन की पुष्टि इससे होती है. राजा जनक ने कठिन प्रण कर रखा है कि जो शिव के धनुष को तोड़ेगा, अपनी बेटी जानकी (Janaki) का विवाह उसी से करेंगे-
रामा राजा जनक ने
कठिन प्रण ठाने हो रामा
देसे-देसे लिखि-लिखि
पतिया पठावे हो रामा
अवध नगरिया
श्रीराम और माता सीता विवाहोपरांत अयोध्या आते हैं और दोनों को स्वागत संबंधी रस्मों के लिए साथ में बैठाया जाता है, उस मनोहारी दृश्य का एक चैती में खूब सुन्दर वर्णन है:
राजा राम सिय साथे हो रामा
अवध नगरिया
माता कौशल्या तिलक लगावे
सुमित्रा के हाथ सोहे पनमा हो रामा
अवध नगरिया
दासी सखी चलो दरसन कर आवें
पाऊं आनंद अपार हो रामा
बाबा दशरथ दुअरिया
रसभरा मधुर गायन
बनारस के संगीताचार्यां ने चैती को उपशास्त्रीय गायन का नया रूप दिया. उपशास्त्रीय गायन में ठुमरी और चैती की भावाभिव्यक्ति में करीब-करीब समानता है. शुद्ध चैती मात्र लोक धुन है. परन्तु, स्वर संयोजन से ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यादातर यह खमाज ठाट, विलावल ठाट और काफी ठाट में गाया जाता है. इन ठाटों पर आधारित रागों में चैती सहज ग्राह्य होती है. कजरी (Kajari) की तरह चैती (Chaiti) भी अत्यंत मधुर और रसभरा गायन है. इसमें रस भाव युक्त ठुमरी (Thumari) की अनुभूति तो होती ही है, ध्रुपद-धमार जैसी शैली की चैती में शास्त्रीय संगीत की मिठास भी मिलती है. इसमें दीपचंदी, कहरवा, रूपक आदि तालों का प्रयोग होता है. कुछ लोग अद्धाताल यानी सितारवानी या जलद त्रिताल में भी गाते हैं.
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अलग-अलग गायन शैली
चैता और चैती दो अलग-अलग गायन शैली है. चैता के समूह गायन में पुरुष और महिलाएं दोनों होते हैं. चैती में सिर्फ पुरुष या सिर्फ महिलाएं ही गाती हैं. चैता गांवों के जनजीवन से जुड़ा लोक गायन है. इसमें शास्त्रीयता के आग्रह की जरूरत नहीं होती. चैती उपशास्त्रीय गायन की ऋतुबद्ध परंपरा है. पं. रामप्रसाद मिश्र (Ramprasad Mishra) के ठुमरी शैली में गाये -‘एहि ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा, एहि ठैयां…’ तथा बाबू श्यामनारायण सिंह (Shyamnarayan Singh) की पीलू ठुमरी शैली में गाये-‘आईल चइत महिनवा हो रामा, पियरी न पेन्हब’ जैसे गीतों से चैता को ऊंचाई मिली है. दरभंगा (Darbhanga) के प्रसिद्ध ध्रुपद-धमार गायक पंडित रामचतुर मलिक (Ramchatur Mallik) ने भी चैता गाये हैं.
गायन का अलग अंदाज
गिरिजा देवी, शोभा गुर्टू, शुभा मुद्गल, सिद्धेश्वर देवी, सविता देवी आदि अनेक ख्यात स्वर साधिकाएं हैं, पर पटना (Patna) की लोकगायिका पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी (Vindhyavasini Devi) के गायन का कोई जवाब नहीं. पद्मश्री शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) के गायन से भी चैती को नया आयाम मिला है. पंडित महादेव मिश्र (Pt. Mahadeo Mishra) और पंडित हरिशंकर मिश्र (Pt. Harishankar Mishra) की तरह पंडित छन्नुलाल मिश्र (Channulal Mishra) का बनारसी चैती गायन का अपना एक अलग अंदाज रहा है. उनकी एक मशहूर चैती का बंद कुछ इस प्रकार है:
सेजिया से सइयां रूठि गईलें हो रामा
कोयल तोरी बोलिया
रोज तू बोलेली सांझ-सवेरबा
आज काहे बोले अधरतिया हो रामा
कोयल तोरी बोलिया
होत भोर तोर खोतबा उजरबो
और कटइबो बन बगिया हो रामा
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