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जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

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एस के राय
23 मार्च 2024

राग और रंग होली के दो प्रमुख तत्व हैं. साहित्य और गीत-संगीत होली वर्णन से पटे पड़े हैं. ऐसा समझा जाता है कि भारत (India) के परंपरागत उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है जिस पर साहित्य में सबसे अधिक लिखा गया है. पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’, रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का वृतांत है. प्राचीन संस्कृत साहित्य में भी होली के विविध रूपों का विशद वर्णन है. श्रीमद्भागवत महापुराण (Srimad Bhagavatam Mahapurana) में रसों के समूह रास का जिक्र है. अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव की चर्चा है. जिसमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमार संभवं व मालविकाग्निमित्रं शामिल हैं. कालिदास रचित ऋतु संहार में पूरा एक सर्ग ही बसंतोत्सव को समर्पित है. चन्दवरदाई रचित हिन्दी के पहले महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी इसका वर्णन है. भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फागुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है. आदिकवि विद्यापति (Adikavi Vidyapati) से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि का यह प्रिय विषय रहा है. कवियों ने जहां एक ओर नितांत लौकिक नायक-नायिका के बीच खेली गयी अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा-कृष्ण (Radha-Krishna) के बीच खेली गयी प्रेम और चुहल से भरी होली (Holi) के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निगुर्ण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है. सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, नजीर अकबराबादी जैसे मुस्लिम कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएं लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं. नजीर अकबरावादी की ग्रंथावली में होली का वर्णन इस रूप में भी है :
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की.
और ढप के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की…

लोकगीत में होली
नये दौर के शायरों की शायरी में भी होली के रंग घुले होते हैं. पंजाबी के प्रसिद्ध सूफी कवि बाबा बुल्लेशाह ने भी अपनी रचना में होली को अहम स्थान दिया है. आधुनिक हिन्दी कहानियों में प्रेमचंद (Premchand) की ‘राजा हरदोल’, प्रभु जोशी की ‘अलग-अलग तिलियां’, तेजेन्द्र शर्मा की ‘एक बार फिर होली’, ओमप्रकाश अवस्थी की ‘होली मंगलमय हो’ तथा स्वदेश राणा की ‘हो ली’ में होली के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं. होली का एक और साहित्य है- हास्य-व्यंग्य का. समाज की विसंगतियों और राजनीति में अंतरविरोध पर चोट करती होली की कविताएं भाषा की मर्यादा तो तोड़ती हैं, पर उसमें कलुष नहीं होता.

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय एवं लोकगीत की परंपराओं में भी होली का कुछ खास महत्व है. सात रंगों के अलावा, सात सुरों की झंकार इसके हुलास को बढ़ाती है. शास्त्रीय संगीत (classical music) में धमार का होली से गहरा संबंध है. वैसे, ध्रुपद, छोटे व बड़े ख्याल वाली ठुमरी आदि में होली के गीतों का सौन्दर्य बोध होता है. गीत, फाग, होरी, रसिया, जोगिरा आदि भी इसे रसमय बनाते हैं. कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे ‘चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर.’ आज भी काफी लोकप्रिय हैं. ध्रुपद में एक लोकप्रिय बंदिश है. ‘खेलत हरि संग सकल, रंग भरी होरी सखी.’ भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं. बसंत बहार, हिण्डोल आदि. उपशास्त्रीय संगीत (semi-classical music) में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होली गीत हैं. इसकी लोकप्रियता का अंदाज इससे भी लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है जिसमें अलग-अलग प्रांतों में होली के विभिन्न रंग व रूप देखने-सुनने को मिलते हैं. उनमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व का भी उल्लेख होता है. ब्रजधाम (Brajdham) में राधा और कृष्ण के होली खेलने का बखान होता है तो अवध (Awadh) में राम और सीता (Ram and Sita) का. राजस्थान (Rajasthan) के अजमेर में ख्वाजा मोईनउद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गायी जाने वाली होली का अपना कुछ अलग रंग है. वहां की एक प्रसिद्ध होली है ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री.’


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ईद-ए-गुलाबी
इसी तरह भगवान शंकर से संबंधित एक होली में श्मशान (crematorium) में होली खेलने का वर्णन है. कृष्ण की रासलीलाएं होलीकोत्सव की आदि अभिव्यंजनाएं हैं. तब होली पारंपरिक संस्कार की तरह भारतीय जनमानस पर छायी रहती थी. इसकी पुष्टि मुगलकाल के प्रामाणिक इतिहास से भी होती है. मुगलकालीन इतिहास में अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर (Jahangir) का नूरजहां (noorjahan) के साथ होली का आनंद उठाने के कई किस्से हैं. शाहजहां के शासनकाल में होली खेलने का मुगलिया अंदाज काफी कुछ बदल गया. उस कालखंड में होली को ईद -ए- गुलाबी या आब -ए- पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बार में जिक्र है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाया करते थे. यह सिलसिला अवध के नवाबों तक चला. वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे.

होली-उत्सव में आयी विकृति पर वरिष्ठ लेखक-पत्रकार हेमंत शर्मा (Hemant Sharma) की चिंता जायज है: परंपरागत होली टेसू के उबले पानी से होती थी. सुगंध से भरे लाल और पीले रंग बनते थे. अब इसकी जगह गोबर और कीचड़ ने ले ली है. हम कहां से चले थे, कहां पहुंच गये! सिर चकराने वाले केमिकल से बने गुलाल, चमड़ी जलाने वाले रंग, आंख फोड़ने वाले पेंट, इनसे बनी है आज की होली. कहां गया वह हुलास, वह आनंद और वह जोगिरा सा रा रा रा! कहां बिला गयी है फागुन की मस्ती! फागुन में बूढ़े बाबा भी देवर लगते थे. वक्त बदला है, आज देवर भी बिना उम्र के बूढ़ा हो शराफत का उपदेश देता है. अब न भितर रंग है और न बाहर. होली बालकों का कौतुक है या मयखाने का खुमार!

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