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खेले मसाने में होरी दिगम्बर…

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एस के राय
22 मार्च 2024

होली राग-रंग, आनंद-उमंग और तरंग-हुड़दंग भरा सामूहिक उल्लास का प्रकृति प्रदत्त मंगल सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव है. जड़ता और स्थिरता को तोड़ समाज को गतिमान करने का अनुपम-अद्वितीय त्योहार है. होली (Holi) के मादक-मोहक रंग रसहीन मनुष्य को भी सरस बनाते हैं, गीतों के राग अथाह उत्साह भरते हैं. यह प्यार, सद्भाव व सहकार की ऐसी रसधारा है जिसमें तमाम दुखों, उलझनों एवं संतापों को भूल समस्त समाज भिंगता है. लोगों के अंदर का कलुष-कटुता धुलता है. प्रेम अंकुरित होता है. सामाजिक व्यवस्था में विभाजन पैदा करने वाली विषमताएं टूटती हैं. बंधनों-वर्जनाओं से मुक्ति से सामाजिकता का सुखद अहसास ताजा होता है. व्यक्ति और समाज ईर्ष्या, द्वेष, नफरत , वैमनस्यता को दरकिनार कर एकाकार हो जाते हैं. न किसी को कोई रियायत न अशालीन व असभ्य हरकतों की कोई शिकवा-शिकायत और न सजा. सब बराबर.हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में-
भाव, विचार, तरंग अलग है,
ढाल अलग है, ढंग अलग
आजादी है, जिसको चाहो
आज उसे वर लो
होली है तो आज
अपरिचित से परिचय कर लो

यही सामाजिक समरसता होली का जन हितकारी संदेश है. पर, महत्वपूर्ण बात यह भी कि इस लोकोत्सव का संपूर्ण आनंद सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न-समृद्ध वर्ग ही उठा रहा है. कुलीनता एवं बौद्धिकता का आवरण ओढ़ रखे रसमुक्त रुखे- कुढ़े लोगों को इसकी अनुभूति नहीं होती है. ऐसी अनुभूति पाने के लिए उनका कोई प्रयास भी नहीं होता है. परिणाम स्वरूप उदासीनता उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाती है.

बसंत सबके लिए
यह स्थापित तथ्य है कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में पर्व-त्योहारों का महत्व सीधे तौर पर ऋतु परिवर्तन से जुड़ा है. छह ऋतुओं – ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर एवं बसंत में शरद और बसंत दो उत्सवप्रिय ऋतु माने जाते हैं. शरद में गंभीरता है, परिपक्वता है. बसंत में खुलापन है. उसकी अल्हड़ता में सरसता है, मादकता है, मधुरता है. बसंत में काम की पूजा होती है, शरद में राम की. बसंत (Basant) ऋतु में प्रकृति यौवन की चरम अवस्था में होती है. चारो तरफ उन्मादी माधुर्य छाया रहता है. स्वभाव और प्रकृति के हिसाब से इस ऋतु का मुख्य त्योहार होली ही है. उसका राग और रंग पलावित स्वागत दुनिया में शायद ही कहीं होता होगा. बसंत सबके लिए खुला है. कवि पद्माकर के शब्दों में:
कूलन में, केलिन में, कछारन में,
कुंजन में, क्यारिन में, कलिन में,
कलिन किलकंत है.
बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में,
बेलिन में, बनन में,
बागन में, बगस्यो बसंत है.

बसंत में उष्मा है, तरंग है…
वरिष्ठ लेखक-पत्रकार हेमंत शर्मा (Hemant Sharma) ने बसंत की बहुत ही सुंदर और सारगर्भित व्याख्या की है. उनके शब्दों में – बसंत में उष्मा है, तरंग है, उद्दीपन है, संकोच नहीं है. तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं. बसंत काम का पुत्र है, सखा भी. इसे ऋतुओं का राजा मानते हैं. इसलिए गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘ऋतूनां कुसुमाकर’ अर्थात ऋतुओं में मैं बसंत हूं. बसंत की ऋतु संधि मन की सभी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर रहती है. इस शुष्क मौसम में काम का ज्वर बढ़ता है. विरह की वेदना बलवती होती है. तरुणाई का उन्माद प्रखर होता है. वयः संधि का दर्द कवियों में इसी मौसम में फूटता है. नक्षत्र विज्ञान के मुताबिक भी ‘उत्तरायण’ में चन्द्रमा बलवान होता है. यौवन हमारे जीवन का बसंत है और बसंत सृष्टि का यौवन. तेजी से आधुनिक होता हमारा समाज बसंत से अपने गर्भनाल रिश्ते को भूल इसके ‘वेलेंटाइनीकरण’ पर लगा है. अब बसंत उसके लिए फिल्मी गीतों ‘रितु बसंत अपनों कंत गोरी गरवा लगायें’ के जरिये ही आता है. मौसम के अलावा जीवन में बसंत का कोई अहसास अब बचा नहीं है. बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की. यह समाज की उदासी दूर करती है. होली पुराने साल की विदाई और नये साल के आने का भी उत्सव है. यह मलिनताओं के दहन का दिन है. झूठी शान, अहंकार और श्रेष्ठता बोध को समाज के सामने प्रवाहित करने का मौका है. तमस को जलाने का अनुष्ठान है, वैमनस्य को खाक करने का अवसर है.

काशी का है अपना कुछ अलग अंदाज
होली दुनिया भर में मनायी जाती है. भारत (India) के अलग-अलग हिस्सों में इसके अलग-अलग रंग व रूप होते हैं, दिखते भी हैं. पर, मोक्ष की नगरी काशी (Kashi) की होली का अपना कुछ अलग ही अंदाज है, महत्व है. अद्भुत, अकल्पनीय, अलौकिक अंदाज. इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि काशी के उत्सवप्रिय लोग होली को पहनते हैं, ओढ़ते हैं, बिछाते हैं और पूरे आनंद में उसे जीते हैं. उसकी उत्सवप्रियता को इस रूप में सहज समझा जा सकता है कि वहां मृत्यु भी उत्सव है. श्मशान में होली खेली जाती है. मुक्तिदायक मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच मनुष्य की चिता-भस्म की अनूठी होली! जीवन की नश्वरता का अहसास दोहराने-तिहराने वाली होली! मणिकर्णिका घाट पर चिताएं कभी नहीं बूझतीं. सनातन धर्म में ऐसी मान्यता है कि जिस किसी की इस महाश्मशान में अंत्येष्टि होती है, बाबा विश्वनाथ (Baba Vishwanath) उसे मुक्ति देेते हैं. काशी की ‘मसाने होली’ की परंपरा बाबा विश्वनाथ के वैवाहिक कार्यक्रम से जुड़ी है. शुरुआत बसंत पंचमी से होती है और समापन बुढ़वा मंगल के दिन. बसंत पंचमी पर होलिका गाड़े जाने के दिन बाबा विश्वनाथ का तिलकोत्सव मनाया जाता है.


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चिता-भस्म की होली
महाशिवरात्रि पर विवाह (Marriage) और रंगभरी एकादशी के दिन गौरा का गौना करा वह काशी लौटते हैं. रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन मणिकर्णिका महाश्मशान में अमरत्व के उद्घोष के बीच भूत-पिशाच, दृश्य-अदृश्य लोग भगवान शिव के स्वरूप बाबा मसाननाथ (Masannath) की पूजा कर चिता-भस्म की होली खेलते हैं. पौराणिक काल में ‘मसाने की होली’ संन्यासी और गृहस्थ मिलकर खेलते थे. किसी कारणवश बाद के दिनों में यह परंपरा टूट गयी. तकरीबन तीन दशक पूर्व मणिकर्णिका के लोगों और श्मशानेश्वर महादेव मंदिर प्रबंधन समिति के सदस्यों ने इस परंपरा को पुनर्जीवित किया. ‘होली खेलत नंदलाल बिरज में’ हरि अवतार श्रीकृष्ण (Srikrishna) ब्रजधाम में गोप बालाओं के साथ रास रचाते हुए होली का रंग जमाते हैं. रघुवीरा अवध में साथियों के बीच होली के उमंग में हैं ‘होली खेले रघुवीरा अवध में’. शिव मसाने (श्मशान) में होली खेलते हैं. भूत-पिशाच के साथ चिता-भस्म वाली होली. तभी तो वहां लोग गाते हैंः
खेले मसाने में होरी दिगम्बर,
खेले मसाने में होरी
भूत-पिशाच बटोरी
दिगम्बर खेले मसाने में होरी.
लखि सुंदर फागुनी छटा के
मन से रंग-गुलाल हटा के
चिता-भस्म भर जोरी
दिगंबर खेले मसाने में होरी…

जीवन-दर्शन का साक्षात्कार
काशी राग की भी नगरी है और विराग की भी. वहां लोग शरीर त्यागकर मोक्ष पाने आते हैं, मरने नहीं. इसलिए काशी से मृत्यु का संबंध आने-जाने का है. आरोह और अवरोह का है. विराम और विलाप का नहीं. जो दिगम्बर है वह मसाने में ही होली खेलता है. भारतीय संस्कृति के तीन स्थापित महानायक हैं- राम, कृष्ण और शिव. तीनों की होली से उनके जीवन-दर्शन का साक्षात्कार होता है. ऐसी मान्यता है कि देवभूमि काशी ब्रह्मा की सृष्टि से अलग बसा है. सांस्कारिक मानव कल्याण के लिए बाबा विश्वनाथ ने स्वयं इसे बसाया था. सृष्टि के तीनों गुण- सत्व, राजस और तमस इस नगरी में समाहित हैं. वहां यमराज का दंडविधान नहीं, बाबा विश्वनाथ के ही अंश बाबा कालभैरव का दंड विधान चलता है. काशी में धार्मिक संस्कारों का पालन करने वाला हर प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को प्राप्त करता है. पौराणिक मान्यता यह भी है कि इसी महाश्मशान पर वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार के संचालन का वरदान दिया था. मणिकर्णिका घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी. पूरी दुनिया में काशी ही एक ऐसी जगह है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है और लोग उसे उत्सव की तरह मनाते हैं.

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