बंगाल ने कर लिया मिथिला का सांस्कृतिक अपहरण
राघव झा
28 नवम्बर, 2021
DARBHANGA : महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन (Kalyani Foundation) के तत्वावधान में दरभंगा के कल्याणी निवास में रविवार को महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह (Maharaja Kameshwar Singh) की 114 वीं जयंती मनायी गयी. समारोह की अध्यक्षता टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल सांइसेज, पटना के प्रोफेसर डा. पुष्पेन्द्र कुमार सिंह (Dr. Pushpendra Singh) ने की.
इस वर्ष कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सिरीज के तहत 1810 में अंग्रेज प्रशासक एवं भाषा विज्ञानी फ्रांसिस बुकानन द्वारा तैयार की गयी तुलनात्मक शब्द कोश, जो पिछले दो सौ वर्षों से पांडुलिपि के रूप में ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में उपेक्षित पड़ा था, को प्रकाशित किया गया. पुस्तक का संपादन काठमांडू (Kathmandu) के प्रख्यात भाषा विज्ञानी प्रो. रामावतार यादव (Prof Ramavatar Yadav) ने किया है. यह पुस्तक मैथिली कोश विज्ञान एवं भाषा विज्ञान के लिए मील का पत्थर साबित होगी.
मिथिला चित्रकला ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जिस पर ‘बंगाल का होने’ का ठप्पा नहीं लगा है. खासियत है कि जब हम बंगाली संस्कृति के तह तक उद्भेदन करते हैं तो वो हर सांस्कृतिक वस्तु क्षेत्र जो आज बंगाली माना जाता है, का उद्गम स्थल मिथिला ही पाते हैं.
मिथिला और बंगाल का संबंध
इस अवसर पर देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक चिंतक संकर्षण ठाकुर (Sankarshan Thakur) ने महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान ‘मिथिलाज इनएलीयेनबल बट कॅमप्लेक्स रिलेशनशिप विथ बेंगाल’ (बंगाल के साथ मिथिला के अटूट लेकिन जटिल सम्बन्ध) विषय पर दिया. संकर्षण ठाकुर ने कहा कि मिथिला और बंगाल का संबंध ‘वस्तु और दर्पण’ की तरह है. ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे में अपने आपको देख सकती हैं.
भोजन में माछ-भात, तिलकोर, या चर्चरी हो या दुर्गा पूजा जैसा वार्षिक उत्सव हो, दोनों ही काली के पूजक हैं. सुजनी को सुजनी और फूफी को पीसी दोनों कहते हैं और तो और दोनों मसनद पर सोना पसंद करते हैं. ये एकरुपताएं इतनी अधिक हैं कि आप इन्हें नकार नहीं सकते हैं.
मैथिलों को है भ्रम
मैथिलों को भ्रम होता है कि उन्हें उनके अपने इतिहास ने ही धोखा दिया है. परम्परा, धर्म, दर्शन, साहित्य, खान-पान, पारिवारिक संबंध हर विरासत जो संस्कृति का निर्माण करते हैं, का बंगाल (Bengal) से इतना गहरा लगाव और निकटता है कि इन्हें बरबस बंगाल की देन या प्रभाव मान लिया जाता है. यहां तक कि दुर्गा पूजा (Durga Puja) और काली पूजा, (Kali Puja) खान-पान, वेश-भूषा को बंगाली संस्कृति का विस्तार मान लिया जाता है.
इस भ्रम का मूल कारण काफी हदतक मैथिलों की हीनभावना है. यह जटिलता काफी हद तक मिथिला (Mithila) और बंगाल के इतिहास की देन है, जिसे वर्तमान ने पुख्ता कर दिया है. यह तय है कि मिथिला मिथिला है न कि दर्पण में दिखने वाला बंगाल है. किन्तु सांस्कृतिक साम्यता के चलते विश्व इसे भ्रमवश बंगाली संस्कृति की विरासत मान लेता है.
यह भी पढ़ें : ‘पीपुल’ से ‘पीपुल्स पद्म’ : संघर्षों से भरी दुलारी देवी की संकल्प सिद्धि
चित्रकला पर नहीं है ठप्पा
प्रायः मिथिला चित्रकला ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जिस पर ‘बंगाल का होने’ का ठप्पा नहीं लगा है. खासियत है कि जब हम बंगाली संस्कृति के तह तक उद्भेदन करते हैं तो वो हर सांस्कृतिक वस्तु क्षेत्र जो आज बंगाली माना जाता है, का उद्गम स्थल मिथिला ही पाते हैं.
किन्तु राजनीतिक प्रभुता ने बंगाल को अवसर दिया कि वह मिथिला का सांस्कृतिक अपहरण कर ले. विद्यापति हों या नव-न्याय बंगाल ने इन्हें हस्तगत कर ही लिया था. आज निश्चित रूप से इतिहास ने सांस्कृतिक रूप से बंगाल को मिथिला का बड़ा भाई बना दिया है.
अधिक शोध की जरूरत
सभा की अध्यक्षता करते हुए डा. पुष्पेन्द्र कुमार सिंह ने कहा कि मिथिला और बंगाल में इतनी सांस्कृतिक साम्यता है कि दोनों में विभेद करना कठिन है. बंगाल की श्रेष्ठता का मुख्य कारण बंगालियों का प्रगतिशील होना है. बंगाल निश्चित रूप से भारत के किसी भी क्षेत्र से अधिक प्रगतिशील है और यही प्रगतिशीलता उसे मिथिला पर श्रेष्ठता प्रदान करती है.
अभी भी मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास पर शोध करने की आवश्यकता है ताकि मिथिला की सांस्कृतिक विरासत और श्रेष्ठता स्थापित हो सके. धन्यवाद ज्ञापन पंडित रामचन्द्र झा ने किया. मंच संचालन डा. मंजर सुलेमान ने किया. स्वागत भाषण महाराजाधिराज कल्याणी फाउंडेशन के कार्यकारी अधिकारी श्रुतिकर झा ने किया.