जाति आधारित गणना : मंडल की राजनीति में कमंडल की माया!
विशेष प्रतिनिधि
13 अप्रैल, 2023
PATNA : जाति आधारित गणना को लेकर समाज के बड़े हिस्से के मन में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर इस समय इसकी जरूरत क्यों पड़ी. क्योंकि राज्य (State) और केंद्र सरकार (Central Government) की अधिसंख्य योजनाएं बिना किसी जाति, वर्ग और धार्मिक भेदभाव के सबके लिए बन रही हैं. चल रही हैं. कम या अधिक सबको इनका लाभ मिल रहा है. सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के एडमिशन में आरक्षण (Reservation) की उच्चतम सीमा का पालन किया जा रहा है. लड़ाई का यह विषय अधिक सामयिक हो सकता है कि लगातार निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियों की संख्या कम हो रही है. अगर इसे रोका नहीं गया तो आरक्षण के आधार पर नौकरी देने वाले विभाग (Department) एक-एक कर निजी हाथों में चले जायेंगे. लेकिन, यह विषय मंडलवादियों के एजेंडा में नहीं है. रोजगार (Employment) का मामला राजनीतिक दलों की कार्य योजना में नहीं है. यह चुनाव (Election) के समय ही उपयोग में आता है. बिहार विधानसभा के चुनाव में आया था. राजद (RJD) ने कहा कि हम सत्ता में आये तो दस लाख लोगों को नौकरी देंगे. राजग ने कहा कि हम बीस लाख लोगों को रोजगार देंगे. चुनाव के साथ यह विषय भी समाप्त हो गया.
मंडल का नया संस्करण है यह
फिर भी यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि जाति आधारित गणना राजनीतिक दलों के लिए टाइम पास भर है. असल में यह मंडल (Mandal) का नया संस्करण है और इसका घोषित राजनीतिक लक्ष्य कमंडल की राजनीति (Politics) को परास्त करना है. जबकि जाति आधारित गणना की अवधारणा की उत्पत्ति का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो इसमें भी कमंडल (Kamandal) की पैठ नजर आयेगी. यह मानने में किसी को परहेज नहीं है कि मंडल की काट के लिए ही आज से करीब बत्तीस साल पहले कमंडल की राजनीति शुरू हुई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह (V. P. Singh) ने मंडल आयोग की सिफारिश लागू की. उसी समय राम मंदिर (Ram Mandir) के निर्माण के लिए रथयात्रा शुरू हुई थी. इन दोनों ने तत्कालीन राजनीति को प्रभावित किया. कभी मंडल आगे तो कभी कमंडल पीछे. मगर, कालांतर में मंडल बहुत पीछे रह गया. कमंडल बहुत आगे निकल गया.
क्या काठ की हांडी बार-बार चढ़ेगी?
गूढ़ या मूल बात यही है कि कमंडल को परास्त करने के लिए मंडल के नये संस्करण जाति आधारित गणना (Jaati Aadhaarit Ganana) को लाया जा रहा है. यह सवाल कमंडलवादी पूछ रहे हैं कि क्या काठ की हांड़ी बार-बार चढ़ेगी? उचित ही है. कमंडलवादियों ने अपनी हांड़ी में बड़ा बदलाव किया है. काठ की बनी उसकी हांड़ी कई-कई धातुओं सेे बनती रही है. राम मंदिर (Ram Mandir) के बाद वे ज्ञानवापी (Gyan Vapi) पर प्रयोग कर रहे हैं. कश्मीर में धारा 370 को समाप्त कर दिया गया है. अब कॉमन सिविल कोड (Common Civil Code) के नाम से नयी हांड़ी तैयार की जा रही है. कुछ लोग चाहें तो जाति आधारित गणना में भी कमंडल की हाड़ी का दर्शन कर सकते हैं.
यादवों का वर्चस्व बढ़ा
मंडलवादियों की असली चिंता यही है कि कमंडलवादियों ने अपनी हांड़ी में कई तरह का परिवर्तन कर लिया. इधर मंडल वाले सरकारी सेवाओं में आरक्षण वाली काठ की हांड़ी साबित हो चुके एजेंडा को लेकर राजनीति (Politics) करते रहे हैं. सो वह अपना नया एजेंडा तैयार कर रहे हैं. उन्हें रोका नहीं सकता है. क्योंकि राजनीति की सभी धाराओं को अपने लाभ के लिए रणनीति (Strategy) बनाने का हक है. अगर कोई मुद्दा भोथरा हो रहा है तो उस पर नये सिरे से शान चढ़ाने का हक है. पार्टियों के रणनीतिकार इसी काम के लिए तो होते हैं. सचमुच जाति आधारित गणना के बाद राजनीतिक दलों की और अंततः उससे निर्मित सरकार (Government) की संरचना क्या होगी, इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन, कुछ बातें साफ हो रही हैं. सबसे बड़ी बात यह कि मंडल के प्रादुर्भाव के बाद पिछड़ी जातियों में यादवों का राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक वर्चस्व तेजी से बढ़ा. तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह आज तक कम नहीं हुआ.
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गोलबंदी गैर यादवों की हो जायेगी
यादवों के वर्चस्व को कम करने के लिए कमंडलवादियों ने बिहार-यूपी जैसे हिन्दी पट्टी के बड़े राज्यों में अतिपिछड़ी जाति (Cast) की अवधारणा को उभारा. दोनों राज्यों में यह समूह चुनाव (Election) में निर्णायक भूमिका अदा करने लगा. बिहार (Bihar) में तो पिछले सत्रह सालों से यही राजनीति हो रही है. सवर्ण और गैर यादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी से ही सत्ता नियंत्रित हो रही है. जाति आधारित गणना सत्ता के इसी गठजोड़ को और मजबूत करने का उपक्रम है. आवरण में भले ही यह उपक्रम भाजपा के विरोध में लगे, लेकिन इसके लक्ष्य पर ध्यान देंगे तो इसमें भी कमंडल की माया नजर आयेगी. इससे गैर यादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी और मजबूत होगी. जाहिर है, इनका यादवों के बर्चस्व वाले राजनीतिक दल से संश्रय नहीं होगा, ये कमंडल से ही राजनीतिक गठजोड़ बनायेंगे.
कुर्मी को मिल सकता है नया उभार
बिहार की राजनीति में 1931 की जनगणना (Census) के आधार पर यह धारणा है कि अकेले संख्या बल में यादव सबसे अधिक हैं. यह धारणा दूसरी जातियों को मानसिक रूप से कमजोर करती है. जाति आधारित गणना के बाद संभव है कि कुर्मी सबसे अधिक संख्या वाला सामाजिक समूह बनकर उभरे. योजना यह है कि निवास, व्यवसाय और रहन-सहन में एकरूपता वाली जातियां खुद को उसी वर्ग की मुख्य जाति के रूप में खुद को दर्ज करायें. संख्या के हिसाब से सत्ता में हिस्सेदारी का नारा भी समाजवादियों का ही है. देखना होगा कि जाति आधारित गणना के बाद उनके रूख में क्या बदलाव आता है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने इस गणना के लिए जो समय सीमा तय की है, जिस गति से इस पर काम होने लगा है, उस हिसाब से काम हो तो 2024 के लोकसभा चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है.
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