आनंद मोहन प्रकरण : इन सवालों का जवाब नहीं!
राजकिशोर सिंह
06 मई, 2023
PATNA : थेथरई बहुत प्रचलित शब्द है. शायद अश्लील नहीं है, सदन से बाहर असंसदीय भी नहीं. तभी तो गांव व शहर, सब जगह आम और विशिष्ट दोनों जुबानों से यह बड़ी सहजता व सरलता से फूटता, निकलता रहता है. अन्य क्षेत्रों में जो हो, राजनीति (Politics) के संस्कार में यह शब्द रच-बस-सा गया है. यानी घुल-मिल गया है. यही वजह है कि इसे सत्ता की राजनीति में सफलता का मूल तत्व माना जाने लगा है. प्रमाण तलाशने की जरूरत नहीं, ये तो यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. वर्तमान की बात करें, तो उम्रकैद की सजा पाये पूर्व सांसद आनंद मोहन (Anand Mohan) की समय पूर्व रिहाई की वैधानिकता पर जो तर्क परोसे जा रहे हैं वे क्या हैं? मामला अदालत (Court) में है. निर्णय उसी का शिरोधार्य होगा. पर, विश्लेषकों की समझ में इसको लेकर राजनीति में जो कुछ हो रहा है, वह थेथरई के अलावा कुछ नहीं है. इस पेंचीदे प्रकरण में सत्ता पक्ष का जवाब आया कि कानून बनाने, संशोधित करने या फिर उसे खत्म कर देने का संवैधानिक अधिकार राज्य सरकार (State Government) को प्राप्त है. उसी अधिकार के तहत उसने संबंधित कानून को खत्म कर आनंद मोहन को जेल (Jail) से आजाद कर दिया. कानून (Law) बदलने का निर्णय चुनौती से परे है, पर ऐसे निर्णय का उद्देश्य भी महत्व रखता है.
समानता का अधिकार
संविधान की मूल आत्मा समानता के अधिकार पर आधारित है. यह आम और खास में कोई अंतर नहीं करती है. हर जान को समान महत्व देती है. न्याय एवं कानून में एकरूपता की बात करती है. आनंद मोहन और उनके परिजन तो ऐसे तर्क रख ही रहे हैं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और मुख्य सचिव आमिर सुबहानी (Amir Subhani) ने भी इसे दोहराया है. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (Rajiv Ranjan Singh urf Lalan Singh) ने भी. इन सबका कहना रहा कि लोक सेवक और आम आदमी की हत्या के मामले में अंतर रखना न्यायोचित नहीं है. केन्द्र के साथ-साथ दूसरे राज्यों में इस तरह का कानून नहीं है. इसलिए इसे यहां भी खत्म कर दिया गया. पर, इस सवाल का उनके पास शायद कोई जवाब नहीं है कि जब ऐसा था तब ग्यारह साल पहले इसे लागू ही क्यों किया गया? उस समय नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री थे. आमिर सुबहानी गृह विभाग (Home Department) के सचिव का दायित्व संभाल रहे थे. उस समय ज्ञान क्यों नहीं खुला? गौर कीजिये, 2012 में नया कानून बना, 2016 में उसे संशोधित किया गया. समानता के संवैधानिक प्रावधान के उल्लंघन का अहसास ग्यारह साल बाद 2023 में हुआ. इसे बिहार (Bihar) का दुर्भाग्य नहीं, तो और क्या कहेंगे कि लंबे समय से ऐसे ही लोग सत्ता पर काबिज हैं?
कोई औचित्य नहीं
भविष्य में जो हो, कानून के संबंधित वाक्यांश को विलोपित करने का लाभ अभी सिर्फ एक व्यक्ति आनंद मोहन (Anand Mohan) को मिला है. 14 वर्ष और उससे अधिक की सजा काट चुके जिन अन्य 26 उम्रकैदियों की समय पूर्व रिहाई हुई है उनमें किसी का भी इस ‘वाक्यांश’ से संबंध नहीं है. विश्लेषकों की मानें तो ‘केवल आनंद मोहन के लिए कानून खत्म नहीं किया गया है’ का तर्क रख अदालत (Court) की आंख में धूल झोंकने और सामान्य जन को भरमाने के ख्याल से ऐसा किया गया है. हकीकत यह है कि 14 साल से अधिक समय जेल में बीता चुके इन उम्रकैदियों की समय पूर्व रिहाई और सरकार (Government) की मर्जी के बीच कोई वैधानिक अवरोध नहीं था. चूंकि सरकार की ‘कृपा’ अटकी हुई थी इसलिए वे सब 14 साल से अधिक समय तक जेल में रहने को मजबूर हुए. केवल आनंद मोहन के मामले में कानून के उक्त ‘वाक्यांश’ ने सरकार के हाथ बांध रखे थे. ऐसे में उन सबके मामलेे को आनंद मोहन की समय पूर्व रिहाई से जोड़ने का कोई आधार व औचित्य नहीं बनता है.
तब जोखिम नहीं उठाते
आनंद मोहन और उनके परिजनों का तर्क था कि जिस कानून कोे समय पूर्व रिहाई में बाधक बताया जा रहा था वह 2012 में लागू हुआ था. आनंद मोहन को उम्रकैद की सजा 2007 में हुई. इस आधार पर यह उनके मामले में प्रभावी नहीं है. किसी और ने नहीं, नीतीश कुमार की सरकार ने ही संबंधित कानून के ‘बाधक वाक्यांश’ को विलोपित कर उनके इस तर्क को आधारहीन साबित कर दिया. यह सामान्य समझ है कि 2012 का संबंधित कानून आनंद मोहन के लिए बाध्यकारी नहीं होता तो नीतीश कुमार सरीखे शातिर सियासतदां ‘दलित विक्षोभ’ का इतना बड़ा जोखिम नहीं उठाते. दूसरी बात यह कि पूर्व की जानकारी नहीं, यह कानून 2002 से लागू है. बिहार जेल मैनुअल (Bihar Jail Manual) में समय-समय पर संशोधन होते रहता है. 10 दिसम्बर 2002 को संशोधन हुआ था तब राज्य में राबड़ी देवी (Rabri Devi) के नेतृत्व में राजद-कांग्रेस (RJD-Congress) की मिलीजुली सरकार थी. बिहार कारा हस्तक में संबंधित प्रावधान इस रूप में वर्णित है – वैसे सिद्धदोष बंदी, जो तस्करी कार्य में अंतर्लिप्त रहते हुए हत्या करता हो अथवा कर्त्तव्य पर रहने वाले लोक सेवकों की हत्या का दोषी हो- समय पूर्व रिहाई के अयोग्य होंगे. 2012 के नये जेल मैनुअल एवं 2016 के संशोधन में इस प्रावधान को शब्दों में कुछ हेर-फेर के साथ बनाये रखा गया. वैसे, यह बात फैलायी गयी थी कि 2002 के इस कानून पर पटना उच्च न्यायालय (Patna High Court) ने प्रतिबंध लगा दिया था. वास्तव में ऐसा हुआ था, इसकी मुकम्मल जानकारी तापमान लाइव को नहीं है.
इन्हें भी पढ़ें :
जाति आधारित गणना : हार यह नीतीश कुमार की हठधर्मिता की है!
जाति आधारित गणना : कमजोर पड़ जायेगा तब…
बदल गया कानून आनंद मोहन के लिए!
आपत्तिजनक आचरण
अब ‘अच्छे आचरण’ की बात बिहार सरकार ने उम्रकैदियों की समय पूर्व रिहाई का जो मापदंड निर्धारित कर रखा है उसमें ‘अच्छे आचरण’ वाली कसौटी पर आनंद मोहन खरा उतरते हैं. मुख्य सचिव आमिर सुबहानी ने ऐसा कहा. सजा काटने के दौरान वह जिस-जिस जेल में रहे हैं वहां के अधीक्षकों ने बंदी के रूप में उनके आचरण को बेहद संतोषप्रद बताया है. ऐसा हो सकता है. पर, इन वर्षों में सहरसा (Saharsa) जेल और पेशी के दरम्यान जेल के बाहर उनके जो आपत्तिजनक आचरण हुए उन सब को राज्य सरकार ने छिपा दिया. एकाध मामले में तो प्राथमिकी दर्ज है. मामला अदालत में चल रहा है. ऐसे में ‘संतोषजनक आचरण’ पर सवाल उठना स्वाभाविक है.
विधानसभा में उठा था मामला
गौर करनेवाली बात यहां यह भी है कि 2021 के नवम्बर-दिसम्बर में यह मामला बिहार विधानसभा (Bihar Vidhan Sabha) में उठा था. आनंद मोहन के विधायक पुत्र चेतन आनंद (Chetan Anand) एवं अन्य कुछ विधायकों द्वारा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जरिये उठाये गये इस मुद्दे को तब के नेता, प्रतिपक्ष तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejaswi Prasad Yadav) का भी साथ मिला था. चेतन आनंद का कहना रहा कि सिर्फ आनंद मोहन ही नहीं, ऐसे काफी संख्या में कैदी हैं जो 14 साल से अधिक सजा काट लेने के बाद भी जेल में बंद हैं. ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब सदन में उस समय गृह विभाग के प्रश्नों के उत्तर के लिए अधिकृत ऊर्जा मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव (Bijendra Prasad Yadav) ने दिया था. बिहार जेल मैनुअल के विलोपित प्रावधान का ही जिक्र करते हुए स्पष्ट कहा था कि आनंद मोहन काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या से संबद्ध अपराध में सजायाफ्ता हैं इसलिए समय पूर्व रिहाई संभव नहीं है. फिर महज सवा साल में ही ऐसा क्या हो गया कि असंभव को संभव कर दिया गया?
#TapmanLive