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कन्हैया : पार लग जायेगी अब नैया…!’

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विष्णुकांत मिश्र
24 मई 2023

Patna: कन्हैया कुमार  (Kanhaiya Kumar) की याद है या भूल गये ! वही कन्हैया कुमार जिनके नरेन्द्र मोदी  (Narendra Modi) विरोधी ‘शिष्टताभेदी बातों व बयानों’ से भरे गुब्बारे खूब उड़ा करते थे. उड़ते गुब्बारों के साथ उनकी महत्वाकांक्षा भी उफान खाया करती थी. गुब्बारे अब भी उड़ते हैं और महत्वाकांक्षा भी करीब – करीब उसी रूप में उफना रही है‌, पर तेवर थोड़ा ढ़ीले पड़ गये से दिखते हैं. लहजा भी बदला – बदला -सा नजर आ रहा है. ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इसकी कहानी दिलचस्प है. उनकी महत्वाकांक्षाओं के गुब्बारे की हवा पहले उनकी मूल पार्टी भाकपा (CPI) और फिर परिवर्तित ठिकाना कांग्रेस (Congress) के घाघ नेताओं ने निकाल दी. ऐसा हर किसी ने देखा कि कन्हैया कुमार को कांग्रेस के बहुचर्चित ‘भारत जोड़ोे यात्रा’ कार्यक्रम में अप्रत्याशित महत्व मिला. कन्याकुमारी से श्रीनगर तक की संपूर्ण यात्रा में वह राहुल गांधी (Rahul Gandhi)के साथ रहे. कांग्रेस की बड़ी जीत वाले कर्नाटक के चुनाव में भी वह नेतृत्व की कसौटी पर खरा उतरे.

सम्मानजनक जगह नहीं
स्वाभाविक रूप से स्थापित हुआ कि ‘कांग्रेस सुप्रीमो’ राहुल गांधी के पसंदीदा युवा नेता वह भी हैं. राहुल गांधी को इनमें पंजाब के नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Siddhu), महाराष्ट्र के नानाजी पटोले (Nanaji Patole) और तेलंगाना के रेवंत रेड्डी (Revant Reddy)जैसी मुखरता और निडरता का अक्स दिखा. राहुल गांधी से इस अकल्पित नजदीकी के मद्देनजर सवाल उठना लाजमी है कि बिहार प्रदेश कांग्रेस या फिर राष्ट्रीय कांग्रेस में उन्हेंं कोई सम्मानजनक जगह क्यों नहीं दी गयी ? दो-ढाई साल से सिर्फ कवायद ही क्यों हो रही है? विश्लेषकों की समझ में इसकी बड़ी वजह उनकी अगंभीरता व अपरिपक्वता तो है ही, राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी वह मूल कांग्रेसियों के गले नहीं उतर पा रहे हैं. बस एक विशेषता है कि भाषण अच्छा देते हैं . मुद्दे उठाते हैं, उनपर तर्कसंगत बहस भी करते हैं. साथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) , आर एस एस (RSS) और भाजपा (BJP) के खिलाफ हर वक्त तेवर कड़ा किये रहते हैं. उनका यह राजनीतिक आचरण राहुल गांधी को खूब भाता है . इस वजह से शीर्ष नेतृत्व की उन पर नजर-ए-इनायत है.

गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार.

लोग पसंद नहीं करते
इन सब के बावजूद कई ऐसे कारक हैं जो कन्हैेया कुमार के कांग्रेस में ‘स्थापित’ होने में बाधक बने हुए हैं. मसलन उनका व्यक्तित्व जेएनयू (JNU) के छात्र नेता के तौर पर विवादित रहा है. ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे ने कथित‌ रूप से उनकी छवि ‘राष्ट्र विरोधी(Anti national)’ बना रखी है. यह उनकी अपनी राजनीति हो सकती है, पर भाषणों में राष्ट्र हित को नुकसान पहुंचाने वाली उग्रता से राहुल गांधी का मनोरंजन भले होता हो, सामान्यतया आम लोग इसे पसंद नहीं करते. इसे उनकी ‘अधीरता’ मानी जायेगी कि राजनीति की मुख्य धारा की थाह लिये बगैर छात्र नेता से सीधे संसदीय चुनाव में कूद गये. 2019 में बेगूसराय से भाकपा का ‘जबरिया उम्मीदवार’ बन भाजपा के ‘हिन्दूवादी नेता’ गिरिराज सिंह (Giriraj Singh) से टकरा गये. वैसे तो उनकी उम्मीदवारी का आधिकारिक निर्णय भाकपा का था, पर पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों की नजर में वह ‘जबरिया’ था. संभव है इस नजर में द्वेष रहा हो. चुनाव में देश-विदेश की नरेन्द्र विरोधी तमाम ताकतों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग-समर्थन के बावजूद वह मुंह की खा गये.

संभावना नहीं के बराबर
उस दौर के चर्चित युवा चेहरा जिग्नेश मेवाणी (Jignesh Mevani), शेहला रशीद (Shehla Rashid) , अभिनेत्री स्वरा भास्कर (Swara Bhaskar) के बेगूसराय में डेरा डाले रहने के बावजूद वह गिरिराज सिंह के मुकाबले आधा वोट भी नहीं जुटा पाये. जो वोट मिले उनमें आधा से अधिक भाकपाई जनाधार के थे. 2024 के संसदीय चुनाव में क्या होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता. संयोगवश कन्हैया कुमार को महगठबंधन (Mahagathbandhan) में कांग्रेस की उम्मीदवारी मिली , तो 2019 के वोट के आंकड़े तक भी पहुंच पायेंगे, इसमें संदेह है . वैसे , उम्मीदवारी मिलने की संभावना नहीं के बराबर है. इसलिए कि महागठबंधन कि‌ दूसरा घटक दल भकपा उनकी उम्मीदवारी शायद ही पचा पायेगी. विश्लेषकों की मानें‌, तो कन्हैया कुमार की भाकपा में स्वीकार्यता पर सवाल 2019 के चुनाव के दौरान ही उठ गया था. राजनीति की समझ वाला हर कोई जानता – समझता है कि कार्यकर्त्ता आधारित कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) की अपनी अलग सीमाबद्ध कार्यशैली है.‌


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भाकपा को रास नहीं आया
भाकपा के अंदर ऐसा माना गया कि कन्हैया कुमार ने सीमा लांघ अपने चुनाव अभियान को बुर्जुआ रंग दे दिया. वह पार्टी की विचारधारा को रास नहीं आया. सवाल किया गया तब बेगूसराय में हार के कुछ ही माह बाद कन्हैया कुमार ने अपनी राह अलग बना ली. भाकपा से निकलने के बाद राहुल गांधी ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया. वह कांग्रेसी हो गये. कर्नाटक चुनाव के सुकूनदायक (Comforting) परिणाम के बाद कन्हैया कुमार के लिए एक संभावना बनती दिख रही है. राज्यसभा (Rajya Sabha) की सदस्यता मिलने के रूप में. बहरहाल, राजनीति को हैरानी इस बात पर भी है कि कन्हैया कुमार बिहार के हैं. कांग्रेस नेतृत्व को उनकी ‘काबिलियत’ का लाभ बिहार में उठाना चाहिये. लेकिन, उन्हें बिहार से दूर-दूर ही रखा जा रहा है. लोग इस राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं. इस संदर्भ में इस बात की चर्चा खूब होती है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व (National Leadership)तो चाहता है, पर पार्टी में खुद का कद बौना न पड़ जाये, तमाम मतभेद भूल बिहार के प्रायः सभी वरिष्ठ नेता कन्हैया कुमार को महत्व दिये जाने के मामले पर एक पांव पर खड़े हो जाते हैं.

कहीं स्वीकार्यता नहीं
हालांकि, यह उनका भ्रम ही है. बिहार (Bihar) में नेता के तौर पर कन्हैया कुमार की कहीं कोई स्वीकार्यता नहीं है. स्वीकार्यता होती तो 2020 के बाद राज्य में हुए उपचुनावों (By-elections) में कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती. वैसे भी इस राज्य की राजनीति की धूरी जाति है. उसमें उनकी साम्यवादी (Communist) पृष्ठभूमि और कथित राष्ट्रविरोधी छवि कहां टिक पायेगी? चर्चा पहले भी हुई, अब फिर से होने लगी है कि कन्हैया कुमार को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेवारी दी जा सकती है. लेकिन, दिक्कत यह दरपेश है कि वहां के अधिसंख्य कांग्रेस नेताओं को भी वह महत्वपूर्ण ओहदेदार के तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं न. इसको देखते हुए उन्हें भारतीय युवक कांग्रेस के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी देने पर मंथन हो रहा है. फिलहाल 42 वर्षीय श्रीनिवास बीवी (Srinivas Bivi) इसके अध्यक्ष हैं. चार साल से पद पर जमे हुए हैं. कन्हैेया कुमार फिलहाल 36 वर्ष के हैं. उन्हें अवसर उपलब्ध करा युवक कांग्रेस के संगठन को धारदार‌ बनाने का निर्णय नेतृत्व कर सकता है.

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