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विराजते हैं जहां वनचारी के मस्तक पर शिव !

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अश्विनी कुमार आलोक
10 जून 2023

Kusheshwar Asthan : पौराणिक कथाओं (mythology) को आधार मानकर लोक कथाओं ने वनवासियों-वनचारियों को राक्षस कहा है. उनकी जीवनशैली और वनेतर समाज के साथ उनके व्यवहार को असभ्य और अस्वीकार्य माना गया है. लेकिन, इन वनचारियों की तप और साधना कथाएं सामाजिक और सभ्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक प्रबल कही जाती हैं. ऐसी अनेक कथाएं विश्रुत हैं जिनमें इन वनचारियों के द्वारा ईश्वर के सम्मान में अपने जीवन की भी आहुति दी गयी. ऐसी ही एक कथा के आलंब से मिथिलांचल (Mithilanchal) के एक भूखंड पर कुशेश्वर महादेव (Kusheshwar Mahadev) नाम से शिव (Shiv) की उपासना की जाती है. कोशी (Koshi)और त्रियुगा (Triyuga) नदी के संगम स्थल पर कुशेश्वर पूजित हैं. सैंकड़ों वर्षों से अनेक कथाएं प्रचलित हैं. इसके स्थान को कामनापूर्ति और साधनास्थल मानते हुए लोकश्रुतियां यह बताती हैं कि कुशेश्वर को लेकर हर युग की अपनी कथा है.

देवी आद्या की अराधना
एक कथा के अनुसार, कुशेश्वर नाम से जिस शिवलिंग की पूजा होती है , वह एक वनचारी के मस्तक पर विराजित है. सतयुग में कुश (Kush) नाम के किसी राजा ने शिवभक्ति से परम शक्तिशाली होने का वरदान प्राप्त कर लिया था. उसने अपनी कुलदेवी हिरण्यदा के आशीर्वाद से देवराज इंद्र (Devraj Indra) को भी पराजित कर दिया था. उसने यह भी संकल्प लिया था कि ब्राह्मणों और तपस्वियों को क्षति नहीं पहुंचायेगा . इस प्रकार वह निर्भीकतापूर्वक धरती पर विचरण करता था. परंतु, देवताओं को उसके जीवित होने से अनेक प्रकार की आशंकाएं परेशान करती थीं. वे उसकी मृत्यु के उपाय जानने के लिए ब्रह्मा के निकट गये. राजा बलि के आराध्य त्रिविक्रम का सहयोग लिया गया. त्रिविक्रम (Trivikram) और कुश का युद्ध लंबे समय तक चला, लेकिन कुश का वध न हो सका. तब स्वयं ब्रह्मा ने अन्य देवताओं के साथ देवी आद्या की आराधना की.

कुशेश्वर स्थान में नौका विहार !

त्रिविक्रम-कुश युद्ध
उसी दौरान आकाशवाणी हुई कि कुश को जमीन में धंसाकर तत्क्षण उसके मस्तक पर शिवलिंग स्थापित कर दिया जाये, तो वह बाहर नहीं आयेगा और सदा-सर्वदा के लिए निरूचेष्ट हो जायेगा. फिर त्रिविक्रम और कुश का युद्ध आरंभ हुआ. देवी आद्या ने कामरूपी मोहिनी छवि प्रकट की, आद्या के तेज और रूप लावण्य पर मुग्ध होकर कुश ने अपने प्रहार की गति धीमी कर दी. त्रिविक्रम ने अवसर पाकर प्रहार किया और कुश को जमीन में धंसा दिया. कुश के मस्तक पर शिवलिंग रखकर देवताओं ने मिट्टी गिरा दी. कुश ने अपने आराध्य देव शिव का सम्मान करते हुए मस्तक नहीं उठाया. उसने अपनी कुलदेवी हिरण्यदा की उपासना की और इच्छा व्यक्त की कि शिवभक्त इस स्थान को कुशेश्वर कहें और पूजा- आराधना से अपनी कामनाओं की पूर्ति करें. त्रिविक्रम ने कुश के आग्रह पर द्वारिका (Dwarka) में भी शिवलिंग की स्थापना की. बताया जाता है कि द्वारिकाधीश के उत्तरी द्वार पर कुशेश्वर महादेव विराजित हैं.

राम और कुश से जुड़ी कथा
कुशेश्वर महादेव को लेकर अन्य कथाएं भी कही- सुनी जाती हैं. दूसरी कथा राम और उनके उत्तराधिकारी पुत्र कुश से जुड़ी हुई है. लक्ष्मण को राम ने प्राणदंड दिया, तो वह सरयू के तट पर योगाग्नि द्वारा शरीर त्यागकर परमधाम को चले गये. राम को लक्ष्मण के वियोग ने परेशान किया. उन्होंने अपने पुत्र कुश को अयोध्या (Ayodhya) का राज्य उत्तराधिकारी बना दिया और परम धाम को प्रस्थान करने से पूर्व किष्किंधा नरेश सुग्रीव और लंका नरेश विभीषण (Vibhishan) से भेंट करने गये. लंका नरेश विभीषण ने राम (Ram) से प्रार्थना की कि राम उन्हें भी अपने साथ ले जायें. परंतु राम ने विभीषण को लंका नरेश के रूप मे उनके दायित्व के बारे में बताया और कहा कि वे पृथ्वी से विदा होने के समय इसलिए दर्शन देने आये हैं कि समस्त पुण्य लाभ दे सकें.

एकांत शिवलिंग
राम ने रामेश्वरम् सेतु (Rameshwaram Setu) के आदि मध्य और अंत में शिवलिंग की स्थापना करने की इच्छा प्रकट की. सीता (Sita) को रावण (Ravan) से मुक्त कराने के लिए जब समुद्र पर राम ने सेतु का निर्माण कराया था,तब भी शिवलिंग की स्थापना की थी. अपने परमधाम प्रस्थान के समय उन्होंने जिन शिवलिंगों को स्थापित किया, उन्हें एकांत शिवलिंग कहा गया. रामेश्वरम् सेतु के कारण राक्षस समुद्र में उतर जाते थे या लंका की सीमा के बाहर जाकर उत्पात मचाते रहते थे. परंतु विभीषण ने राम की आज्ञा के बिना रामेश्वरम् को क्षति पहुंचाना उचित नहीं समझा था. विभीषण ने सेतु का मध्यवर्ती भाग तोड़ देने का निवेदन किया. राम की आज्ञा से सेतु का मध्यवर्ती भाग दस योजन की लंबाई में तोड़ दिया गया, जिससे मध्यभाग का शिवलिंग समुद्र में चला गया.

चतुर्मुखी शिवलिंग
विभीषण से विदा लेकर जब राम पुष्पक विमान से सुग्रीव के साथ किष्किंधा की ओर आ रहे थे, तो विमान बीच ही में रुक गया. आकाशवाणी हुई कि नीचे हाटकेश्वर शिवलिंग विराजित है, उन्हें लांघा नहीं जा सकता. राम ने सुग्रीव (Sugriva) सहित शिवलिंग के दर्शन किये और पांच प्रासादों के निर्माण कराये. सभी में शिवलिंग स्थापित किये गये एवं उनकी पूजा की गयी. उसकी कुछ दूरी पर पश्चिमी क्षेत्र में राक्षसों ने भी चतुर्मुखी शिवलिंग स्थापित किया. राम ने शिवलिंगों की स्थापना और पूजा के बाद अयोध्या जाकर प्रजा से अंतिम भेंट की और कुश को राजनीति की शिक्षा देकर परम धाम को चले गये. कुछ समय के बाल लंका के राक्षस शिवलिंग की पूजा के लिए हाटकेश्वर आने लगे और मनुष्यों को मारने लगे. अनेक तपस्वी भी मारे गये.


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रामेश्वरम में शिवलिंग
कुछ तपस्वियों ने राजा कुश से राक्षसों के उत्पात की कथाएं कहीं और उनसे रक्षा का निवेदन किया. कुश ने विभीषण के पास अपने दूत को भेजा. दूत विभीषण के पास पत्र लेकर जा ही रहा था कि उसे विभीषण द्वारा प्रतिदिन रात्रि में रामेश्वरम् आकर शिवलिंग की पूजा करने की बात पता चली. दूत वहीं रुक गया. विभोषण ने कुश के पत्र को पढ़ा, तो उन्हें अपने दायित्व का बोध हुआ. उन्होंने दोषी राक्षसों का पता लगाया और उन्हें दंडस्वरूप लंका के द्वार पर कई दिनों तक खड़ा रखा, उन्हें भविष्य में ऐसे अपराध नहीं करने की भी चेतावनी दी.

हाटकेश्वर शिवलिंग
दूत ने निवेदन किया कि हाटकेश्वर शिवलिंग को उखाड़ दिया जाये , जिससे भविष्य में राक्षस शिवलिंग की पूजा करने के बहाने उधर जा ही न पायें. लेकिन, हाटकेश्वर शिवलिंग को उखाड़ने में विभीषण ने असमर्थता व्यक्त की. अगले कार्तिक मास में कुश की आज्ञा से विभीषण के राक्षसों ने शिवलिंग पर धूलिवर्षा की और उसे ढक दिया. कुश ने हाटकेश्वर शिवलिंग के बदले में अपने ननिहाल में शिवलिंग की स्थापना की. वही कुशेश्वर महादेव हैं. यह भी कथा है कि हाटकेश्वर को ढंकने के अपराध को क्षमा करने के लिए कुश ने एक वर्ष तक कुशेश्वर में शिव की तपस्या की.

मंदिर में जुटी श्रद्धालुओं की भीड़

कुश मुनि की कथा
एक अन्य कथा में कुश नामक मुनि का वर्णन आता है. कुश मुनि की तपस्या से प्रसन्न होकर साक्षात् शिव ने उन्हें स्थापित करने के लिए अपना लिंग दिया था. कुश मुनि ने ऋषि वशिष्ठ (Rishi vashishtha) के सहयोग से जिस शिवलिंग की स्थापना की, मिथिलांचल का वही पुण्यधाम कुशेश्वर स्थान है. कलियुग (Kali Yuga) में कुशेश्वर के प्रादुर्भाव को लेकर एक अन्य कथा है. मिथिलांचल में कुश का घना वन था. उसमें अनेक जानवर विचरण करते थे. कोई काले रंग की बछिया प्रतिदिन जंगल में आती थी, तो एक निर्धारित स्थान पर उसके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी. वनवासियों ने जिज्ञासावश उस स्थल की खुदाई की, तो शिवलिंग प्रकट हुआ. उन दिनों इस क्षेत्र में बेर अबेर नामक किसी शासक का शासन था. शासच की आज्ञा से शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयत्न किया गया, लेकिन वह विफल रहा.

पोखर की खुदाई
शासक की आज्ञा से कुश वन में आग लगा दी गयी. शिवलिंग तप्त हो गया. खागा हजारी नामक भक्त ने आग बुझायी. बेर अबेर का सवंश नाश हो गया. भक्त खागा हजारी ने कुश तृण से मंदिर बना दिया. फिर इस क्षेत्र में चंदेलवंशी क्षत्रियों और कायस्थों का राज हुआ. खागा हजारी ने एक पोखर को खुदाई की, वह कुशेश्वर मंदिर के पश्चिम में अवस्थित है. खागा हजारी के प्रभाव से तत्कालीन राजा ने पक्के मंदिर का निर्माण कराया. वह वर्ष 1341 के भूकंप में मिट गया. उसके बाद संत निर्मल दास के प्रभाव से शकरपुरा की कमला देवी ने मंदिर बनवाया.

और भी हैं श्रद्धास्थल
कुशेश्वरस्थान के परिसर में मुख्य मंदिर का शिवलिंग भूगर्भ में धंसा हुआ प्रतीत होता है. यहां प्रतिदिन श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है. रात्रि में आरती वंदन होता है. अनेक दंतकथाओं में पुण्यभूमि के रूप में समादृत यह कुशेश्वर स्थान बिहार के दरभंगा (Darbhanga) जिलांतर्गत बिरौल (Birol) अनुमंडल का एक प्रखंड है. समस्तीपुर सहरसा (Samastipur Saharsa) रेलखंड के हसनपुर अथवा रोसड़ा स्टेशन पर उतरकर यहां आया जा सकता है. यहां कमला -बलान और कोशी नदियों का संगम होता है. इस क्षेत्र में थोड़ी- थोड़ी दूरी पर अनेक श्रद्धा स्थल हैं, जिनमें उग्रतारा य मंडनधाम, सहरसा ‘तिलकेश्वरनाथ’ जयमंगला भगवती का स्थान,हिरण्यदा स्थान आदि प्रमुख हैं. इस क्षेत्र को कुश, वशिष्ठ, अक्षोभ्य और विश्वामित्र की तपभूमि मानकर इसे पुण्यदायी माना जाता है. कुशेश्वरनाथ महादेव को लेकर प्रचलित दंतकथाओं में प्रमुख रूप से वनचारी कुश की कथा प्रचलित है. कल्प कथाओं में भेद करते हैं, पर सभी के अंतर्संबंध की संभावना बनी रहती है.

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