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राजनीति: तो क्या फिर टूट जायेगी इनकी दोस्ती?

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विशेष संवाददाता
22 जून 2023
Patna : राजनीतिक समझ रखने वाला हर कोई जानता-समझता है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar)और राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (Rajeev Ranjan Singh Urf Lalan Singh) दीर्घकाल से एक-दूसरे के पूरक हैं. वैसे,2009 के संसदीय चुनाव के बाद कुछ समय के लिए इनकी दोस्ती टूट गयी थी. ऐसी कि ललन सिंह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आंत में दांत रहने की बात कह होमियोपैथिक (Homeopathic) इलाज करने लग गये थे. हालांकि, वैसा कर नहीं पाये. दो-ढाई साल तक अपनी ‘औकात’ नाप फिर से ‘शरणागत’ हो गये. विवशता भरी जरूरत नीतीश कुमार को भी थी. कारण कि ऐसा कोई दूसरा ‘विश्वास पात्र’ उनके पास है ही नहीं. ‘ये दोस्ती हम फिर से जोड़ेंगे…’ गुनगुनाते हुए दोनों फिर से एक हो गये. धीरे-धीरे भरोसा पूर्व की तरह गहरा गया.

कोई छिपी बात नहीं है यह
यह है ‘पौराणिक दोस्ती’ (Pauranik Dosti) का एक अध्याय. अब दूसरे अध्याय को जानिये-समझिये. यह कोई छिपी बात नहीं है कि नीतीश कुमार कई गुणों के लिए मशहूर हैं. सामान्य समझ में सबसे बड़ा गुण यह है कि इनको किसी पर भरोसा नहीं होता. वैसे, प्रत्यक्ष रूप में भरोसा दिखता है, पर अंदरुनी बात कुछ और होती है. उनके अपने लोग भी मानते हैं कि कान के कच्चे पहले से रहे हैं, हाल के वर्षों में कुछ अधिक कच्चे हो गये हैं. इसके कारण दरबारी (Darabari) भी डरे रहते हैं. कब कौन इनके कान में कुछ डाल दे और ये हिसाब-किताब कर बैठें, किसी को नहीं मालूम.

किसी के भरोसेमंद नहीं
बात उन्हें और उनके समर्थकों को अटपटी लग सकती है, गुस्सा भी आ सकता है. पर, नीतीश कुमार के इस गुण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने पर बात समझ में आ जा सकती है. विश्लेषकों-आलोचकों की समझ है कि राजनीति में यह किसी के भरोसेमंद नहीं रहे हैं, इसलिए समझते हैं कि उनके आसपास का कोई आदमी भी भरोसेमंद नहीं हो सकता है. अधिक भरोसा कर लें तो उनके साथ भी वही होगा, जो उनपर भरोसा करने वालों के साथ हुआ है. उदाहरण के रूप में दिवंगत जार्ज फर्नांडिस (George Fernandes) , शरद यादव (Sharad Yadav) आदि…इत्यादि का स्मरण किया जा सकता है. सूची लंबी हो सकती है.

कम हो रहा भरोसा
नया मामला जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का है. लोग महसूस कर रहे हैं कि उनके प्रति नीतीश कुमार का धीरे-धीरे भरोसा कम हो रहा है. ऐसा कहा जाता है कि किसी ने उनके कान में भर दिया है कि उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी में नहीं हैं. अध्यक्षजी हड़बड़ी में हैं कि जल्दी से नीतीश कुमार दिल्ली कूच करें और बिहार में कुछ विस्तार से अपना जलवा बिखेरें. एक-दो दरबारियों ने तो यह भी उड़ा दिया है कि अध्यक्षजी खुद उपमुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. वह सब विभाग भी चाहते हैं जो अभी के उपमुख्यमंत्री के पास है.इन बातों में सच्चाई है या सब हवा की ही बातें हैं, यह कहना कठिन है.

नीतीश कुमार और के सी त्यागी.

अब ‘ऑपरेशन अध्यक्षजी’
लेकिन, राजनीति को अहसास हो रहा है कि नीतीश कुमार का भरोसा डोल गया है. सो, अब ‘ऑपरेशन अध्यक्षजी’ शुरू कर दिया गया है. पहला चरण यह कि पार्टी के दिल्ली वाले कार्यालय में नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय महासचिव और मुख्य प्रवक्ता के पद पर अध्यक्षजी के स्वजातीय के सी त्यागी (K C Tyagi) को बिठा दिया है. उसी के सी त्यागी को जिन्हें ललन सिंह की राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं मिल पायी थी. यूं कहें कि जगह नहीं दी गयी थी. ऐसी चर्चा है कि पूरे शान से फिर से पद संभालने के बाद के सी त्यागी अध्यक्षजी की एक-एक गतिविधि को डायरी में नोट करते हैं. फुर्सत के समय में फोन पर या पटना आने पर नीतीश कुमार को बता देते हैं. यह सिर्फ गप्पबाजी है या इसमें सच्चाई भी है, यह नहीं कहा जा सकता. परन्तु, यह सच है कि के सी त्यागी और नीतीश कुमार पटना के साइंस कालेज से लेकर इंजीनियरिंग कालेज तक सहपाठी रहे हैं.

यहां भी कर दिया है उपाय
यह तो हुआ दिल्ली वाले आफिस का इंतजाम. जदयू के लोग महसूस कर रहे हैं कि पटना आफिस में भी अध्यक्षजी का उपाय कर दिया गया है. इधर के दिनों में प्रदेश कार्यालय में दादा की आमद बढ़ गयी है. दादा यानी पूर्व प्रदेश जदयू अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह (Vashishtha Narayan Singh) . वह आते हैं. इज्जत बढ़ाने की गरज से प्रदेश वाले अध्यक्ष उमेश कुशवाहा (Umesh Kushwaha) अपनी कुर्सी दादा को दे देते हैं. दादा जब तक कार्यालय में रहते हैं, कार्यकर्ताओं की भीड़ लगी रहती है. लोग उन्हें बतातेे भी हैं कि उनके जाने के बाद कार्यालय कारपोरेट आफिस में बदल गया है. वैसा हो या नहीं, राजनीति के समझदार लोग प्रदेश कार्यालय में दादा की दखलंदाजी को नीतीश कुमार निर्देशित मानते हैं.


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दादा ही मौजूद थे
‘पर्वत पुरुष’ दशरथ मांझी (Dashrath manjhi) के पुत्र भागीरथ मांझी (Bhagirath Manjhi) और उनके दामाद मिथुन मांझी (Mithun Manjhi) के जदयू से जुड़ाव के ‘ऐतिहासिक अवसर’ पर दादा ही मौजूद थे. अध्यक्षजी नजर नहीं आये. यह अलग बात है कि अध्यक्षजी के लोग प्रचारित करने में लगे हैं कि दादा का राज्यसभा वाला कार्यकाल अगले साल समाप्त हो रहा है. रिन्युअल के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं. मगर चतुर सयाने तो जान ही रहे हैं कि बिना नीतीश कुमार की मर्जी के जदयू कार्यालय में चिड़ियां भी नहीं घुस सकती है.

तमिलनाडु यात्रा
इधर, तमिलनाडु यात्रा (Tamil nadu Yatra) के रूप में ‘ऑपरेशन अध्यक्षजी’ में एक अध्याय और जुड़ गया. अस्वस्थता की वजह से नीतीश कुमार नहीं गये. विश्लेषकों का मानना है कि कायदे से अपनी जगह उन्हें अध्यक्षजी को भेजना चाहिये था, तो तेजस्वी प्रसाद यादव के साथ संजय झा (Sanjay Jha) को लगा दिये. हो सकता है नीतीश कुमार के साथ संजय झा का कार्यक्रम पहले से तय हो. तब भी सवाल तो उठता ही है कि इस ‘महत्वपूर्ण यात्रा’ से अध्यक्षजी को क्यों नहीं जोड़ा गया था?

अब आगे क्या…
आम धारणा है कि नीतीश कुमार अपने विशिष्ट अंदाज में हंस-हंस कर जिस किसी की प्रशंसा करते हैं, देर-सबेर राजनीति में उसकी गति उदाहरण बन जाती है. ऐसी गति-दुर्गति का बेहद डरावना इतिहास है. हाल-फिलहाल उन्होंने इन शब्दों में अध्यक्षजी की प्रशंसा की थी – ‘… राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन बाबू हैं … ललन सिंह कहिये … राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का क्या मतलब है? … ललन बाबू कहिये … इनसे दोस्ती आज का नहीं न है जी … पौराणिक दोस्ती है न जी … ललने बाबू कहिये!’ इस बेमौसमी प्रशंसा के मर्म को सामान्य लोग नहीं समझ पाये, पर ललन सिंह परेशान हो उठे. ऐसा क्यों? यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि सब कुछ एक-एक कर दिखने लग गया है. अब आगे क्या होता है, यह देखना कुछ अधिक दिलचस्प होगा.

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