जितवारपुर : अनेक गांवों में मिल रही इस कला से रोजी-रोटी
शिवकुमार राय
09 सितम्बर 2023
Madhubani : स्थानीय लोगों की मानें तो जितवारपुर समेत दर्जनाधिक गांवों की लगभग 80 प्रतिशत आबादी को इसी से रोजी-रोटी मिल रही है. इसका मुख्य श्रेय पद्मश्री बौआ देवी को है. मधुबनी पेंटिंग (Madhubani Painting) की परंपरागत शैली ‘दीवार पर चित्रकारी’ को कागज पर उतारकर उन्होंने न सिर्फ कला जगत को चकित कर दिया, बल्कि चित्रकला की इस विधा को आर्थिक आधार भी दे दिया. हालांकि, इसमें भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड (Indian Handicrafts Board) के तत्कालीन निदेशक पुपुल जयकर एवं देश के सुप्रसिद्ध कलाकार भास्कर कुलकर्णी का भी अतुलनीय योगदान रहा.
कागज पर चित्रकारी
इन दोनों की प्रेरणा से ही जितवारपुर की कला साधिका पद्मश्री बौआ देवी ने इस लोक कला के इतिहास में पहली बार कागज पर चित्रकारी की. इसके प्रथम खरीदार होने का गौरव भास्कर कुलकर्णी को प्राप्त हुआ. उस ऐतिहासिक पहल से मातृ शक्तियों की कला साधना को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पहचान मिली. घर-आंगन और द्वार-दीवार से निकल मिथिलांचल की यह लोक संस्कृति (Folk Culture) साधारण कागज पर से गुजरते हुए कैनवास पर निखरने लगी. हस्तनिर्मित कागज और विविध रेशमी परिधानों पर भी मुस्कुराने लगी.कोरोना संक्रमण (Coronavirus Infection) काल में फेस मास्क पर चित्रकारी के रूप में लोगों के नाक-मुंह पर भी छा गयी.
विदेशों में भी हैं कद्रदान
यह कहने में हिचक नहीं कि इस लोक कला को भारत में तो सम्मान प्राप्त है ही, विदेशों में भी इसके असंख्य कद्रदान हैं. लोग बताते हैं कि अमेरिका (America) और जापान (Japan) में यह काफी लोकप्रिय है. जापान में बजाप्ते मिथिला म्यूजियम है जहां 15 हजार से अधिक अनुपम-अद्वितीय मधुबनी पेंटिंग का संग्रह है. गर्व की बात यह कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस कला का अस्तित्व अक्षुण्ण है. इसमें निरंतर निखार आ रहा है तो उसमें सरकार का कोई विशेष योगदान नहीं है. तमाम दुश्वारियों के बीच पुरखों की सृजनशीलता (Creativity) से हासिल गुण की बदौलत यह चित्रकारी संरक्षित है. इसमें जितवारपुर की महिलाओं का अविस्मरणीय अवदान है जिन्होंने इस विशिष्ट कला (Specific Art) के संवर्द्धन-परिवर्द्धन में अपना संपूर्ण जीवन
यह भी है एक पक्ष
मधुबनी पेंटिंग का यह उज्ज्वल पक्ष है. दूसरा पक्ष लोक कलाकारों की समस्याओं से जुड़ा है जिसमें टीस अपेक्षाकृत अधिक है. सबसे बड़ी पीड़ा उत्कृष्ट चित्रकारी का कोई उपयुक्त बाजार नहीं होना है. कलाकारों को सरकारी सम्मान व पुरस्कार तो मिलता है, पर चित्रकारी प्रदर्शित करने और बेचने का कोई सरल, सुगम व सुलभ माध्यम नहीं है. सारा कुछ बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर है. ऐसे में कलाकारों के लिए राष्ट्रीय या फिर राज्यस्तरीय सम्मान और पुरस्कार का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है. एक ही गांव जितवारपुर की तीन महिला कलाकारों को अलग-अलग समय में पद्मश्री मिले हैं. यह गौरव संभवतः देश के अन्य किसी गांव को प्राप्त नहीं है. मधुबनी चित्रकारी के लिए बिहार सरकार (Bihar Government) ने सबसे पहले1969 में सीता देवी को सम्मानित किया था. उसी सीता देवी को 1984 में पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ. चित्रकारी में विलक्षणता से विदेशी कला मर्मज्ञों को भी चमत्कृत कर देने वाली सीता देवी को बिहार रत्न एवं शिल्पगुरु पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे.
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इससे भी मिली पहचान
1970 में जगदम्बा देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार (National Award) मिला. इससे इस चित्रकला को विशिष्ट पहचान मिली. 1975 में जगदम्बा देवी को पद्मश्री सम्मान (Padmashree Award) प्राप्त हुआ. बौआ देवी को पद्मश्री सम्मान 2017 में मिला. राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वालों में उत्तम पासवान और चानो देवी भी थीं. दुर्भाग्यवश दोनों कैंसर का ग्रास बन गये. राष्ट्रीय पुरस्कार कोई काम नहीं आया. राज्य स्तरीय पुरस्कार पाने वालों को पेंशन के रूप में तीन हजार रुपये मासिक मिलते हैं. ऊंट के मुंह में जीरा! जितवारपुर (Jitwarpur) को मधुबनी पेंटिंग का गढ़ माना जाता है. लेकिन, उस इलाके में ऐसी एक भी आर्ट गैलरी नहीं है जहां कलाकार अपनी चित्रकारी की प्रदर्शनी लगा लोगों में उसके प्रति अतिरिक्त आकर्षण पैदा कर सकें.
बिखरी पड़ी हैं कृतियां
हद तो यह कि इस राष्ट्रीय धरोहर (National Heritage) को सुरक्षित-संरक्षित रखने के लिए कहीं कोई सुव्यवस्थित संग्रहालय नहीं है. तमाम सिद्ध कलाकारों की अनुकरणीय कृतियां यत्र-तत्र बिखरी एवं छितरायी हुई हैं. वैसे सौराठ (सभा गाछी) में मिथिला ललित संग्रहालय और चित्रकला संस्थान का निर्माण हो रहा है.
चित्र : सोशल मीडिया
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