जितवारपुर : सीता स्वयंवर से जुड़ा है इस कला का इतिहास
शिवकुमार राय
13 सितम्बर 2023
Madhubani : मधुबनी पेंटिंग (मिथिला पेंटिंग) के सृजन की शुरुआत त्रेता युग में हुई थी, ऐसा इतिहास में वर्णित है. कथा-कहानियों में कहा जाता है कि भगवान राम (Lord Rama) और मां सीता (Maa Sita) ने एक दूसरे को पहली बार ‘मधुबन’ (शहद का वन) में देखा था. ऐसी मान्यता है कि मधुबनी शब्द की उत्पत्ति उसी से हुई है. किंवदंती है कि राजा सीरध्वज (जनक) ने सीता स्वयंवर के शुभ अवसर पर अवध के अतिथियों को मिथिला (Mithila) की समृद्ध संस्कृति एवं उत्कृष्ट आचार-विचार की अनुभूति कराने के लिए विवाह स्थल को सुंदर चित्रों से सजाने-संवारने का काम लोक कलाकारों के एक समूह को सौंपा था. लोक कलाकारों ने तब जो चित्रकारी की, कालांतर में वही मिथिला चित्र (मधुबनी पेंटिंग) के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा.
ये हैं पांच प्रसिद्ध शैलियां
इस चित्रशैली की गहन जानकारी रखने वालों के मुताबिक मधुबनी पेंटिंग (Madhubani Painting) के दो मुख्य घराने हैं. रांटी घराना और जितवारपुर घराना. दोनों मधुबनी जिले में ही हैं. कोहबर, गोदना, तांत्रिक, भरनी और कचनी-मधुबनी पेंटिंग की पांच प्रसिद्ध शैलियां हैं. भरनी, कचनी और तांत्रिक पेंटिंग धार्मिक विषयों पर आधारित है. मिथिला का क्षेत्र शैव और शक्ति समुदायों की तांत्रिक साधना का केन्द्र रहा है. इस चित्रकला के तांत्रिक संदर्भ महाकवि विद्यापति (Vidyapati) के साहित्य में पाये जाते हैं जो बारहवीं सदी के हैैं. भरनी, कचनी और तांत्रिक शैलियों का उपयोग सवर्ण समाज की ब्राह्मण और कायस्थ महिलाएं करती थीं. मुख्य रूप से यह सामाजिक-आर्थिक स्थिति एवं आम जीवन शैली पर आधारित होती थी.
टूट गया एकाधिकार
1960 के आसपास सवर्ण महिलाओं का एकाधिकार टूट गया. दलित समुदाय की दुसाध बिरादरी की महिलाओं ने ‘गोदना पेंटिंग’ की शुरुआत की, जो मुख्यतः राजा सल्हेश की लोक कथाओं के प्रसंगों पर आधारित थी. राजा सल्हेश को इस समुदाय में भगवान सरीखा सम्मान प्राप्त है. गोदना पेंटिंग के रूपांकन, तकनीकी और शैली पारंपरिक (Traditional) हैं. इससे इस चित्रकला. ऐसा कहा जाता है कि मधुबनी पेंटिंग की शुरुआत ब्राह्मण महिलाओं ने की थी. शादी-विवाह, उपनयन संस्कार, पूजा मंडप आदि पारिवारिक उत्सवों एवं पर्व-त्योहारों पर चित्रकारी के रूप में.
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चटख रंगों का इस्तेमाल
भरनी पेंटिंग में ज्यादातर पौराणिक कथाओं (Mythology) को किरदारों के जरिये चित्रित किया जाता है. इसमें चटख रंगों का इस्तेमाल होता है. आमतौर पर ऐसी चित्रकारी ब्राह्मण महिलाएं करती हैं. कचनी पेंटिंग में बगैर रंगों का इस्तेमाल किये बेहद बारीक रेखाओं के साथ आकृतियां तैयार की जाती हैं. यह चित्रकारी ब्राह्मण महिलाओं के अलावा कायस्थ महिलाएं भी करती हैं. जितवारपुर (Jitwarpur) की सीता देवी की चित्रकला को उच्चस्तरीय पहचान मिली तब गांव के अन्य लोग भी पेंटिंग सीखने लगे. उनमें दलित भी थे. गोदना पेंटिंग की शुरुआत वहीं से हुई. गोदना बेहद महीन आकृति के साथ आती है. इसकी कहानी और किरदार मौजूदा सामाजिक गतिविधियों पर आधारित होते हैं. महत्वपूर्ण बात यह कि चित्रकारी में जाति के बंधन अब टूट चुके हैं. दलित महिलाएं भी कचनी और भरनी पेंटिंग बनाने लगी हैं तो सवर्ण महिलाएं गोदना.
भूकम्प से पहले
जानकारों की मानें, तो त्रेता युग में शुरू हुई मिथिला पेंटिग 1934 तक गांव-घरों की लोक कला थी. 1934 के भूकंप (Earthquake) ने मिथिला क्षेत्र को बर्बाद-तबाह कर दिया. उस विनाश का मौका-मुआयना करने ब्रिटिश अधिकारी विलियम जी आर्चर आये थे. साथ में उनकी पत्नी मिल्ड्रेड भी थीं. उसी क्रम में उन्होंने जितवारपुर एवं अन्य कई गांवों में मलबों में तब्दील टूटी-फूटी दीवारों पर इस चित्रकारी को देखा. विल्यिम जी आर्चर और मिल्ड्रेड ने इन भित्ति चित्रों की मौलिकता और बारिकियों को गौर से परखा इसे उन्होंने पिकासो और मीरा जैसे आधुनिक कलाकारों के चित्रों के समान पाया. 1949 में इंडियन आर्ट जरनल में प्रकाशित अपने एक आलेख में उन्होंने मिथिला पेंटिंग की विशिष्टता का उल्लेख किया था.
चित्र : सोशल मीडिया
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