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तीन अध्यक्षों के बल पर सीना फुला रहे थे तब सुप्रीमो!

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विशेष प्रतिनिधि
02 फरवरी 2024

Patna : धार्मिक आख्यानों में हाथी के बल का विवरण मिलता है. योद्धाओं के बल की जब चर्चा होती है तो कहा जाता है कि उनमें नौ या सौ हाथियों का बल था. आधुनिक युग में मशीनों की ताकत बढ़ी तो उसे घोड़े के बल से मापा गया. पांच हार्स पावर या पचास हार्स पावर. राजनीति में ताकत का हिसाब जन समर्थन से मापा जाता है. जिस दल को जितना बड़ा जन समर्थन, उसके सत्ता में आने और बने रहने की उतनी ही बड़ी गारंटी. बिहार की राजनीति को देखें तो यहां एक नया पैमाना सामने आ गया – अध्यक्ष का बल! राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) पहले से तो ताकतवर थे ही, हाल के दिनों में उनकी ताकत और बढ़ गयी.

लालू नाम केवलम
ताकत या बल में इजाफा का कारण यह रहा कि उनके पास तीन दलों के अध्यक्षों की ताकत हो गयी. खुद अपनी पार्टी के तो वह स्थायी अध्यक्ष हैं ही, प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डा. अखिलेश प्रसाद सिंह ने अपना सारा पावर उन्हीं को दे दिया . राजनीति में छोटे भाई नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की पार्टी जदयू के तब के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का भी यही हाल था. सुबह-दोपहर-शाम दवा की खुराक की तरह लालू प्रसाद का ही नाम सुमिरन हो रहा था. लालू प्रसाद को भी इन अध्यक्षों का बल ग्रहण करने में दिक्कत नहीं हो रही थी.

लद जाने का खतरा
इन दो अध्यक्ष बेचारों की छोटी-छोटी मांग थी. राजनीति (Politics) के गलियारों की बातों पर विश्वास करें, तो जदयू के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह (Lalan Singh) ने पूरी पार्टी का विलय कराने का आश्वासन दिया था. बस, मुंगेर लोकसभा सीट से जीत की उन्हें गारंटी चाहिए थी. इसके बदले वह लालू प्रसाद के सामने किसी की कुर्बानी ले सकते थे, ले भी रहे थे. तब के राजनीतिक (Political) हालात के मद्देनजर ललन सिंह को आशंका थी कि पार्टी अगर अकेले लोकसभा चुनाव के मैदान में गयी तो दस साल पहले वाला हाल हो जायेगा. ललन सिंह लोकसभा का चुनाव हार गये थे. उस समय पार्टी मजबूत थी. इसलिए विधान परिषद (Legislative Assembly) में भेज दिया गया था. इस बार वैसी स्थिति नहीं है. लोकसभा का चुनाव हारने पर लद जाने का खतरा था. वैसे भी उम्र जितनी हो गयी है, उसमें पुनर्वास (Resettlement) की कोई संभावना नहीं है. ऊपर से यह रिकार्ड भी कि जिस किसी ने मदद की, मौके पर खटिया उसी की खड़ी कर दी.


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बेटा भी चुनाव लड़ेगा
प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डा. अखिलेश प्रसाद सिंह अपनी सत्ता लालू प्रसाद को ऐसे ही नहीं सौंप दी है. वह डबल ट्रबुल से डरे हुए हैं. अप्रैल 2024 में राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. अपनी पार्टी के पास इतने विधायक (Legislator) नहीं हैं कि उनके सहारे दूसरी बार राज्यसभा में जा सकें. लोकसभा का चुनाव लड़ना जोखिमों से भरा हुआ है. अकेले लड़ना होता तो लड़ लेते. इधर तो बेटे को भी चुनाव लड़ने का चस्का लग गया है. बेटा भी चुनाव लड़ेगा ही. पहले लोकसभा चुनाव के अनुभवों से सबक लेकर वह दावा करने लगा है कि इस बार जीत की गारंटी है.

नहीं सुहाया उनका सुकून
अच्छी बात यह है कि उनके बेटे जिस लोकसभा क्षेत्र से पिछली बार चुनाव लड़ कर हारे थे, उस सीट के लिए लालू प्रसाद की पार्टी में कोई अच्छा दावेदार नहीं है. अवसर (Opportunity) उपलब्ध हो जा सकता. हिसाब-किताब तब यह था कि दो-दो अतिरिक्त अध्यक्षों के बल से लालू प्रसाद अच्छा भला महसूस कर रहे थे. बीमारियां उन तक नहीं पहुंच रही थीं. बीमार अपने इलाज के लिए उनके पास आ जा रहे थे. छोटे भाई नीतीश कुमार को उनका यह सुकून नहीं सुहाया. ललन सिंह को प्रभावहीन कर अध्यक्ष का पावर खुद में समेट लिया. लालू प्रसाद का बल कम हो गया. फिर क्या हुआ देखिये रहे हैं…!

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