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बेशरम राजनीति : सत्ता है कि प्यास बूझती ही नहीं…!

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अविनाश चन्द्र मिश्र
06 फरवरी 2024

बिहार में सत्ता की राजनीति के सभी किरदार हमाम में एक जैसे हैं. सब में सत्ता की कभी न मिटने वाली भूख है. उनका यह रूप जनता का दिया हुआ नहीं है. निर्लज्ज-निकृष्ट नेताओं की सत्तालोलुपता ने फिर एक-दूसरे के इस घृणित चरित्र को बेनकाब कर दिया है. राजनीति (Politics) की इस निर्लज्जता और विद्रूपता पर जनता की प्रतिक्रिया क्या और किस रूप में आती है, यह देखना दिलचस्प होगा. जनता की प्रतिक्रिया आमतौर पर चुनावों में आती है, दिखती है और नेताओं को उसका अहसास भी होता है. इस दृष्टि से इस बार यह जानने-समझने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना होगा. 2024 का लोकसभा चुनाव बिल्कुल करीब है. उसके सवा साल बाद 2025 का विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) होना है. इन चुनावों में जनता की राय सामने आ जायेगी.

मुश्किल है भरोसा करना
इस बीच यह जाना और समझा जा सकता है कि सत्ता की खातिर गलबहियां डालकर मुस्कुराते चेहरों के पीछे कैसी कटुता और छल-कपट छिपी रहती है, कैसे एक-दूसरे का इस्तेमाल करते हैं और दुराव-अलगाव होते ही तमाम खूबियां एकबारगी खामियों में बदल जाती हैं. क्षणभर पहले जो नायक था उसे खलनायक (Villain) करार दिया जाता है. जो साम्प्रदायिक (Communal) था उसे धर्मनिरपेक्ष (Secular) का प्रमाण-पत्र मिल जाता है. उसके बाद क्या सब होता है यह भी देखने और समझने की बात है. बिहार में 2013 से सत्ता की लिप्सा में नेताओं के रंग बदलते चेहरों और बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच जनता के लिए यह भरोसा करना मुश्किल हो गया है कि उनके किस रूप को सच माने. वर्तमान रूप को सच मान ले तो वह कल पलटीमार प्रवृत्ति की चपेट में आ फिर असत्य न हो जाये, इसकी क्या गारंटी है?

डेढ़ साल में ही निकल गयी हवा
जो शब्द और वाक्य 2013 में सुनाई पड़ते थे, थोड़ा उलटफेर के साथ 2022 में भी सुनाई पड़े. जो 2017 में सुनाई पड़े थे, हल्के-फुल्के बदलाव के साथ वर्तमान में सुनाई दे रहे हैं. अंतर इतना कि 2013 में ‘संघ मुक्त भारत’ का हुंकार भरा गया था, 2022 में ‘भाजपा मुक्त भारत’ का भरा गया. वह भी अपने बूते नहीं. अपनी हैसियत तो खुद चुनाव जीतने लायक नहीं है. विपक्षी दलों की ‘आभासी एकजुटता’ पर हवा-बयार बांधा गया. डेढ़ साल में ही उसकी हवा निकल गययी. हवा-बयार बांधने वालों को जिस तरह 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) का कोई विकल्प नहीं दिखा था, वर्तमान में भी वैसा ही कुछ दिखने लगा है. पर, सवाल खड़ा ही है कि कल की तारीख में ‘मोदी मुक्त भारत’ का अभियान नहीं शुरू हो जायेगा, इसका भरोसा कौन दिलायेगा? आत्ममुग्धता में उन्हें इसका तनिक भी आभास नहीं है कि विश्वास का यह संकट उनकी राजनीति को घने अंधकार में धकेल दिया है.

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार.

सब सत्ता-स्वार्थ का खेल
राजनीति की इस अवसरवादिता (Opportunism) के लिए सिर्फ वही नहीं, वे भी समान रूप से जिम्मेवार हैं जो धोखा-दर-धोखा खाने के बाद भी सत्ता-स्वार्थ में निर्लज्ज भाव से पलक-पांवड़े बिछाये रहते हैं और उन्हें गले लगा लेते हैं. बिहार में सत्ता का जो सामाजिक-राजनीतिक समीकरण है वह काफी जटिल है. यहां तीन बड़ी राजनीतिक (Political) ताकतें हैं – भाजपा, राजद और जदयू. इनमें अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है. कई राजनीतिक प्रयोगों का निष्कर्ष यही है कि यहां दो ताकतों के गठबंधन (Alliance) को ही सत्ता की प्राप्ति संभव है. यह अकाट्य है कि भाजपा और राजद में कभी मेल नहीं हो सकता. भाजपा हाथ बढ़ा सकती है, पर राजद को स्वीकार्य नहीं होगा. वजह वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं, छद्म धर्मनिरपेक्षता है, जो मुस्लिम जनाधार को छिटकने नहीं देने की बाध्यता पर केन्द्रित है. धर्मनिरपेक्षता के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता होती तो ‘साम्प्रदायिकता’ की गोद में किलकारियां भरने, हिन्दुत्व के आंगन में ठुमक-ठुमक कर चलने वाले से वह गठजोड़ नहीं करता. ऐसा एक बार नहीं, दो बार हुआ. पार्टी का अस्तित्व बना रहा, तो तीसरी बार भी होगा. सब सत्ता-स्वार्थ का खेल है.

गुम हो गयीं खूबियां
’बिहार की राजनीति की इसी नियति का लाभ नीतीश कुमार (Nitish Kumar) उठा रहे हैं. सत्ता की राजनीति में दोहरा चरित्र अपनाकर. माया महाठगिनी हम जानी…! नीतीश कुमार की राजनीति में कभी शुचिता, शालीनता और नैतिकता समाविष्ट थी. लोग उनके इस आचरण का उदाहरण देते थे. ‘जाति नहीं जमात’ की बात पर विश्वास करते थे. कालांतर में सत्ता की अनबूझी प्यास में उनकी तमाम खूबियां विलीन हो गयीं. यह प्रतिद्वंद्वियों का आरोप नहीं , सामान्य धारणा है जो 2010 से 2024 के बीच के 14 वर्षों के दौरान उनके नौ बार मुख्यमंत्री-मुख्यमंत्री खेलने पर आधारित है. नीतीश कुमार हमेशा यह प्रदर्शित और स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि उन्हें सत्ता की लालसा नहीं है, मोह नहीं है. उनके लिए यह सेवा का माध्यम भर है. पर, सच यह है कि सत्ता उनके लिए अपरिहार्य (Indispensable) है. इसे हासिल करने के लिए किसी से भी दोस्ती कर सकते हैं. नीति-अनीति की हर सीमा लांघ सकते हैं. 2010, 2015 और 2020 के चुनावों के जनादेश का क्रमशः 2013, 2017, 2022 और 2024 में अपमान इसका प्रमाण है.


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खंडित हो गयी छवि
2010 का जनादेश राजग को मिला था. अकेले नीतीश कुमार या उनकी पार्टी जदयू को नहीं. नैतिकता (Morality) का तकाजा था कि 2013 में ‘संघ मुक्त भारत’ का अभियान छेड़ने के लिए राजग से अलग हुए थे तो मुख्यमंत्री का पद त्याग नया जनादेश लेते. 2017 में महागठबंधन, 2022 में राजग और फिर 2024 में महागठबंधन के साथ वैसा ही दोहराया गया. हद यह कि 2020 के जनादेश के बाद दो बार ‘पलायन’ हुआ. उनका यह आचरण राजनीतिक अवसरवाद नहीं तो और क्या है? अन्य की बात छोड़ दें, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) भी उनकी सत्ता-लिप्सा को अपने अंदाज में परोसते रहे हैं. ‘पलटू राम’ उन्हीं का दिया नाम है. 2017 में पलटी मारने के वक्त उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार सांप हैं. हर दो साल पर केचुल बदल लेते हैं. 2022 में उसी लालू प्रसाद के साथ नीतीश कुमार राज्य की सत्ता में आ गये. 2022 में राजग (NDA) से विलगाव के बाद नरेन्द्र मोदी और अमित शाह (Amit Shah) समेत भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने नीतीश कुमार की खूब लानत-मलामत की. आज उसी भाजपा (BJP) के साथ वह शासन चला रहे हैं. क्या इससे उनकी वह छवि खंडित नहीं हो गयी कि उन्हें सत्ता का मोह नहीं है?

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