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मिनी चितौड़गढ़ : होश उड़ा देंगे ये आंकड़े!

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विष्णुकांत मिश्र
09 अप्रैल 2024

Aurangabad : क्या होगा औरंगाबाद में इस बार ? ‘मिनी चित्तौड़गढ़’ का किला ढह जायेगा या आन बान शान में कोई कमी नहीं आयेगी? इस रिपोर्ट में चुनावी आंकड़ों के आधार पर उक्त सवालों का जवाब तलाशा जा रहा है. इस तथ्य से हर कोई वाकिफ है कि 2009 के चुनाव से पहले बिहार के संसदीय क्षेत्रों का स्वरूप भिन्न था. 2008 के परिसीमन में भौगोलिक बदलाव आया तो जाति आधारित सामाजिक समीकरण भी बहुत हद तक बदल गये. चुनावों के परिणाम उसी के अनुरूप आने लगे. 2009 से लेकर 2019 तक तीन चुनाव हुए. उन चुनावों के आंकड़ों का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो 2024 के चुनाव की तस्वीर खुद-ब- खुद उभर कर सामने आ जाती है.

तब भी राजद के हिस्से में था
शुरुआत 2009 के चुनाव से. उस चुनाव में महागठबंधन अस्तित्व में नहीं था. कांग्रेस खुद के बूते अखाड़े में उतरी थी. राजद और लोजपा (Lojpa) में चुनावी तालमेल था. राजपूतों की बड़ी आबादी की वजह से ‘मिनी चित्तौड़गढ़’ की पहचान रखने वाला औरंगाबाद संसदीय क्षेत्र राजद (RJD) के हिस्से में था. मरहूम‌ पूर्व मंत्री शकील अहमद खान (Shakil Ahmad Khan) उसके उम्मीदवार थे. जदयू प्रत्याशी सुशील कुमार सिंह (Sushil Kumar Singh) से 72 हजार 058 मतों से पिछड़ गयेे थे. सुशील कुमार सिंह को 02 लाख 60 हजार 153 मत मिले थे तो शकील अहमद खान को 01 लाख 88 हजार 095 मत.

राजद का सिम्बल ग्रहण करते अभय कुमार कुशवाहा.

शर्मनाक हार
पूर्व सांसद निखिल कुमार (Nikhil Kumar) पहले की तरह कांग्रेस के उम्मीदवार थे. उनके लिए शर्मनाक स्थिति यह रही कि अपने पुश्तैनी गढ़ में 54 हजार 581 मतों में सिमट गये. यही उनकी और कांग्रेस की सम्मिलित औकात थी. इसमें दो मत नहीं कि उन्हें मिले मतों में राजपूतों की ही संख्या अधिक थी. शकील अहमद खान को मुख्यतः राजद समर्थक सामाजिक समूहों – मुस्लिम और यादव समाज के मत मिले. सुशील कुमार सिंह को जदयू (JDU) और भाजपा (BJP) समर्थक सामाजिक समूहों का साथ मिला. त्रिकोणात्मक संघर्ष में बाजी जदयू के हाथ लग गयी.

नहीं बदली स्थिति
2014 में उलटफेर हो सकता था. जदयू तब राजग से अलग स्वतंत्र रूप से चुनाव मैदान में उतरा था. मुकाबले का स्वरूप त्रिकोणीय ही रहा, पर परिणाम अप्रभावित रहा. जदयू को छोड़ सुशील कुमार सिंह भाजपा के उम्मीदवार हो गये. जदयू ने कुशवाहा समाज के बागी कुमार वर्मा पर भरोसा जताया. कांग्रेस (Congress) की उम्मीदवारी फिर से निखिल कुमार को ही मिली. कांटे के मुकाबले में 66 हजार 011 मतों के अंतर से जीत सुशील कुमार सिंह की ही हुई. उन्हें 03 लाख 07 हजार 605 मत मिले. 02 लाख 41 हजार 594 मतों के साथ निखिल कुमार दूसरे स्थान पर रहे. बागी कुमार वर्मा (Bagi Kumar Verma) को 01 लाख 36 हजार 137 मतों से संतोष करना पड़ गया.


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विफल रहा प्रयोग
अब 2019 के आंकड़ों को समझिये. सीधे मुकाबले में भाजपा प्रत्याशी सुशील कुमार सिंह की जीत 70 हजार 552 मतों के अंतर से हुई. उन्हें 04 लाख 27 हजार 721 मत प्राप्त हुए. महागठबंधन में यह सीट‌‌‌ जीतनराम मांझी (Jitanram Manjhi) की पार्टी‌ ‘हम’ के कोटे में थी. उम्मीदवारी‌ दांगी – कुशवाहा समाज के उपेन्द्र प्रसाद (Upendra Prasad) को मिली. राजद और कांग्रेस की ताकत पर 03 लाख 57 हजार 169 मत झटक लेने में वह कामयाब तो रहे, पर राजपूतों का किला ध्वस्त नहीं कर पाये. वैसे, यह अलग बात है कि जीत के लिए सुशील कुमार सिंह को कड़ा संघर्ष करना पड़ा. यहां गौर करने वाली बात है कि वर्णित तीनों चुनावों में संघर्ष के स्वरूप, उम्मीदवारों को मतों की प्राप्ति और हार-जीत के अंतर में लगभग समानता दिखती है. यह क्या दर्शाता है?

परिणाम भिन्न कैसे होगा?
सुशील कुमार सिंह के खिलाफ महागठबंधन ने इस बार भी कुशवाहा समाज से उम्मीदवार उतारा है. जदयू के पूर्व विधायक अभय कुमार कुशवाहा (Abhay Kumar Kushwaha) राजद के प्रत्याशी हैं. विश्लेषकों की नजर में राजग समर्थक सामाजिक समूहों में थोड़ा-बहुत असंतोष के अलावा संसदीय क्षेत्र का राजनीतिक एवं सामाजिक समीकरण और मुकाबले का स्वरूप करीब-करीब वही है जो 2019 में था‌, तो फिर परिणाम उससे भिन्न कैसे हो सकता है? वैसे, मतदाताओं का मिजाज अचानक बदल जाये, तो वह आलग बात होगी.

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