मुंगेर : अशोक महतो ने बजा दी भूमिहार भूमि में…
विशेष संवाददाता
24 जून 2024
Munger : मुंगेर संसदीय क्षेत्र में धानुक बिरादरी की बड़ी आबादी है. भूमिहार के बाद धानुक मतों की ही संख्या अधिक बतायी जाती है. यही बड़ी वजह है कि राजद (RJD) को जब मौका मिलता है तो इसी समाज से उम्मीदवार उतारता है. 2009 में डा. रामबदन राय (Dr. Rambadan Rai) और 2014 में प्रगति मेहता (Pragati Mehta) उसके उम्मीदवार थे. दोनों धानुक समाज से हैं. इस बार की राजद उम्मीदवार कुमारी अनिता (kumari Anita) भी हार और जीत अपनी जगह है.
नहीं थी तब ऐसी आक्रामकता
इस चुनाव में कुछ अलग किस्म का जातीय ध्रुवीकरण हुआ. 2009 और 2014 के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण भी करीब-करीब 2024 जैसे ही थे. लेकिन, तब राजद समर्थक सामाजिक समूहों में आक्रामकता और धानुक-कुर्मी-कुशवाहा मतों में एकजुटता वैसी नहीं हो पायी थी जो इस बार दिखी. ऐसा क्यों और कैसे हुआ तथा इस क्षेत्र की राजनीति में उसका दूरगामी असर क्या पड़ सकता है, यहां उसी की चर्चा की जा रही है.
गाढ़ा हो गया रंग जाति का
मुंगेर संसदीय क्षेत्र की चुनावी राजनीति की गहरी जानकारी रखने वालों की मानें, तो 2009 और 2014 में धानुक- कुर्मी – कुशवाहा समाज पर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की मजबूत पकड़ थी. इन जातियों की पहचान जदयू (JDU) समर्थक सामाजिक समूह की थी. इस कारण 2014 के चुनाव पर जाति का रंग नहीं चढ़ पाया था. 2019 में भी वैसा ही कुछ हुआ था. लेकिन, 2024 में ढुलमुल राजनीतिक चरित्र के चलते नीतीश कुमार की पकड़ ढ़ीली पड़ गयी. परिणामस्वरूप लालू प्रसाद (Lalu Prasad) ने सियासी पाशा फेंका और जाति का रंग गाढ़ा हो गया.
फुस्स हो गयी हवाबाजी
हवाबाजी ऐसी कि जदयू प्रत्याशी राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (Rajiv Ranjan Singh alias Lalan Singh) मुकाबले में कहीं नजर ही नहीं आ रहे थे. लेकिन, वह हवाबाजी परिणाम को प्रभावित नहीं कर पायी. मतदान की तारीख करीब आते-आते फुस्स हो गयी. जातिवाद की हवा कैसे बांधी गयी पहले इसको जानिये. कुमारी अनिता की उम्मीदवारी घोषित होते ही चुनाव के मामले में बेहद अपरिपक्व उनके पति बाहुबली अशोक महतो (Ashok Mahto) ने जातीय दृष्टिकोण से अवसर को अनुकूल मान खूब हाथ-पांव चलाये. जाति- जाति का खेल जमकर खेला.
गणित ‘सौ में सत्तर’ का
क्षेत्र के राजनीतिक एवं सामाजिक हालात को समझे-परखे बगैर ‘सौ में सत्तर’ का गणित सुलझाते हुए खुले तौर पर अगड़ा पिछड़ा की आग सुलगाने की भरदम कोशिश की. इसके बाद भी मंशा फलीभूत नहीं हो पायी. इसलिए कि पिछड़ा एवं अत्यंत पिछड़ा वर्ग के एक हिस्से का साथ नहीं मिला. खासकर उस तबके का जिस पर नीतीश कुमार का प्रभाव और ‘मोदी की गारंटी’ पर भरोसा जमा हुआ है. विश्लेषकों की समझ में अशोक महतो और उनके रणनीतिकारों से प्रारंभ में ही बड़ी चूक हो गयी.
गोलबंदी तब भी हुई
उनके दिमाग में संभवतः यह बात नहीं आयी कि सिर्फ यादव, मुस्लिम और धानुक-कुर्मी-कुशवाहा ही पिछड़ा वर्ग में नहीं हैं. इस वर्ग में और भी जातियां हैं. उन जातियों ने चुनाव में अचानक अवतरित हुईं धानुक समाज की कुमारी अनिता और कुर्मी जाति के उनके पति अशोक महतो के स्वार्थ के लिए अगड़ा पिछड़ा के विवाद में उलझना मुनासिब नहीं समझा. कुर्मी और कुशवाहा मतदाताओं के एक तबके की समझ भी कुछ ऐसी ही रही. इसके बाद भी पिछड़ा वर्ग के मतों की गोलबंदी हुई.
बदल गयी जीत की दिशा
यह गोलबंदी कुमारी अनिता को जीत की राह ले जाती, पर अशोक महतो के अगड़ों, विशेष कर भूमिहारों के खिलाफ आग लगा देने जैसे विष बुझे बोल ने उसकी दिशा बदल दी. यह कहें कि ऐसा कर अशोक महतो ने अपने और कुमारी अनिता के पांव में खुद कुल्हाड़ी मार ली, तो वह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. जदयू प्रत्याशी ललन सिंह की अकड़ और अहंकार को लेकर जितना गुस्सा दूसरी जातियों में था उससे कई गुणा अधिक, यूं कहें कि ‘अबकी बार निश्चित हार’ की सीमा तक स्वजातीयों में था.
राजनीतिक अपरिपक्वता
अशोक महतो आक्रामक अंदाज में अगड़ा पिछड़ा की भावना नहीं भड़काते, हड़काने के अंदाज में भूमिहारों को नहीं ललकारते तो कुमारी अनिता को जीत के लिए ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ता, भूमिहारों का गुस्सा ही ललन सिंह की मुंगेर की राजनीति की कब्र खोद देता. पर, अशोक महतो की रणनीतिक अपरिपक्वता ने भूमिहार मतदाताओं में एकजुटता ला हार के मुहाने से लौटा ललन सिंह को केन्द्रीय मंत्रिमंडल (Union Cabinet) का हिस्सा बना दिया. हालांकि, पूर्व के चुनावों की तरह इस बार ललन सिंह की बड़ी जीत नहीं हुई. तब भी जीत तो जीत ही होती है.
मुकम्मल साथ मिला
2019 के 05 लाख 28 हजार 762 की तुलना में 21 हजार 384 मत अधिक यानी 05 लाख 50 हजार 146 मत हासिल करने के बाद भी ललन सिंह 80 हजार 870 मतों के अंतर से ही जीत पाये. कुमारी अनिता को राजद समर्थक सामाजिक समूहों का मुकम्मल साथ मिला. स्वजातीय धानुक समाज का भी. मल्लाहों के भी अधिसंख्य मत मिले. अन्य पिछड़ी जातियों और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के भी, पर जीत दिलाऊ संख्या में नहीं. यही वजह रही कि सीधे संघर्ष में ललन सिंह का पसीना छुड़ा देने के बाद भी वह 04 लाख 69 हजार 276 पर अटक 80 हजार 870 मतों से मात खा गयीं.
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अधिक मत मिले राजद को
2019 में महागठबंधन (grand alliance) की कांग्रेस उम्मीदवार नीलम देवी (Neelam Devi) को 03 लाख 60 हजार 825 मतों की प्राप्ति हुई थी. इस बार महागठबंधन की राजद उम्मीदवार कुमारी अनिता को उनसे 01 लाख 09 हजार 451 अधिक मिले. ललन सिंह के मतों में धानुक- कुर्मी – कुशवाहा समाज के मतों के घटाव और बिदके भूमिहार मतों के जुड़ाव से हिसाब बराबर माना जा सकता है. 2019 की तुलना में राजद को भूमिहार मतों के घटाव के बाद 01 लाख 50 हजार के आसपास जो अतिरिक्त मत मिले, निश्चित तौर पर वे धानुक- कुर्मी व कुशवाहा समाज के ही हैं.
दिखी संगठित ताकत
बहरहाल, परिणाम जो आया हो, पिछड़ा समाज ने परिसीमन के बाद वाले मुंगेर संसदीय क्षेत्र में पहली बार अपनी संगठित ताकत दिखायी है. विश्लेषकों की समझ में ऐसी ही एकजुटता बनी रही तो औरंगाबाद के ‘मिनी चित्तौड़गढ़’ की तरह अगले चुनाव में भूमिहारों का यह गढ़ भी ध्वस्त हो जा सकता है.
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