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नागार्जुन और तरौनी : यही है गोढ़िया पोखर!

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जन कवि नागार्जुन की जयंती पर तापमान लाइव की खास प्रस्तुति की यह तीसरी किस्त है :

अश्विनी कुमार आलोक

03 जुलाई 2024

मंदिर (Temple) में घूम-टहलकर हम मलियाही (Maliahi) अर्थात मल्लाहों के गांव में रुक गये. ‘वरुण के बेटे’ (Varun’s son) में नागार्जुन (Nagarjuna) ने जिस गोढ़िया पोखर (Godhiya Pokhar) का उल्लेख किया है, यह वही पोखर था. तरौनी गांव (Tarauni village) से कोई चार किलोमीटर दक्षिण. ‘वरुण के बेटे’ के पात्र खुरखून और मोलो इसी गोढ़िया पोखर में मछलियां मारते थे, जाड़े की रात में नंगे बदन ठिठुरते हुए. गोढ़िया पोखर आज भी कई सौ बीघे में विस्तृत है, किसी नदी की तरह. पोखर के तट पर काली, शिव और हनुमान के मंदिर हैं. पंचायत के मुखिया की ओर से बना एक सामुदायिक भवन और एक चबूतरा भी है. आसपास गोढ़ी जाति के लोगों की घनी बस्ती है. बड़े से पीपल वृक्ष के नीचे करीब दो दर्जन लोग दोपहर की धूप से बचने के लिए बैठे हुए थे. उनके जाल धूप में सूख रहे थे. वे या तो खैनी लगा रहे थे या लेटकर एक-दूसरे से बातें कर रहे थे. कुछ लोग ताश भी खेल रहे थे.

नहीं जानता नागार्जुन को

हमने कुछ स्त्रियों से बातें शुरू की-‘आप लोगों को काम करने के लिए आपके पुरुष विवश तो नहीं करते?’ वे पुरुषों के विरोध में बोलने को हुईं, तो एक वृद्धा ने रोक दिया-‘अखबार में छाप देंगे.’ वे सहमकर चुप हो गयीं. हमें स्त्रियों से बातें करते हुए देखा, तो एक पुरुष मुखातिब हुआ. यह कम विदग्धकारी घटना नहीं कि जिस गोढ़ियों (godhis) के जीवनों की कथा ‘वरुण के बेटे’ लिखकर नागार्जुन बड़े उपन्यासकार के रूप में समादृत हुए थे, उनमें से कोई नागार्जुन को नहीं जानता था. लाली सहनी, जोगेश्वर महतो जैसे अनेक लोगों से हमने नागार्जुन के विषय में पूछा, परंतु निराशा ही हाथ लगी. उन ‘वरुण के बेटों’ के अब के जीवन की ओर जिज्ञासा प्रकट की.

नागार्जुन का अकेला स्मारक

नागार्जुन के ‘वरुण के बेटे’ आज भी दीन-हीन हैं. वे अबाल-वृद्ध काम करते हैं, तब भी उनके जीवन में परिवर्तन की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती. ‘वरुण के बेटे’ रेहू, कतला और विकेट मछलियां लेकर सहरसा, पूर्णिया और कटिहार तक व्यापार करने चले जाते हैं. मखाना भी छानते-बेचते हैं. इसके बावजूद इनके पास आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाएं नहीं आ पायी हैं. हम पुनः नागार्जुन के घर पहुंच गये. श्यामाकांत (Shyamakant) आ चुके थे. उन्होंने बताया कि नागार्जुन के प्रसिद्ध उपन्यास ‘बाबा बटेश्वर नाथ’ (Baba Bateshwar Nath) का वटवृक्ष काटकर ही सामुदायिक भवन बनवाया गया है. उसी के परिसर में नागार्जुन की एक प्रतिमा स्थापित की गयी है. समूचे तरौनी में नागार्जुन का यह अकेला स्मारक है. इसके अतिरिक्त एक संस्कृत कालेज.

यही सड़क जाती है तरौनी.

बचा हुआ है पैतृक घर

नागार्जुन का पैतृक घर अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. कुछ साल पूर्व भयानक बाढ़ में घर का आधा हिस्सा गिर पड़ा था. उस हिस्से का पुनर्निर्माण कराया गया, श्यामाकांत उसी घर में रहते हैं. नागार्जुन के कुल चार बेटे हुए, जिनमें से अकेले श्यामाकांत गांव में रह पाये. शेष बेटों के नाम सुकांत, (Sukant) शोभाकांत (Shobhakant) और श्रीकांत (Srikanth) है. सुकांत पटना में पत्रकारिता करते थे, चल बसे. शोभाकांत दरभंगा के लहेरियासराय में प्रकाशन-व्यवसाय से जुड़े थे. श्रीकांत दिल्ली में रहते हैं. नागार्जुन की दो बेटियां हैं. एक बेगूसराय में पत्रकार अग्निशेखर की पत्नी हैं, दूसरी उड़ीसा में रहती हैं. तरौनी में उनके घर के सामने एक बड़ा-सा पोखर था, वह आज भी है. कभी उसकी पूर्वी सीढ़ियों पर नागार्जुन बैठा करते थे, स्थानीय लोग आज भी उसमें स्नान करते हैं.

अधूरी हैं अपेक्षाएं

तरौनी विकास की आधुनिक सीढ़ियां नहीं चढ़ पाया. संस्कृत कालेज के अतिरिक्त यहां हरिश्चन्द्र संस्कृत उच्च विद्यालय, संस्कृत प्राथमिक-सह-मध्य विद्यालय एवं दो अन्य प्राथमिक विद्यालय हैं. यहां एक सरकारी अस्पताल खोला तो गया था, लेकिन उसे बचाया न जा सका. वह श्रीकृष्ण मंदिर परिसर में संचालित था, अब विश्वनाथपुर गांव (Vishwanathpur village) में ले जाया गया है. सड़कें जर्जर हैं, जल निकासी और कृषि प्रबंध के क्षेत्र की अपेक्षाएं भी अधूरी हैं. वर्षों से ग्रामीणों ने एक आशा बांध रखी थी कि नागार्जुन का जन्मस्थल होने के कारण तरौनी गांव को साहित्यिक तीर्थ घोषित करते हुए सरकार इसे प्रखंड का दर्जा दे देगी, लेकिन ग्रामीण अब इस ओर से भी निराश हो चुके हैं.


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छलावा साबित हुई घोषणाएं

वर्ष 2004 में राबड़ी देवी (Rabri Devi) की सरकार ने तरौनी को प्रखंड बनाने की घोषणा भी की थी. लेकिन, सरकारी घोषणाएं अनेक बार छलावा साबित होती हैं. नागार्जुन पुस्तकालय (Nagarjuna Library) का भवन वर्ष 1993 में तत्कालीन जिलाधिकारी अमित खरे (Amit Khare) ने बनवाया था. उसका संचालन वर्ष 2000 में आरंभ तो हुआ, लेकिन अब वह कई वर्षों से बंद है. बेनीपुर के तत्कालीन विधायक अब्दुलबारी सिद्दीकी (Abdulbari Siddiqui) ने इस पुस्तकालय के संचालन के लिए 50 हजार रुपये दिये थे. उस रुपये से फर्नीचरों एवं पुस्तकों की खरीद हुई थी. पुस्तकालय के संचालन के लिए बेनीपुर के एसडीओ और बीडीओ को क्रमशः पदेन अध्यक्ष और सचिव बनाया गया था. लेकिन, वे चला नहीं सके. तब कुछ स्थानीय साहित्यकारों की पहल पर नागार्जुन के पुत्र श्यामाकांत को पुस्तकालय का अध्यक्ष बनाया गया.

फिर नहीं खुला ताला

कुछ दिनों तक पुस्तकालय चला. लेकिन, उसमें ताला लग गया, तो फिर खुला नहीं. मधुबनी के तत्कालीन सांसद भोगेन्द्र झा (Bhogendra Jha) ने निजी कोष से नागार्जुन की प्रतिमा इसी पुस्तकालय परिसर में स्थापित की थी. लेकिन, उस पर एक स्थानीय व्यक्ति ने वर्ष 2014 में आधिपत्य जमा लिया. इधर, सरकार के स्तर से नागार्जुन महोत्सव (Nagarjuna Festival) आयोजित हुआ जो औपचारिकताओं में सिमटा रहा. इतना अवश्य हुआ कि इसी बहाने पुस्तकालय और स्मारक का रंग-रोगन हो गया.

चौथा किस्त :

नागार्जुन और तरौनी 4
अन्याय के विरुद्ध
साहित्य रचना

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