नागार्जुन और तरौनी : हें हए, के बनबौलक अछि बीच बाध में जोड़ा मंदिर?
जन कवि नागार्जुन की जयंती पर तापमान लाइव की खास प्रस्तुति की यह दूसरी किस्त है :
अश्विनी कुमार आलोक
02 जुलाई 2024
अभी नागार्जुन (Nagarjuna) के घर से हम एक किलोमीटर दूर थे. सड़क यह आभास दिलाने लगी थी कि बाजार की चमक का सौभाग्य प्राप्त करना गांव के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. सड़क के दोनों ओर घर भले थे, पर घनत्व नहीं था. आम के बगीचों में पुराने पत्तों का अकेलापन बिखर चुका था. बिना फलवाले पेड़ों ने संभवतः यह मान लिया था कि उनके होने या न होने से लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता, वे सिर्फ आकाश की ऊंचाइयों की ओर कुछ फुट ऊंचाई पर अपनी सीमा में सिमटकर खड़े थे. लेकिन, इन्हीं पेड़ों में जीवन के बाद भी बचे रहने का कोई चिह्न स्थूल रूप में खड़ा था, ‘जोड़ा मंदिर’ (Joda Mandir) .
मंदिर पर कविता
सुशांत कुमार (Sushant Kumar) ने बताया कि इसी मंदिर पर नागार्जुन की एक लंबी मैथिली कविता (Maithili Poems) है, जो उनकी पुस्तक ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ (leafless Naked Tree) में छपी है. हमारे लिए उस कविता का स्मरण करना आवश्यक हो गया, क्योंकि तरौनी (Tarauni) के प्रवेश द्वार पर उपेक्षित निर्जन आम्रवन में किसने और क्यों खड़ा किया. ‘जोड़ा मंदिर’? नागार्जुन ने भी इसी प्रश्न से इस कविता की शुरुआत की थी.
कच्ची सड़कक कातहि में
देखल लगे लग छोट छौन जोड़ा मंदिर
पुछलियई घसबाहिन कें
हें हए, के बनबौलक अछि
बीच बाध में जोड़ा मंदिर?
उठा कं खुर्पी समेत दाहिनां हाथ
ओम्हरे इंगित करैत
बाजल भुटिआघबहिनी
थापित भेल छनि ओई ठमा पीड़ी
भोकर राउत आ मुंगिया माइकेर
बूढ़ा-बूढ़ीक सारा पर
ठाढ़ क दलकनि ए बेटा जोड़ा मंजिल
धन्न ओहेन माय-बाप
धन्न एहेन पूत
एक रत्ती भ गेलहूं ध्यानस्थ ठाढ़े-ठाढ़
झुका लेल माथ
भोकर राउत आ मुंगिया माइ केर स्मृति में
माता-पिता की स्मृति में
समूची कविता न पढ़ी गयी, तब न तो तरौनी की ओर बढ़ी हुई आपकी निगाह को अपेक्षित संतोष मिल पायेगा, न नागार्जुन से आप संवेदना के स्तर पर जुड़ सकेंगे. नागार्जुन अनेक भाषाओं के ज्ञाता रहे, पर उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन और मैथिली में यात्री नाम से प्रचुर लेखन किया. समूचे देश में नागार्जुन को उनकी कविताओं और औपन्यासिक रचनाओं से जाननेवाले लोग बिहार के मिथिलांचल (Mithilanchal) को लेकर दूर ही से स्पष्ट धारणा बनाने में सफल रहे. अधिकार, अपेक्षा और उत्तरदायित्व की रचनाओं के निर्द्वन्द्व एवं निष्पक्ष रचनाकार (impartial creator) नागार्जुन के गांव के मुहाने पर खड़ा यह ‘जोड़ा मंदिर’ भोकर राउत (Bhokar Raut) एवं मुंगिया माई (Mungia Mai) का मंदिर है. इसे उनके पुत्र सरजुग राउत (Sarjug Raut) ने 8 सितंबर 1958 को उनकी स्मृति में बनवाया था.
‘जोड़ा मंदिर’ का महत्व
अपने माता-पिता की स्मृति को मूर्त्त रूप में जीवित रखने की इच्छा वाले और लोग तरौनी गांव में कितने हैं? आप पूछेंगे, तो पूछना निरर्थक जायेगा. यात्री ने यह कविता एक प्रकार से उन्हीं दिनों लिखकर व्यंग्य प्रहार किया था. पूर्वजों के प्रति अनुदार होती नयी पीढ़ी सिर्फ तरौनी गांव में निजता में नहीं संकुचित हुई, नये समय में संवेदना को ग्रहण लगने की यह लीला हर तरफ दिख रही है. जोड़ा मंदिर के सद्भाव को हमने स्थानीय मूर्तिपूजा (Mortipooja) परंपरा से देखकर जोड़ने की कोशिश की. सुशांत कुमार के पास इतिहास (History) एवं मूर्तिकला (Mortikala) की विशेषज्ञता है, उन्होंने बताया-‘भारतीय परंपरा में मूर्तिपूजा नहीं है. गांधार कला (Gandhara Art) और मथुरा कला (Mathura Art) से कनिष्क के समय मूर्ति पूजा का विकास हुआ. गौतम बुद्ध (Gautam buddha) के समय से मूर्तियां बनायी जाने लगीं.’ अर्थात भारत में पिंड पूजा की परंपरा-रक्षा के लिहाज से भी ‘जोड़ा मंदिर’ महत्वपूर्ण है.
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प्राथमिक पाठशाला
आगे बांयी ओर वही प्राथमिक पाठशाला दिखी, जहां नागार्जुन ने प्राथमिक कक्षाएं पढ़ी थीं. कुछ दूर आगे दाहिनी ओर नागार्जुन पुस्तकालय (Nagarjuna Library) है, सामुदायिक भवन (Community building) के परिसर में. हम पहले नागार्जुन के घर से हो लेना चाहते थे. इसलिए, रुके नहीं. नागार्जुन का घर हर कोई जानता था. एक अर्द्वनिर्मित भवन के परिसर में एक स्त्री कुछ बच्चों को पढ़ा रही थीं. वह नागार्जुन की पुत्रवधू थीं, उनके सबसे छोटे पुत्र श्यामाकांत (Shyamakant) की पत्नी. सुशांत कुमार की मामी लगीं.
मल्लाहों का गांव
लेकिन, श्यामाकांत नेहरा बाजार (Nehra Bazaar) गये थे. तय यह हुआ कि हमलोग भी नेहरा बाजार से घूम आयें. नेहरा बाजार जाने के दो कारण थे. एक तो वहीं नागार्जुन की उपन्यास-रचना ‘वरुण के बेटे’ (Varun’s son) की पृष्ठभूमि थी- मल्लाहों का गांव (sailors village) , दूसरा कारण था. वहां के मंदिर में संरक्षित आठ-नौ सौ साल पुरानी सूर्य (Sun) और विष्णु (Vishnu) की प्रतिमाएं देखना. सुशांत कुमार को प्रतिमाओं के अध्ययन में रुचि थी, डा. महेश चंद्र चौरसिया (Dr. Mahesh Chandra Chaurasia) और मुझे तो नागार्जुन को रचनेवाले उन परिवेश, पृष्ठभूमि और मौलिक प्रवर्तनों को देखना था, जिनकी बदौलत नागार्जुन समूचे देश में निश्शंक जनकवि की छवि लेकर चमके.
तीसरी किस्त :
नागार्जुन और तरौनी
यही है गोढ़िया पोखर!
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