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मन्नीपुर की भगवती : किसी सिद्धपीठ से कम नहीं!

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अश्विनी कुमार आलोक

04 अक्तूबर 2024

समस्तीपुर (Samastipur) जिले के वारिसनगर प्रखंड में एक गांव है मन्नीपुर. इसमें संशय नहीं कि मन्नीपुर मणिपुर का अपभ्रंश है. लेकिन, इस गांव के नामकरण और दूसरे ऐतिहासिक पहलुओं के संदर्भ में किसी की कोई उत्सुकता नहीं दिखायी देती. मन्नीपुर (Mannipur) सिर्फ माई स्थान के लिए प्रसिद्ध है. माई स्थान, अर्थात भगवती दुर्गा के मातृरूप का आध्यात्मिक स्थल. सड़क मार्ग से समस्तीपुर की ओर बढ़ने पर पर्यटन विभाग के जो बोर्ड लगाये गये हैं, उनमें मन्नीपुर मंदिर (Tample) की दूरी का उल्लेख किया गया है. इसका अर्थ है कि पर्यटन विभाग की सूची में इस मंदिर को सम्मिलित किया गया है. किंतु पर्यटन विभाग (Tourism Department) के द्वारा मंदिर के विकास और स्वरूप संवर्द्धन की दिशा में कोई प्रयास किया गया हो, ऐसी कोई सूचना नहीं मिलती.

पूजा-अर्चना से मिल जाती हैं नौकरियां!

मंदिर में श्रद्धालुओं का आना-जाना दिन भर लगा रहता है. इधर के दिनों में मंदिर में नौजवानों की आवाजाही बढ़ी है. एक नयी मान्यता यह मजबूत हो रही है कि यहां आकर पूजा-अर्चना करने वाले युवकों को नौकरियां मिल जाती हैं. यहां प्रतियोगिता-परीक्षाओं में शामिल होने वाले युवक अपने परीक्षा प्रवेश पत्र की छायाप्रति दुर्गा को समर्पित करने आते हैं. कहते हैं कि एडमिट कार्ड की प्रति सौंपकर जाने वाले युवकों को नौकरियां मिल जाती हैं. मन्नीपुर मंदिर में विराजमान देवी दुर्गा (Devi Durga) की पूजा करने के लिए श्रद्धालु दूर दूर से आते हैं. माना जाता है कि सच्चे मन से देवी के प्रति आस्था और विश्वास व्यक्त करने वाले लोगों की इच्छाएं पूर्ण होने में विलंब नहीं होता. इसीलिए इस मंदिर को मनोकामना मंदिर (Manokamna Mandir) भी कहा गया है.

डेढ़ सौ साल पुराना है इतिहास

मन्नीपुर मंदिर का इतिहास करीब डेढ़ सौ साल पुराना है. उन दिनों देश में रह-रहकर महामारियां फैल जाती थीं. हैजा, प्लेग और स्वाइन फ्लू से लोग मरते रहते थे. सरकारी तौर पर इन महामारियों के रोकथाम के लिए किये जाने वाले प्रयास सफल नहीं हो पा रहे थे. कुछ टीकों का ईजाद भी कर लिया गया था, परंतु अंग्रेजी हुकूमत के दिनों में आम आदमी तक उनकी पहुंच सुगम नहीं थी. गरीबी और भुखमरी अलग से दुरूखी किये हुए रहती थी. ऐसे में एक मात्र ईश्वर कृपा का ही आसरा था. उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फैली वैसी ही किसी महामारी से इस मंदिर की स्थापना-कथा का संबंध बताया जाता है. स्थानीय लोगों का मानना है कि उस महामारी के काल में देवी की कृपा से जान माल का नुकसान पूरी तरह थम गया था.

हो गया था हैजा महामारी का अंत

किंवदंती है कि क्षेत्र में कोई सिद्ध पुरुष निवास करते थे. वह ब्रह्मचारी थे. देवी दुर्गा के भक्त थे, उनका संपूर्ण जीवन उपासना को समर्पित था. उनका नाम ब्रह्मचारी रामखेलावन दास बताया गया है. उन्होंने अपने निवास स्थान के समीप देवी की एक पिंडी की स्थापना कर रखी थी. वह उसकी पूजा-अर्चना किया करते थे. जब क्षेत्र में हैजा महामारी फैली और लोग त्राहि-त्राहि करने लगे, तो ब्रह्मचारी रामखेलावन दास ने देवी का ध्यान किया. देवी स्वप्न में आयीं और उन्होंने लोक कल्याण के लिए रामखेलावन दास की चिंता की सराहना की. देवी ने कहा कि वह उनकी पिंडी की पूजा (Pindi Puja) पूर्वाभिमुख होकर करें. दूसरे दिन से रामखेलावन दास देवी दुर्गा की पूजा पूर्वाभिमुख होकर करने लगे. देखते-देखते क्षेत्र में हैजा महामारी का अंत हो गया. तब से रामखेलावन दास की आराध्य देवी दुर्गा सार्वजनिक विश्वास और आस्था का केंद्र बन गयीं.


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स्वस्थ हो गया विक्षिप्त पुत्र

लंबे समय तक देवी के पिंडी स्वरूप की ही पूजा होती रही. इसी बीच ब्रह्मचारी रामखेलावन दास का शिष्यत्व वासुदेव नारायण ने ग्रहण किया. वह मन्नीपुर से सटे हुए गांव दौलतपुर (Daulatpur) के निवासी थे. बताया जाता है कि वह साल 1857 था. वासुदेव नारायण ने पूजा का क्रम नहीं टूटने दिया. उन्हीं दिनों देवी की आराधना में मायावती देवी नामक एक स्त्री भी जुट गयीं. वह रामकिशुन सिंह की विधवा थीं. उनका एक ही पुत्र था,वह भी विक्षिप्त. माता की कृपा से उनका पुत्र स्वस्थ हो गया. मायावती देवी ने मंदिर के नाम पर एक कट्ठा अठारह धुर जमीन दान कर दी. बाद में वासुदेव नारायण ने भी अपनी ओर से मंदिर के नाम एक भूखंड लिख दिया.

अयोध्या से बुलाये गये थे पंडित

उसके बाद मंदिर में भगवती की मूर्ति स्थापित की जाने लगी. इस मूर्ति को तीन वर्षों तक पूजा जाता था और फिर मलमास के समय विसर्जित कर दिया जाता था. वासुदेव नारायण ने काशी (Kashi) और अयोध्या (Ayodhya) के पंडितों को भी अनेक बार मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हेतु आमंत्रित किया था.1934 में वासुदेव नारायण के प्रयास से मंदिर निर्माण का जो कार्य शुरू हुआ था, उसे अब भव्य रूप में देखा जा सकता है. स्थानीय लोगों के अतिरिक्त दूर-दूर से आते श्रद्धालुओं ने इसमें आगे बढ़कर अपना सहयोग किया है. आज भी निर्माण कार्य का विस्तार हो रहा है.

कुछ नहीं किया पर्यटन विभाग ने

मंदिर की सुरक्षा और उसके नियमन के लिए स्थानीय लोगों के अनुरोध पर 2013 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास पर्षद ने उसे अधिग्रहित कर लिया. 5 जुलाई 2016 को इसके परिसर का नव निर्माण भी पूरा हुआ और इसे बिहार सरकार की पर्यटन सूची (Tourist list) में सम्मिलित भी कर लिया गया. परंतु, पर्यटकों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर पर्यटन विभाग ने कोई निर्माण कार्य नहीं कराया, इससे स्थानीय लोगों में नाराजगी है. समस्तीपुर के पुराने और श्रद्धा पूरित मंदिरों में प्रमुख मन्नीपुर का यह देवी मंदिर (Devi Mandir) श्रद्धालुओं (Devotees) की दृष्टि में किसी सिद्धपीठ (Siddhapeetha) से कम नहीं. यहां मनोकामनाएं (Wishes) पूरी होने की अनेक घटनाएं किंवदंती (Legend) के रूप में कही सुनी जाती हैं.

(यह आस्था और विश्वास की बात है. मानना और न मानना आप पर निर्भर है.)

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