आरक्षण : विचार अब इस पर हो
अविनाश चन्द्र मिश्र
17 मई 2023
PATNA : सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण (Reservation) का क्या होगा? कायम रहेगा या खत्म हो जायेगा? देश की शीर्ष अदालत (Supreme Court) केन्द्र सरकार के इस कानून की वैधानिकता की विवेचना कर रही थी, पक्ष-विपक्ष में तर्क और तथ्य रखे जा रहे थे, सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों की टिप्पणियां सार्वजनिक हो रही थीं, तब ये सवाल हर भारतीय मानस को मथ रहे थे. कारण स्पष्ट है. आरक्षण के इस मुद्दे से सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक (Political) सरोकार और समीकरण जुड़े हैं. समाज के एक अतिवादी तबके को नीम की तरह यह तीता लग रहा है. शीर्ष अदालत के 3ः2 के बहुमत के खंडित फैसले से ही सही, 10 प्रतिशत आरक्षण की वैधानिकता संपुष्ट हो गयी.
न्यायोचित नहीं कहा
शीर्ष अदालत ने संविधान में हुए इस आशय के संशोधन को ‘संसद की सकारात्मक कार्रवाई’ माना. सर्वसम्मत फैसला होता तो, अगर-मगर की गुंजाइश नहीं बचती. खंडित फैसला से विमर्श और विवाद को विस्तार मिला. पुनर्विचार याचिकाओं के जरिये मामला फिर से शीर्ष अदालत में पहुंच गया. विरोध का तर्क यह कि इससे शीर्ष अदालत द्वारा ही खींची गयी 50 प्रतिशत की ‘लक्ष्मण रेखा’ का उल्लंघन होता है. अनुसूचित जाति (Scheduled Caste), अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) और पिछड़ा वर्ग (Backward Class) के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को इसके दायरे से बाहर रखना न्यायोचित नहीं है. समानता के अधिकार के विरुद्ध है.
सरकार का पक्ष
यह भी कि संविधान में आरक्षण का आधार सामाजिक आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन है, सिर्फ आर्थिक पिछड़ापन नहीं. आर्थिक आधार पर आरक्षण के प्रयास को शीर्ष अदालत एक बार नहीं, कई बार असंवैधानिक बता निष्फल कर चुकी है. इसके बरक्स केन्द्र सरकार (Central Government) इस बात को दुहराती रही है कि यह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग को पूर्व से मिल रहे आरक्षण को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करता है, 50 प्रतिशत की ‘लक्ष्मण रेखा’ को भी नहीं लांघता है. उससे अलग यह नयी व्यवस्था है. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को इस वजह से इससे जोड़ा नहीं जा सकता कि उन तबकों को पहले से जातिगत आरक्षण मिल रहा है. शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई की. तीन न्यायाधीशों (Judges) ने केन्द्र सरकार के तर्कों और तथ्यों को सही माना.
पुनर्विचार याचिकाएं खारिज
परन्तु, तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित (U. U. Lalit) एवं एस रविन्द्र भट (Ravindra Bhatt) ने असहमति जतायी. इन दोनों का कहना रहा कि यह संविधान प्रदत्त आरक्षण की मूल अवधारणा के खिलाफ है, अवैध और भेदभावपूर्ण है. इससे सामाजिक ताना-बाना कमजोर पड़ जा सकता है. उनके मुताबिक देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग का है. उनमें असंख्य गरीब हैं. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण से उन्हें वंचित रखना भेदभाव है. संभवतः इसी को आधार बना शीर्ष अदालत में तीस से अधिक पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल हुईं. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूड़ (D Y Chandrachud) की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 10 प्रतिशत आरक्षण को फिर से संविधान सम्मत बता पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया.
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औचित्य पर सवाल
सामान्य वर्ग (General Class) के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के हितों पर छायी धुंध छंट गयी है. अब संविधान पीठ के सदस्य न्यायाधीश जे बी पारदीवाला (J B Pardiwala) और न्यायाधीश बेला त्रिवेदी (Bela Trivedi) की आरक्षण के लिए समय सीमा की जरूरत से संबंधित टिप्पणी पर अमल करने की जरूरत है. अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, उनकी टिप्पणी से इसके औचित्य पर सवाल खड़ा हो जाता है. न्यायाधीश बेला त्रिवेदी का कहना रहा – ‘आजादी के 75 साल बाद आरक्षण की व्यवस्था पर फिर से विचार की जरूरत है.’ न्यायाधीश जे बी पारदीवाला ने कहा-‘संविधान बनाने के समय डा. भीम राव अम्बेदकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) का विचार था कि आरक्षण केवल 10 साल तक रहे. परन्तु, यह आजादी के 75वें साल में भी जारी है. गैर बराबरी दूर करने के लिए आरक्षण कोई अंतिम समाधान नहीं है. इसे समाप्त करने पर भी विचार होना चाहिये.’
पूरा होता नहीं दिख रहा
न्यायाधीश जे बी पारदीवाला का यह कथन इस दृष्टि से काफी महत्व रखता है कि जिस मकसद से संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया, मुकम्मल रूप में वह पूरा होता नहीं दिख रहा है. यह सुविधा कुछ मुट्ठियों में कैद है. इन वर्गों का सामान्य तबका हाशिये पर ही कुढ़ और कराह रहा है. आरक्षण का उद्देश्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अतिपिछड़ा वर्ग के लोगों पर जातिगत व्यवस्था में हुए सामाजिक अन्याय को सुधारना-मिटाना और सामान्य वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना था. लेकिन, आजादी के 75 साल बाद भी वैसा नहीं हुआ. इस सुविधा पर इन वर्गों की दबंग जातियां काबिज हो गयी हैं. कमजोर जातियां पूर्व की तरह उपेक्षित हैं. ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है? विचार अब इस पर हो. आरक्षित सामाजिक समूहों के वंचित वर्गों को उनका संविधान प्रदत्त हक नहीं मिलना, आरक्षण की प्रासंगिकता को सवालों के घेरे में तो लाता ही है.
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