बात द्विज जी कीः बहुत कुछ बयां कर रही हैं ढनमनायी भित्तियां
बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों , जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है और न वंशजों को. ‘शैली सम्राट’ के रूप में चर्चित राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की साहित्यिक विरासत की उपेक्षा को उजागर करने के बाद अब पं. जनार्दन प्रसाद झा द्विज की स्मृति के साथ परिवार, समाज और सरकार के स्तर से जो अवांछित व्यवहार हो रहा है उस पर दृष्टि डाली जा रही है. संबंधित किस्तवार आलेख की यह दूसरी कड़ी है :
अश्विनी कुमार आलोक
10 अगस्त 2023
गांव की ओर नहीं लौटने के दोषी वस्तुतः जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ (Janardan Prasad Jha ‘Dvij’) अपने विद्यार्थी जीवन के मित्र, प्रसिद्ध राजनेता और साहित्यकार लक्ष्मीनारायण सुधांशु (Laxminarayan Sudhanshu) के बुलावे पर पूर्णिया कालेज में प्रधानाचार्य बनकर गये थे और कालेज द्वारा दी गयी जमीन में ही बस गये थे. द्विज जी की कुल दस संतानें प्रायः उसी जमीन पर बने घर में ही पलीं-बढ़ीं, अब तो उनमें से अधिकांश इस दुनिया में हैं भी नहीं. तब कौन आये-जाये! द्विज जी के पौत्र-प्रपौत्र तो अब पूर्णिया भी छोड़ चुके हैं, दिल्ली (Delhi), मुम्बई (Mumbai) में रहकर कमाते-खाते हैं. हां, पं. जनार्दन प्रसाद झा द्विज के पुश्तैनी घर की ढही-ढनमनायी हुईं भित्तियां आज भी खड़ी-पड़ी हैं. परंतु, उन्हें अपनी भग्न अवस्था का न तो कोई एहसास है और न ही उन तक पहुंचकर किसी ने उनका हाल-समाचार जानने की चेष्टा की.
नाम तक नहीं जानते!
पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के भाइयों के वंशज यहां रह रहे थे. अब उनमें से भी अधिकांश यहां नहीं रहते. मनमोहन चौेधरी देवघर (Deoghar) अवस्थित नवोदय विद्यालय में उप प्रधानाचार्य हैं, गांव आते रहते हैं. पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के साहित्य पर इन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय (Bhagalpur University) में शोध प्रबंध ‘द्विज जी की कहानियों का संरचनात्मक अनुशीलन’ प्रस्तुत कर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी, डा. बहादुर मिश्र के निर्देशन में. डा. मनमोहन चौधरी (Dr. Manmohan Chowdhary) ही अकेले इस गांव में व्यक्ति हैं, जिन्हें द्विज जी के नाम और काम पर गर्व होता है. वह कुछ वर्षों से द्विज जी की जन्मतिथि 24 जनवरी को साहित्यिक आयोजन करने लगे हैं.
मानवता का मेल नहीं
जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के भग्न घर की ओर झांकने वाले लोगों के पास यदि हृदय हो, तो उनके स्वर अनायास उन्हें अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करने लगते हैं. ये स्वर वही हैं, जिनकी रचना अपनी प्रसिद्ध कविता में जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ ने की थी-
देव! गजब देखो यह अपनी
दुनिया बदल गयी पलभर में
‘अश्रु-यज्ञ’ की धूम घटा से
हाहाकार मचा अंबर में
ये है हहर रहा धरणी का
भय प्रकंप भीषण भूधर में
त्राहि-त्राहि सुन, सिसक रही है
बंधी विवशताएं घर-घर में
यह न ज्योति उस मधुर अनल की
जिसमें जीवन स्वर्ग दमकता
बन बिजली इस अंधकार में
यह तो कोई प्रलय चमकता
बड़ी जलन है इस ज्वाला में
जलना कोई खेल नहीं है
इधर देखता हूं करुणा से
मानवता का मेल नहीं है.
मुख पर विद्या का तेज
पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का जीवन घोर गरीबी, अभाव और संत्रास का जीवन था. वह हिन्दी और अंग्रेजी के उद्भट विद्वान थे. गंभीर थे, परंतु चिंतित नहीं रहते थे. उनके मुख पर विद्या का तेज चमकता था, संतोष की स्मिति बिखरी हुई रहती थी. वह जब बोलने लगते थे, तो बिना सोचे किसी विषय पर गंभीर व्याख्यान देते थे. पूर्णिया (Purnea) के कैलाशनाथ तिवारी ने वर्षों पूर्व अपने संपादन में ‘पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ स्मृति तर्पण’ नामक पुस्तक प्रकाशित करायी थी. उस पुस्तक में द्विज जी के शिष्य रहे ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के प्राध्यावक पं. रामाकांत पाठक का एक आलेख प्रकाशित है ‘बहुत बोलकर बोल चुका’. रामाकांत पाठक ने द्विज जी की भाषणकला के विषय में लिखा है कि 1937 में मुंगेर (Munger) के हवेली खड़गपुर में हिन्दी साहित्य के हुए सम्मेलन में द्विज जी का अभिभाषण सुनकर डा. श्रीकृष्ण सिंह स्तब्ध रह गये थे.
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अस्वीकार कर दिया
डा. श्रीकृष्ण सिंह (Dr. Shrikrishna Singh) ने द्विज जी से निकटता बढ़ाने की कोशिश की थी, परंतु स्वाभिमानी पुरुष के लिए राजनीति के रसायन की क्या कीमत! रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) और लक्ष्मीनारायण सुधांशु के प्रस्तावों को भी द्विज जी ने अस्वीकार कर दिया था. परंतु, इस घटना के महज एक साल बाद अर्थात 1938 में पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ ने रामपुरडीह को छोड़ दिया था. क्या पता कि घर छोड़कर पूर्णिया में जा बसे पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ उसके बाद कितनी बार इधर आये-गये. इतने वर्षों बाद घर की यदि यह स्थिति है, तो स्वाभाविक ही है.
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