उपचुनाव : बेलागंज की जंग, बदल रहा रंग
राजकिशोर सिंह
11 नवम्बर 2024
Gaya : बेलागंज (Belaganj) के उपचुनाव (by-election) में क्या होगा? राजद सांसद सुरेन्द्र प्रसाद यादव (Surendra Prasad Yadav) का यह मजबूत किला ढह जायेगा या विरोधियों को फिर मुंह की ही खानी पड़ जायेगी? जदयू (JDU) और जन सुराज (Jan Suraj) ने राजद (RJD) के खिलाफ जो अलग- अलग मोर्चाबंदी कर रखी है उससे तकरीबन 34 वर्षों से अंगद के पांव की तरह जमे राजद के पांव उखड़ जायेंगे या उन्हें और मजबूती मिल जायेगी? ये सवाल राजनीतिक हलकों में जवाब तलाश रहे हैं. सुरेन्द्र प्रसाद यादव बेलागंज से1998 के उपचुनाव को छोड़ 1990 से 2020 तक लगातार निर्वाचित होते रहे हैं. 1998 में उपचुनाव उनके जहानाबाद (Jehanabad) से सांसद बन जाने के कारण हुआ था.
काफी मजबूत है ‘माय’ समीकरण
उपचुनाव में राजद की उम्मीदवारी महेश सिंह यादव (Mahesh Singh Yadav) को मिली थी. जीत हासिल करने में उन्हें भी कोई कठिनाई नहीं हुई थी. अभी का उपचुनाव भी सुरेन्द्र प्रसाद यादव के जहानाबाद से ही सांसद निर्वाचित होने के कारण हो रहा है. सुरेन्द्र प्रसाद यादव की बेलागंज की चमकदार विरासत संभालनेे की जिम्मेवारी विश्वनाथ कुमार सिंह (Vishwanath Kumar Singh) को मिली है. विश्वनाथ यादव के नाम से ज्यादा चर्चित विश्वनाथ कुमार सिंह सांसद सुरेन्द्र प्रसाद यादव के पुत्र हैं. राजद की उम्मीदवारी उन्हें ही मिली है. बेलागंज में मुस्लिम-यादव (माय) समीकरण काफी मजबूत है. क्षेत्र की चुनावी राजनीति पर गहन नजर रखने वालों के मुताबिक 75 हजार के आसपास यादव मत हैं तो तकरीबन 70 हजार मुस्लिम मत. इन मतों की एकजुटता सुरेन्द्र प्रसाद यादव के बेलागंज में अपराजेय रहने का मुख्य आधार है.
विश्वनाथ यादव संभालेंगे विरासत!
एक बार लोजपा और दो बार जदयू ने मुस्लिम उम्मीदवार उतार उनके इस जनाधार में सेंध लगाने की भरसक कोशिश की, अच्छी संख्या में मतों की प्राप्ति के बाद भी कामयाबी नहीं मिली. 2015 में एनडीए (NDA) में रहते ‘हम’ (Ham) ने भी मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था. कोई फर्क नहीं पड़ा. पर, यादव और मुस्लिम उम्मीदवार के मैदान में रहने से इस बार परिस्थितियां बदली हुई दिख रही हैं. सुरेन्द्र प्रसाद यादव का खूंटा कितना मजबूत है उसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि वह आठ बार यहां से विधायक (vidhayak) निर्वाचित हुए हैं. पहली जीत उन्हें 1990 में मिली थी और आखिरी 2020 में. उनकी इस विरासत को विश्वनाथ यादव संभाल पाते हैं या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा.
चुनाव मैदान में मनोरमा देवी
एनडीए में पूर्व की तरह यह सीट जदयू के हिस्से में है. उसने पूर्व विधान पार्षद मनोरमा देवी (Manorama Devi) पर दांव खेला है. बेलागंज के मैदान में पहली बार उतरीं मनोरमा देवी भी यादव समाज से हैं. दो बार विधान पार्षद रह चुकी हैं. 2003 में निर्दलीय निर्वाचित हुई थीं. 2009 में पराजित हो गयीं. 2015 में जदयू उम्मीदवार के तौर पर जीत हुई. तब जदयू महागठबंधन का हिस्सा था. इसका लाभ उन्हें मिला था. 2020 के चुनाव में मनोरमा देवी को इसी जिले के अतरी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया गया था. राजद उम्मीदवार अजय कुमार (Ajay Kumar) से पार नहीं पा सकीं. 23 हजार 963 मतों के भारी अंतर से परास्त हो गयीं.
छवि है काफी विवादास्पद
मनोरमा देवी के दिवंगत पति बिन्देश्वरी प्रसाद यादव (Bindeshwari Prasad Yadav) उर्फ बिन्दी यादव की दबंगता भी उस दौर में कहर बरपाती थी. एक बार वह गया जिला परिषद का अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे. 2005 में निर्दलीय और 2010 में राजद के उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा का चुनाव भी लड़े थे. सफलता नहीं मिली थी. जिला परिषद (jila Parishad) की उनकी राजनीति छोटे भाई शीतल प्रसाद यादव संभाल रहे हैं. गया के बहुचर्चित रोडरेज कांड को लेकर सुर्खियों में रहने वाले राकेश रंजन उर्फ रॉकी यादव की मां मनोरमा देवी की छवि भी काफी विवादास्पद है. पति जैसी दबंगता तो नहीं है, पर रुतबा उनसे थोड़ा भी कम नहीं है.
पहली बार कड़ी चुनौती
पीछे की जेल यात्रा से जुड़ीं बातों को छोड़ दें तो इधर कुछ दिनों पूर्व ही मनोरमा देवी के गया स्थित आवास पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का छापा पड़ा. करोड़ों रुपये के साथ कुछ हथियार भी बरामद हुए. नक्सलियों से जुड़ाव की बातों का दुहराव भी हुआ. लोग हैरान हैं कि इसके बाद भी नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने उन्हें बेलागंज के मैदान में उतार दिया. खैर, यह सब अलग मुद्दा है, मनोरमा देवी की उम्मीदवारी से सुरेन्द्र प्रसाद यादव के पुत्र विश्वनाथ यादव को स्वजातीय यादव मतों में बिखराव के रूप में कड़ी चुनौती मिलती दिख रही है. विश्लेषकों का मानना है कि मनोरमा देवी यादवों के 25 प्रतिशत मत भी बटोर लेती हैं, तो फिर राजद की खटिया खड़ी हो जा सकती है.
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कुर्सियां तक चल गयीं
उधर, जन सुराज पार्टी ने भी ठोस इंतजाम के तहत मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उतार रखा है. इस पार्टी ने पहले अवकाश प्राप्त प्राध्यापक प्रो खिलाफत हुसैन (Prof. Khilafat Hussain) को उम्मीदवार बनाया था. उनकी पहचान इतनी भर है कि वह गया के बहुचर्चित मिर्जा गालिब कालेज (Mirza Ghalib College) में गणित के विभागाध्यक्ष थे. उनकी उम्मीदवारी की घोषणा का प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) की मौजूदगी में जबर्दस्त विरोध हुआ था. कुर्सियां तक चली थीं. तत्काल तो नहीं, दो दिनों के बाद प्रो खिलाफत हुसैन ने उम्मीदवारी वापस कर दी.
कमतर नहीं कहा जा सकता
अमजद मुखिया के नाम से चर्चित उसी मोहम्मद अमजद को जन सुराज पार्टी ने उम्मीदवार बना दिया है जिनके समर्थकों ने प्रो. खिलाफत हुसैन की उम्मीदवारी के खिलाफ मुट्ठियां लहरायी थी. वैसे, चाकंद के समीप के बारा गांव के रहनेवाले मोहम्मद अमजद में दम है. वह अपनी ग्राम पंचायत का मुखिया रहे हैं. पूर्व में बेलागंज से तीन बार चुनाव लड़ चुके हैं. फरवरी 2005 में लोजपा तथा अक्तूबर 2005 और 2010 में जदयू उम्मीदवार के तौर पर. तीनों चुनावों में उन्हें अच्छी-खासी संख्या में मत मिले थे. हालांकि, 2015 और 2020 में वह चुनाव से अलग रहे. इसके बावजूद कमतर नहीं माना जा सकता है.
मुस्लिम मतों में लग गयी सेंध तब?
उधर, सांसद असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की पार्टी एमआईएम (mim) ने जामिन अली हसन (jamin ali hassan) को मैदान में उतारा है. ये और मोहम्मद अमजद राजद के मुस्लिम जनाधार में सेंध लगाने में सफल होते हैं, तो फिर सांसद सुरेन्द्र प्रसाद यादव के पुत्र राजद उम्मीदवार विश्वनाथ यादव की संभावनाएं सिमट जा सकती है. बेलागंज के जातीय समीकरण की बात करें तो यादवों और मुसलमानों की बड़ी आबादी तो है ही, तकरीबन 30 हजार मतों की संख्या रखने वाले कुशवाहा और दांगी भी परिणाम के रुख को मोड़ने की हैसियत रखते हैं. पचास हजार के आसपास सवर्ण और करीब 60 हजार दलित मत हैं. सवर्ण, वैश्य और अतिपिछड़ा मतों की भी अच्छी खासी संख्या है. बहरहाल, मुकाबला त्रिकोणीय- चतुष्कोणीय दिख रहा है. पर, अंत में यह जदयू और राजद के बीच सीधी लड़ाई में तब्दील हो जाये तो वह चौंकने-र्चाैकाने वाली कोई बात नहीं होगी.
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