धर्मपुर की दुर्गा माई : दो सौ सालों की है अटूट आस्था!
सीमा
05 अक्तूबर 2024
Samastipur : जिले के मोहिउद्दीननगर (Mohiuddinnagar) प्रखंड में एक गांव है धर्मपुर(Dharmpur). कथा करीब दो सौ बीस वर्ष पहले की है. धर्मपुर निवासी नाई रक्कट भगत अपनी बेटी की ससुराल गये. उनकी बेटी बेगूसराय (Begusarai) जिले के तेघड़ा (Teghra) प्रखंड के लखनपुर (Lakhanpur) गांव में रहती थी. रात्रि में जब वह सो रहे थे, तो उन्होंने एक स्वप्न देखा. मां दुर्गा (Maa Durga) अपने को ले चलने की बात उनसे कह रही थी. उन्होंने कहा, मां! मैं एक गरीब नाई हूं. मेरे पास अपने रहने की जगह नहीं, मैं आपको कहां रखूंगा. इस पर मां बोली, ‘मैं फूल के रूप में तुम्हें मिलूंगी. तुम्हारे साथ चलूंगी.’
लोग मजाक उड़ाने लगे
नींद खुलने पर रक्कट भगत ने देखा कि उनके सिरहाने एक फूल पड़ा था. उन्होंने फूल को कुर्ते की जेब में रखा और चुपचाप बेटी के घर से अपने गांव की तरफ चल पड़े. गांव आकर जब लोगों को अपने सपने की बात बतायी तो लोग उनका मजाक उड़ाने लगे. रक्कट भगत (Rakkat Bhagat) फूल को अपने घर के ताखे पर रखकर दिनचर्या में लग गये. दो दिनों बाद रात्रि में गांव की हर गली में रोने के स्त्री स्वर सुनाई देने लगे. इस आवाज से लोग भयभीत रहने लगे. लोग चिंता में पड़ गये कि जगत जननी शक्ति स्वरूपा या किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई पड़ रही है! माता अपने भक्तों को अपने होने का एहसास करा रही थीं.
विराजमान हो गयीं मां दुर्गा
इस प्रकार रोने की आवाज सुनकर हजाम रक्कट भगत अपने फूस के घर के एक कोने में माता की पूजा करने लगे. कुछ वर्षों बाद गांव वालों ने मिलकर मिट्टी के गहबर का निर्माण किया, उसी में पूजा शुरू हुई. गांव में जहां सभी के घर मिट्टी और फूस के थे, वहीं गांव के एक जमींदार जगदीश सिंह के पिताजी ने अपना घर बनाने के लिए मिट्टी की ईंट का निर्माण करवाया. ग्रामीणों ने विरोध जताते हुए कहा, ‘माता का घर मिट्टी का है और आप ईंट के घर में रहेंगे?’ गांव वालों के तर्कपूर्ण विरोध के कारण जगदीश सिंह जी के पिताजी ने सारी ईंटें मंदिर को दान कर दी. 1805 ई. में ईंट और खपड़े से मां के मंदिर का निर्माण हुआ. धर्मपुर में मां दुर्गा के विराजमान होने से गांव के लोग सुखी और संपन्न होने लगे.
मन्नतें पूरी करती हैं मां
जो सच्चे मन से मन्नत मांगता, मां उसकी मन्नतें पूरी करतीं. गांव की एक पुत्रविहीन (Sonless) स्त्री ने मन्नत मांगी. अगले वर्ष ही उसकी गोद भर गई. उसे बालक का नाम तपेश्वर सिंह (Tapeshwar Singh) रखा गया. बालक बड़ा होकर होनहार और तेजस्वी हुआ. उसने जब अपने जन्म की कथा सुनी, तो धर्मपुर वाली माई (Dharampur wali Mai) की भक्ति से ओत-प्रोत हो उठा और अपनी मेहनत की कमाई से धर्मपुर वाली माई के मंदिर के खपड़ों को हटाकर लकड़ी और ईंट की बनवा दी. तब से माता के प्रति लोगों की आस्था अटूट होती गयी. मान्यता है कि उनकी महिमा अपरंपार है. समय-समय पर अन्य भक्तों ने भी मंदिर बनाने में सहयोग किया. ऐसे भक्तों में रामबालक सिंह, रामबाबू सिंह, लालबाबू सिंह आदि की प्रमुख भूमिका रही है.
अद्भुत और चमत्कारी घटनाएं
मंदिर निर्माण की भी अद्भुत और चमत्कारी घटनाएं हैं. कहते हैं सन् 1850 में तपेश्वर सिंह निर्मित लकड़ी-ईंट की छत जब ध्वस्त होने लगी, तो रामबालक सिंह द्वारा सुरखी चूने से ढलाई करवायी गयी, जो लगभग, 120 वर्षों तक क़ायम रही. लम्बे समय बाद मंदिर जब क्षतिग्रस्त हो टूटने लगा, तो गांव वालों ने मंदिर मरम्मती के लिए एक बैठक बुलाई. इस पर गांव के ही रामबाबू सिंह अड़ गये और उन्होंने जिद ठान ली कि मंदिर की मरम्मत (Repair) नहीं होगी, बल्कि इसका पुर्ननिर्माण (Reconstruction) होगा. मंदिर नए सिरे से बनाने में पैसों की कमी आड़े आ रही थी. सारी दुनिया जिन्हें जगत जननी कहती है, वह अपने भक्तों से कैसे कार्य करवा लेती है, इसका एक जीवन्त उदाहरण देखिए.
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ऐसे बना भव्य मंदिर
बैठक के दूसरे ही दिन रामबाबू सिंह मंदिर में संकल्प लेकर मौन व्रत पर बैठ गए. ग्रामीण रामबालक सिंह के नाती उत्तर प्रदेश निवासी लाल बाबू सिंह को मां ने स्वप्न में मंदिर बनाने के लिए आदेश दिया. उनके पास पैसे नहीं थे. फिर भी वे अपने घर से चल पड़े और माता की प्रेरणा से मंदिर में आकर संकल्प लिया, मंदिर बनाने का. ठीक उसी दिन उनके व्यवसाय में कई करोड़ का ठेका मिला और 2001 में मंदिर बनकर तैयार हो गया. लोगों का कहना है कि मोहिउद्दीननगर ब्लॉक के आस-पास के गांव में सबसे पहले धर्मपुर वाली मैया की पूजा शुरू हुई, उसके बाद ही अन्य शक्ति स्थान की स्थापना हुई.
अद्भुत है मूर्ति का स्वरूप
मोहिउद्दीननगर निवासी झखरी पंडित 10 पुस्तों से मां के विग्रह को एक रूप में ही बनाते आ रहे हैं. मां की मूर्ति भव्य और अजीबोगरीब रूप-आभा लिये होती है. इनकी चमत्कारी कथाएं इतनी हैं कि छोटे से लेख में लिखना असम्भव जान पड़ता है. इनकी मूर्ति का स्वरूप अद्भुत है. अन्य शक्ति स्थानों में यहां की मूर्ति की नकल किये जाने पर बड़ी-बड़ी घटनाएं हुईं. मूर्तिकार ही बेहोश हो जाता और मां धर्मपुर वाली के मंदिर में आने के बाद ही स्वस्थ हो पाता है, ऐसी मान्यता है. मां की प्रतिमा की ऊंचाई 162 इंच होती है, जिन्हें तीन इंच से ज्यादा नहीं उठाया जा सकता.
चालू हो गयी बलि प्रथा
विसर्जन के समय बड़े-बड़े पहलवान भी ऊंचा उठाने की कोशिश कर हार गए. पर मां की मूर्ति 3 इंच से ज्यादा नहीं उठाई जा सकी. वर्तमान में मूर्ति कलाकार सुरेंद्र पंडित हैं, जो झखरी पंडित के वंशज हैं. अभी भी रक्कट भगत के वंशज यहां माता की पूजा-आराधना करते हैं. वर्तमान पुजारी कालेश्वर ठाकुर हैं जो मैथिली पद्धति (Maithili Method) से वर्ष में दो बार पूजा करवाते हैं. अष्टमी की रात्रि को निशा पूजन के बाद खोंइछा भरने का प्रावधान है एवं बलि प्रथा प्रचलित है. 2016 से 2020 तक यहां बलि प्रथा बंद रही, लेकिन फिर बलि प्रथा चालू हो गई.
धर्मपुर के पास हैं अन्य मंदिर
माता के मंदिर से कुछ दूरी पर एक ठाकुरबारी है, जिसकी स्थापना 1960 में देवनारायण सिंह के भाई हेमदास द्वारा की गई थी. उन्होंने सारी संपत्ति ठाकुरबारी को दान कर दी थी. मंदिर में राम-सीता, लक्ष्मण एवं हनुमान जी तथा राधा-कृष्ण की पूजा होती है. धर्मपुर से 2 किलोमीटर पूर्व मनियर गांव में भी एक शक्ति स्थान है जिसकी स्थापना धर्मपुर के दुर्गा मंदिर की स्थापना के कुछ ही दिनों बाद हुई थी.
दर्शनीय स्थलों में एक
माता धर्मपुर वाली का विसर्जन दसवीं के रोज ही मंदिर से 200 मीटर की दूरी पर स्थित तालाब में किया जाता है. 1805 में स्थापित यह दुर्गा स्थान बिहार (Bihar) के दर्शनीय स्थलों (Sightseeing Spots) में से एक है, यहां भक्तों की सभी कामनाएं पूरी होती हैं. हर धर्म के लोग अपनी मन्नत लेकर माता की शरण में आते हैं और मन्नत पूरी होने पर खुशी-खुशी अपने घर जाते हैं.
(यह आस्था और विश्वास की बात है. मानना और न मानना आप पर निर्भर है.)
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