उपचुनाव : अबकी बार तरारी में आर-पार, जमीन ढूंढ़ रहा जन सुराज
राजकिशोर सिंह
12 नवम्बर 2024
Ara : भोजपुर जिले के तरारी (Tarari) विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव (by-election) में भाजपा (BJP) और भाकपा-माले (CPI-ML) के बीच आमने-सामने का मुकाबला है. हालांकि, जन सुराज (Jan Suraj) पार्टी भी अखाड़े में है, पर उम्मीदवार चयन को लेकर हुई असहज स्थिति से उसकी चमक धुंधली हो गयी-सी दिखती है. मतदाता सूची में नाम नहीं रहने से चुनाव लड़ने का अवसर गंवा बैठे लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिंह (S K Singh) की जगह सामाजिक कार्यकर्ता किरण सिंह (Kiran Singh) को जन सुराज पार्टी की उम्मीदवारी मिली है. किरण सिंह इसी विधानसभा क्षेत्र के विशुनपुरा (Vishunpura) गांव की रहने वाली हैं. इमादपुर (Imadpur) थाना के ठीक सामने उनका घर है. पति वीरेन्द्र कुमार सिंह का धनबाद (Dhanbad) कोयला क्षेत्र में कारोबार है. एनजीओ भी चलाते हैं.
है बहुत बड़ा नेटवर्क
कहते हैं कि राजपूत जाति की किरण सिंह का भी कई एनजीओ (NGO) है. महिला सशक्तीकरण और शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं. बहुत बड़ा नेटवर्क है. इन सब के बावजूद तरारी विधानसभा क्षेत्र के लिए वह अपरिचित-अनजान थीं. जन सुराज पार्टी की उम्मीदवारी मिली तब लोगों ने उन्हें इस रूप में जाना और पहचाना. लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ था. किरण सिंह हर दृष्टि से सक्षम-समर्थ हैं, परन्तु परिणाम को शायद ही अपने अनुकूल कर पायेंगी. जन सुराज पार्टी के रणनीतिकार जमीनी स्तर पर पूरा जोर लगा रहे हैं.
लगातार चार बार हुई जीत
अब कुछ इतिहास की बात. तरारी पहले पीरो (Piro) विधानसभा क्षेत्र था. 2008 के परिसीमन में विलोपित हो गया. तरारी विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आ गया. बाहुबली छवि के नरेन्द्र कुमार पांडेय उर्फ सुनील पांडेय (Sunil Pandey) ने पहली बार 2000 के चुनाव में पीरो से जीत हासिल की थी. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की समता पार्टी (Samata Party) के उम्मीदवार के तौर पर. फरवरी 2005 और अक्तूबर 2005 में उनकी जीत का दोहराव- तिहराव हुआ. 2010 में नवसृजित तरारी विधानसभा क्षेत्र में भी जदयू (JDU) उम्मीदवार के रूप में उनकी जीत हुई. वह उनकी लगातार चौथी जीत थी. इससे सामान्य नजर में वह अपराजेय हो गये थे.
दुर्भाग्य ही था सुनील पांडेय का
परन्तु, 2015 में जदयू नेतृत्व ने उनके पर कतर दिये. संदिग्ध गतिविधियों को आधार बना उम्मीदवारी से वंचित कर दिया. सुनील पांडेय लोजपा (LJP) से जुड़ गये. खुद मैदान में नहीं उतर पत्नी गीता पांडेय (Geeta Pandey) को उम्मीदवार बनवा दिया. लोजपा तब एनडीए का हिस्सा थी. सुनील पांडेय का दुर्भाग्य देखिये, त्रिकोणीय मुकाबले में गीता पांडेय 372 मतों के मामूली अंतर से मात खा गयीं. जीत भाकपा-माले के सुदामा प्रसाद (Sudama Prasad) की हुई. सुदामा प्रसाद को मिले 44 हजार 050 मतों के मुकाबले गीता पांडेय को 43 हजार 778 मत ही मिल पाये. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डा. अखिलेश प्रसाद सिंह (Dr. Akhilesh Prasad Singh) भी चुनाव मैदान में थे. सामान्य समझ में 40 हजार 957 मत हासिल कर उन्होंने भाकपा-माले की जीत का मार्ग प्रशस्त कर दिया. वर्तमान में भाकपा-माले के साथ कांग्रेस (Congress) भी महागठबंधन में है.
इसलिए नहीं बनाया उम्मीदवार
2020 में भी बहुत कुछ 2015 के चुनाव जैसा ही हुआ. तब के राजनीतिक हालात के मद्देनजर लोजपा ने सुनील पांडेय को नकार दिया. पत्नी गीता पांडेय को दोबारा चुनाव नहीं लड़ा सुनील पांडेय खुद निर्दलीय मैदान में उतर गये. भोजपुर के वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र सिंह को जो जानकारी है उसके मुताबिक गीता पांडेय को उम्मीदवार इसलिए नहीं बनाया गया कि वह बचरी कालेज में कार्यरत हैं. 2020 में एनडीए में भाजपा की उम्मीदवारी भूमिहार समाज के कौशल कुमार विद्यार्थी (Kaushal Kumar Vidyarthi) को मिली. मुकाबले में वह कहीं टिक नहीं पाये.13 हजार 833 मतों पर अटक जमानत गंवा बैठे.
पुत्र को मिली भाजपा की उम्मीदवारी
नरेन्द्र कुमार पांडेय उर्फ सुनील पांडेय की भिड़ंत भाकपा-माले के सुदामा प्रसाद से हुई. 11 हजार 015 मतों से वह पिछड़ गये. उनकी खुद की यह पहली हार थी. सुदामा प्रसाद को 73 हजार 945 और सुनील पांडेय को 62 हजार 930 मत प्राप्त हुए. आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में एनडीए की उम्मीदवारी सुनील पांडेय को मिली होती तो परिणाम शायद कुछ और निकलता. उपचुनाव में भाजपा की उम्मीदवारी हाल ही में पार्टी में शामिल हुए सुनील पांडेय के पुत्र विशाल प्रशांत (Vishal Prashant) उर्फ सुशील पांडेय को मिली है.
अनुभव है चुनाव लड़ने का
उपचुनाव में महागठबंधन (grand alliance) में तरारी की सीट पूर्व की तरह भाकपा-माले के हिस्से गयी और उम्मीदवारी राजू यादव (Raju Yadav) को मिली है. राजू यादव चुनावी राजनीति के कोई नया खिलाड़ी नहीं हैं. युवाओं, मजदूरों और किसानों के हित में संघर्ष का वह हिस्सा रहे हैं. दो बार लोकसभा और दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ने का अनुभव भी रखते हैं. 2010 में उन्हें बड़हरा (Badhara) विधानसभा क्षेत्र से भाकपा-माले की उम्मीदवारी मिली थी. वह उनका पहला चुनाव था. उस चुनाव में राजद के राघवेन्द्र प्रताप सिंह (Raghavendra Pratap Singh) का सामना नहीं कर पाये, मुंह की खा गये. 2015 में संदेश (Sandesh) विधानसभा क्षेत्र में राजद के ही अरुण कुमार यादव से शिकस्त मिली.
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गति तब उससे अलग नहीं होती
2020 में भाकपा-माले महागठबंधन का हिस्सा था. उनके लिए गुंजाइश नहीं बन पायी. 2014 और 2019 में राजू यादव को आरा संसदीय क्षेत्र से भाकपा-माले की उम्मीदवारी मिली थी. दोनों ही बार पराजय का मुंह देखना पड़ गया था. विश्लेषकों के मुताबिक 2024 में उम्मीदवारी मिलती तो गति उससे अलग नहीं होती. भाकपा-माले ने वैश्य बिरादरी के सुदामा प्रसाद पर दांव खेला, बाजी हाथ लग गयी. सुदामा प्रसाद तरारी से विधायक थे. सांसद निर्वाचित होने के बाद उन्होंने विधानसभा की सदस्यता त्याग दी. उपचुनाव इसी वजह से हो रहा है.
विकास भी रहता है एक मुद्दा
2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में जीत और 2024 के संसदीय चुनाव में तरारी में मिली बढ़त के आधार पर भाकपा-माले को मजबूत स्थिति में माना जा सकता है. महागठबंधन का हिस्सा रहने के कारण सामाजिक समीकरण भी अनुकूल प्रतीत होता है. पर, यहां गौर करने वाली बात है कि तरारी में विकास भी एक मुद्दा हुआ करता है. विकास के मोर्चे पर भाकपा-माले को फिसड्डी माना जा रहा है. महत्वपूर्ण बात यह भी कि बिहार के चुनावों में मतों का धु्रवीकरण यादव बनाम गैर यादव के रूप में भी हुआ करता है. भाकपा-माले के प्रति समर्पित मतों में ऐसी भावना आमतौर पर नहीं होती है, पर जाति के नाम पर मिलने वाले मत तो इधर-उधर हो ही जाते हैं.
इस पर निर्भर है भाजपा का भविष्य
विश्लेषकों की मानें, तो तरारी में दो चुनावों में सुदामा प्रसाद की जीत हुई तो उसमें वैश्य बिरादरी के मतों की अहम भूमिका थी. सुदामा प्रसाद इसी बिरादरी की हलवाई जाति से हैं. राजू यादव को भी इस बिरादरी के मत मिलेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. वे मत भाजपा की ओर मुखातिब हो जा सकते हैं. विशाल प्रशांत की संभावना को मजबूती इससे भी मिलती है. वैसे, जन सुराज पार्टी की किरण सिंह को मतों के रूप में क्या कुछ हासिल होता है, भाजपा का भविष्य उस पर भी निर्भर करेगा.
जातीय समीकरण
जातीय समीकरण की बात करें, तो तरारी भूमिहार बहुल है. इस बिरादरी के लगभग 75 हजार मत हैं. 40 हजार के आसपास ब्राह्मण और 25 हजार के करीब राजपूत मत हैं. जाति की राजनीति में रुचि रखने वालों के मुताबिक 35 हजार यादव, 25 हजार मुस्लिम, 30 हजार वैश्य, 20 हजार कुशवाहा और 50 हजार के आसपास अन्य पिछड़ा एवं अतिपिछड़ा समाज के अनुमानित मत हैं. दलित समाज के मत भी 50 हजार के आसपास रहने की बात कही जाती है. इस क्षेत्र में मतों की गोलबंदी आमतौर पर अगड़ा बनाम पिछड़ा के रूप में होती है. इस बार भी वैसा हुआ, तो परिणाम का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.
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