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हाल-बेहाल : जयप्रकाश नारायण के सपनों को अपनों ने रौंदा!

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डा. के के कौशिक
08 फरवरी 2024

कभी किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि तब की कांग्रेसी हुकूमत की अंधेरगर्दी और वंशवाद के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण (Loknayak Jaiprakash Narayan) के नेतृत्व में शोलों की शक्ल में खौल उठे नौजवानों का खून (Blood) इतना ठंडा पड़ जायेगा कि वे सिद्धांतों में आग लगा स्वार्थ की रोटी सेंकने लगेंगे. जिस जयप्रकाश नारायण ने कभी चिमटे से भी सत्ता छूने की कोशिश नहीं की और सिंहासन को अपने ख्वाब तक में नहीं आने दिया, आज उन्हीं के अनुयायी सत्ता की खातिर ऐसी घिनौनी हरकतें कर रहे हैं जिसकी दूसरी मिसाल मिलनी मुश्किल है. और तो और इसके लिए सियासी घात-प्रतिघात का शर्मनाक खेल खेलने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं. कभी जनता के पक्षधर बन उनके सरोकारों के लिए सड़कों पर उतरे नेताओं (Leaders) में जो सत्ता पर काबिज होते रहे हैं उनके द्वारा मचायी गयी घुड़दौड़ से बिहार (Bihar) का कलेजा हिलता रहा है. इतना ही नहीं, जनता (Public) को ठगने और उसके सूने पड़े आकाश (Sky) में आश्वासनों की पतंगें उड़ाने से भी ये बाज नहीं आ रहे हैं.

खेल खुदगर्जी का
यह कहने में कोई हिचक नहीं कि 1974 के छात्र आंदोलन (Student Movement) और बाद में जयप्रकाश नारायण कि ‘संपूर्ण क्रांति’ (Sampoorna Kranti) की अग्रिम पंक्ति के धुरंधर ‘सिद्धांतवादी आंदोलनकारी’ सत्ता के लिए आज खुदगर्जी का अनिष्टकारी खेल खेल रहे हैं. इससे सियासत शर्मसार है. कल तक एकजुट रहकर एक वर्ग विशेष को तरह-तरह से शूल चुभोनेवाले जतिवादी राजनीति (Politics) के ये चतुर महारथी चुनाव (Election) की आहट होते ही आरक्षण (Reservation) को फिर से बड़ा मुद्दा बनाने का उपक्रम कर रहे हैं. पर, 34 वर्षों से सिर्फ सत्ता के लिए लगातार हो रही इस राजनीति में अब ‘आरक्षित वर्ग’ के लोगों की भी कोई खास रुचि नहीं रह गयी है. प्रस्तुत है इन बदले हालात का हिस्से-हिस्से में हिसाब करती दो किस्तों की विशेष रिपोर्ट का यह पहला हिस्सा है:

जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख योद्धा: लालू प्रसाद, शरद यादव और नीतीश कुमार.

जर्द पड़ गये हर पत्ते
पहला पन्ना छात्र आंदोलन से जुड़े उन महारथियों का खोलते हैं, जिन्होंने उसकी पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय (National) ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय (International) ख्याति पायी. नयी पीढ़ी के लिए यह जानने की बात है कि वंशवाद के खात्मे के लिए क्रांतिकारी बनकर चले थे ये महारथी. जब सत्ता इनके हाथ में आ गयी तो इन्होंने (कुछ को छोड़) खुद वंशवाद की ऐसी हवा चलायी कि देशभर के राजनीतिक (Political) पेड़ों के हर पत्ते जर्द पड़ गये. 1974 के छात्र आंदोलन (Student Movement) से राजनीति का सफर प्रारंभ करनेवाले अनेक बड़े नेताओं ने तमाम हदें पार कर दी. खुद तो सत्ता में भागीदार बनते ही रहे, बेटे-बेटियों और अन्य रिश्तेदारों को भी हिस्सेदारी देने से नहीं चूके. ‘को बड़ छोट कहत अपराधू.’


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कानाफूसी से निकली चिन्गारी
कांग्रेस (Congress) शासनकाल में पंडित जवाहर लाल नेहरू (Pt. Jawahar Lal Nehru) के निधन के कुछ समय बाद इन्दिरा गांधी (Indira Gandhi) प्रधानमंत्री (Prime Minister) बनी थीं. यही वह समय था जब जनता में कानाफूसी होने लगी थी कि देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है. इसी कानाफूसी से निकली चिन्गारी 1974 में लहक उठी. ऐसी कि देखते ही देखते 1977 में लगभग संपूर्ण उत्तर भारत (North India) से कांग्रेस का सफाया हो गया. आंदोलन में कितने ही मासूम छात्रों की जानें गयीं. अनगिनतों के अंग-भंग हो गये और देश के जेलों में छात्र ठसा-ठसा भर दिये गये. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जयप्रकाश आंदोलन की कोख से निकले कई नेता जब राजनीति के आकाश पर नक्षत्र की तरह जगमगाने लगे, तब भूल गये कि वंशवाद और भ्रष्टाचार के खात्मे तथा सत्ता-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए जनता ने उन्हें अपनी तकदीर सौंपी है.

बिखर गया समरस समाज
सत्ता के मद में चूर कभी के ‘क्रांतिकारी’ रहे इन महारथियों ने भी कमोबेश अंधकार भरे उन्हीं रास्तों पर सरपट दौड़ लगा दी जिस पर चल कर कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. इसका गहरा असर दिखायी पड़ने लगा. भ्रष्टाचार जहां का तहां खड़ा ही नहीं रहा, उसकी जड़ें काफी गहराई तक जम गयीं. कानून-व्यवस्था और भी बदतर हो गयी. सामाजिक समरसता के नाम पर जातिवाद का ऐसा जहर बो दिया गया कि देखते ही देखते समाज टूटकर कई हिस्सों में बिखर गया. यह सब ‘संपूर्ण क्रांति’ की विफलता के तुरंत बाद के दौड़ की बात है. रही सही कसर तकरीबन डेढ़ दशक बाद बिहार में लालू प्रसाद के नेतृत्व में बनी गैर कांग्रेसी सरकार ने पूरी कर दी.

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