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‘… रेणु को देखा था, नाच -गान करते थे…’

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बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार ग्रामीण शब्दावलियों से संपन्न आंचलिक कथा साहित्य के अप्रतिम शैलीकार फणीश्वरनाथ रेणु की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. वैसे, अन्य साहित्यकारों की तुलना में फणीश्वरनाथ रेणु की स्थिति थोड़ा भिन्न है. कृति और स्मृति को सम्मान प्राप्त है. संबंधित किश्तवार आलेख की यह पहली कड़ी है:

अश्विनी कुमार आलोक
07 मार्च 2024
स युवती ने मेरी ओर देखकर लज्जाभाव से मुस्कुरा दिया. मैंने उसके पानीदार चेहरे से नजर हटायी. जैसे कहीं अलग देखना चाह रहा था, धोखे से उसे देख लिया हो. फिर भी, अपना आशय प्रकट किया. ‘रेणु को खोजने आये हैं, आप जानती हैं?’ उसने अपनी कमर से टोकरी नीचे रखकर गाय को सानी दी और कहा, ‘छियै. नटुआ छलै.’ मैं आश्चर्य चकित होकर उसे देखता रहा. फिर अपने साहित्यिक मित्रों के साथ आगे बढ़ गया. उस गांव के बच्चे हमारे पीछे ऐसे लगे थे, जैसे कोई मदारी खेल दिखाने का लोभ देकर बच्चों को फुसलाये जा रहा हो. गांव के लोग हमें कौतूहल से देखते और हम उन्हें व्यग्र अपनत्व से कई-कई सवाल पूछते. अधिकांश लोग तब जन्मे होंगे, जब रेणु मर गये थे.

गांव-सा ही है औराही हिंगना
फणीश्वरनाथ रेणु. (Phanishwarnath Renu. )गांव के अधिकांश लोगों को साहित्य की समझ भी नहीं होगी. लेकिन, आश्चर्य! बच्चा-बच्चा रेणु को जानता है. रेणु की यह स्वीकार्यता है औराही हिंगना और सिमराहा में, दुलारीदाय की पतली-सूखी-सी नदी देह में और मेरीगंज की मेम के वंशजों में. भइया महेंदर  (परती परिकथा) के गांव की सड़कें कच्ची न रहीं, पंचलैट की जगह बिजुलबत्ती की झक्क सफेदी तो रात में भी दिन का उजालापन ले आती है. पर, रेणु का वह गांव आज भी गांव-सा है. शायद वह गांव ही था, जिसने शिलानाथ मंडल के बेटे फनिसरा को फणीश्वरनाथ रेणु बना दिया.

भोला पंडित प्रणयी
खगड़िया (Khagaria) के बाद हमारी गाड़ी कायदे से दूसरी जगह रुकी थी. अररिया शहर का एक मुहल्ला जयप्रकाश नगर, वार्ड संख्या-7. यहां वयोवृद्ध लेखक-कवि और बहुचर्चित साहित्य-पत्रिका ‘संवदिया’ के संपादक भोला पंडित प्रणयी (Bhola Pandit Pranayi) रहते हैं. भोला पंडित प्रणयी को फणीश्वरनाथ रेणु साला मानते थे. उनके गांव गीतवास () में उनकी ससुराल थी. वह संभवतः अकेले वैसे लेखक इस इलाके में बचे हैं, जिन्होंने रेणु के साथ साहित्यिक मित्रता का भी सुख पाया था. आज रेणुजी के बच्चे उन्हें मामा कहकर आदर से पुकारते हैं. भोला पंडित प्रणयी के पास अभी भी रेणु से जुड़े अनेक संस्मरण है.

कोई किताब नहीं लिखी
लेकिन, अफसोस कि दो दर्जन से अधिक प्रकाशित पुस्तकों के लेखक और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से पुरस्कृत भोला पंडित प्रणयी ने फणीश्वरनाथ रेणु पर अलग से कोई किताब नहीं लिखी. लिखी होती, तो अनेक रोचक-रम्य स्मृतियां प्रकाशित होकर रेणु के जीवन एवं साहित्य के पक्षों का रस बहा देती. हम तीन जने थे, ड्राइवर को छोड़कर. हमारे साथ आर बी कालेज, दलसिंह सराय के प्राध्यापक महेशचंद्र चौरसिया और खगड़िया के कवि-लेखक रामदेव पंडित राजा थे. महेशचंद्र चौरसिया को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission) ने कोई रकम दी थी कि वह रेणु और नागार्जुन (Renu and Nagarjuna) के नारी पात्रों पर शोध करें.

पात्रों को उनकी भूमि पर तलाशें
मेरी जिद थी कि वह दस किताबों से रेणु और नागार्जुन के नारी पात्रों को पढ़कर ग्यारहवीं किताब न लिख दें, सीधे रेणु और नागार्जुन के घर चलें. फिर रेणु और नागार्जुन की कथाओं में आयी स्त्रियों को उन अंचलों की भूमि पर तलाशें, तब उन्हें व्याख्यायित करें. मैं एक छोटे-से ऑपरेशन से उठा था, पर मेरा उत्साह निरोगों वाला था. अस्सी साल के रामदेव पंडित राजा तो उमंग में मुझसे भी अधिक जवान थे. रात्रि में अररिया (Araria) के एक होटल में किया गया विश्राम पर्याप्त था. सुबह-सुबह हमारी गाड़ी अररिया से सीधी, सपाट और समुन्नत प्रशस्त सड़क पर दौड़कर घंटे-डेढ़ घंटे में सिमराहा रेलवे स्टेशन के करीब पहुंच गयी.

वह निभाते थे विकटा की भूमिका
सिमराहा गांव से पूर्व रेणु द्वार के करीब चार-पांच छोटी-छोटी दुकानें थीं, लिट्टी-चाय की दुकानें. हमने एक फूस की बनी हुई दुकान में प्रवेश किया. बांस की फट्टियों से बने मचान पर जा बैठे. दुकानदारिन बूढ़ी ने चाय छानकर दी. तब तक हम वहीं खड़े एक बुजुर्ग से बातें करने लगे. फणीश्वरनाथ रेणु के बारे में. वह मुसहर जगदीश ऋषिदेव थे. बता दिया कि उन्होंने रेणु को देखा था, नाच-गान करते थे रेणु. जगदीश ऋषिदेव ने ही बताया कि पर्व-त्योहारों में ड्रामें होते थे, उनमें वली मोहम्मद विकटा की भूमिका करता था. मुझे तुरंत ‘मैला आंचल’ (Maila Anchal ) के ओली का स्मरण हो आया.

बीमार हुए और मर गये
मदारगंज के सलीम की भी विकटा के रूप में अदा की गयी भूमिका जगदीश ऋषिदेव के स्मरण में थी. लेकिन, सलीम से अधिक वली मोहम्मद याद आते हैं. बीमार हुए और पैसे के अभाव में मर गये. पोठिया गांव के थे. सिमराहा हाट के करीब मंदिर के सामने ही रेणु की आदमकद प्रतिमा लगी हुई है. रामदेव पंडित राजा बिदक गये-‘चाय से काम नहीं चलेगा, खाने का वक्त हुआ है.’ हम एक होटल में घुसे. दुकानदार दही-चूड़ा निकालने के लिए बढ़ा ही था कि महेशचंद्र चौरसिया ने रोक दिया. मेरी ओर मुड़कर फुसफुसाये-‘मुसलमान का होटल है. ये लोग खाने-पीनेवाले होते हैं, मेरा मन नहीं भरता.’ हम बिना खाये ही औराही हिंगना (Aurahi Hingna) की ओर निकल गये.


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इस गांव का भी था योगदान
औराही-हिंगना अब ‘परती’ का गांव नहीं रहा, ऊसर रास्तों पर धूसर गर्द भी नहीं उड़ी. पर, पछुआ हवा के शुष्क झोंके गाड़ी के भीतर भी अनचाहे उतर आ रहे थे. खेतों में हरियाली और उनके बीच ससम्मान खड़े बांसों के धने बाग. सड़कें पक्की हो गयी थीं. अलकतरे वाली सड़कें छूटीं तो सिमेंट वाली सड़कें जगह-जगह से फूटकर गांव के टोलों में घुसी हुई दिखीं. अधिकांशतः बांस की फट्ठियों से बनी हुईं दीवारें और उन पर चढ़ी टीन की चादरों की छतें. प्रायः सभी दरवाजों पर खड़े गाय-बैल और उनके गोबर से पटुए की संठियों पर ठोके गये लंबे-मोटे उपले. निस्संदेह इस गाव का भी योगदान था फणीश्वरनाथ रेणु के निर्माण में. सड़क किनारे नवनिर्मित रेणु भवन दिखा. उसी दिन उसका उद्घाटन था. हमारे परिचय के अनेक साहित्यकार जुटे थे.

लेखकों का तीर्थ स्थल
रेणु भवन से कोई दो सौ मीटर की दूरी पर रेणु जी का घर है. पक्की दीवारें और उन पर बांस का छप्पड़. आगे बैठकखाना, सामने नक्काशीदार जगतवाला कुआं. उसी कुंए पर कभी रेणु जी नहाते थे और पानी भरने आने वाली रिश्ते की भौजाई से झोंटा-झोट्टव्वल करते थे. हमें रेणु जी के बड़े पुत्र और तत्कालीन विधायक पद्मपराग राय ‘वेणु’ (Padmaparag Rai ‘Venu’) आंगन में लेकर गये. ‘पहले अन्नमुख होइए.’ हमारी क्षुधा बुझी, पूरियों, आलूदम, जलेबियों और अचार खाकर हम तृप्त हुए. महेशचंद्र चौरसिया ने रेणु जी के आंगन में मुझे बांहों में भर लिया-‘आप न होते, तो हम रेणु जी के घर आने को सोचते भी नहीं. यह तो हम लेखकों का तीर्थस्थल है.’

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