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महागठबंधन हताश! पास रहकर भी दूर हैं लालू प्रसाद?

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महेश कुमार सिन्हा

25 मई 2024

Patna : बिहार  (Bihar) की राजनीति में ध्रुवतारे की तरह जम जाने के बाद 2024 का संसदीय चुनाव ऐसा पहला अवसर है जब पटना में सशरीर मौजूद रहने के बाद भी वह चुनाव अभियान में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभा रहे है. उनकी थोड़ी बहुत सक्रियता दो बेटियों मीसा भारती (Misa Bharti) और रोहिणी आचार्य (Rohini Acharya) के निर्वाचन क्षेत्रों में अवश्य दिखती है, अन्यत्र कहीं नहीं. कोई कानूनी या शारीरिक बाध्यता है या पुत्र की अति महत्वाकांक्षा ने पहरा लगा रखा है, यह कहना कठिन है. चेहरे के हाव भाव से शारीरिक बाध्यता जैसा अहसास जरूर होता है. सजायाफ्ता होने के कारण कुछ न कुछ कानूनी बाध्यता भी है.

बल मिल रहा चर्चा को

पर, राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि ‘जंगल राज’ और चारा घोटाले की याद ताजा न होने देने की रणनीति के तहत उन्हें और उनकी पत्नी राबड़ी देवी (Rabri Devi) को चुनावी परिदृश्य से ओझल रखा जा रहा है. सच क्या है, नहीं कहा जा सकता. पर, पूर्व के चुनावों में राजद के पोस्टरों – बैनरों एवं होर्डिंग्स से उन्हें जिस ढंग से गायब कर दिया गया था उससे सच हो या झूठ, इस चर्चा को बल मिल रहा है. याद कीजिये, 2019 में भी करीब-करीब ऐसी ही स्थिति थी. बिहार के चुनावी माहौल में तब लालू प्रसाद की शारीरिक मौजूदगी नहीं थी. 2020 के विधानसभा चुनाव के दरम्यान भी नहीं.

घोर निराशा मिली

चारा घोटाले के सजायाफ्ता मुजरिम के रूप में उस कालखंड में वह रांची के होटवार जेल में दिन गिन रहे थे. पटना में राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर छोटे पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) उनकी राजनीति को आगे बढ़ाने की हरसूरत कोशिश कर रहे थे, वर्तमान में भी कर रहे हैं. पिता की विरासत के उपयुक्त उत्तराधिकारी बनने की उनकी 2019 की पहली बड़ी कोशिश में घोर निराशा मिली. सफलता शून्य के रूप में हाथ आयी. लालू प्रसाद (Lalu Prasad) का जेल में होना परिवार और पार्टी दोनों के लिए परेशानी का सबब बन गया. ऐसा स्वाभाविक भी था .

उदाहरण अनेक हैं

लालू प्रसाद वैसे राजनेता हैं जो अपनी गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ के कारण प्रतिकूल हालात को भी अपने हित में मोड़ लेने की अद्भुत राजनीतिक निपुणता रखते हैं. इसके एक – दो नहीं, अनेक उदाहरण हैं. 2019 में उनकी अनुपस्थिति के कारण महागठबंधन (grand alliance) अपने सबसे मजबूत नेता के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन से वंचित रह गया. इससे उसकी चुनावी राजनीति और रणनीति गंभीर रूप से प्रभावित हुई. किशनगंज (Kishanganj) में कांग्रेस (Congress) की जीत के रूप में कामयाबी सिर्फ एक सीट पर मिली.


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विवेचना का अलग विषय

हालांकि, उस चुनाव का अनुभव 2020 के विधानसभा चुनाव में काम आ गया. तेजस्वी प्रसाद यादव को सत्ता तो नहीं मिली, पर ज्यादा दूर भी नहीं रह गयी थी. वह उत्साहवर्द्धक सफलता तेजस्वी प्रसाद यादव की काबिलियत की देन थी या एनडीए (NDA) समर्थक मतों में लोजपा (LJP) की सेंधमारी से निकली थी, विवेचना का एक अलग विषय है. वर्तमान में लालू प्रसाद की शारीरिक सक्रियता भले शिथिल हो, महागठबंधन को उनका मार्गदर्शन मिल रहा है. उस मार्गदर्शन को तेजस्वी प्रसाद यादव गंभीरता से लेते भी हैं या नहीं, यह चुनाव परिणाम बतायेगा.

निशाने पर लालू ही

तेजस्वी प्रसाद यादव ने सिर्फ राजद ही नहीं, पूरे महागठबंधन के चुनाव अभियान की कमान अपने हाथ में ले रखी है. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी समेत तमाम नेताओं को इससे अलग-थलग छोड़ दिया है. कारण जो हो, चुनावी माहौल से दूर रहने के बाद भी लालू प्रसाद पूर्व के चुनावों की तरह इस चुनाव में भी घनघोर व आक्रामक चर्चा में हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Chief Minister Nitish Kumar) ने भी अपने भाषणों में नाम लिये बिना मुख्य रूप से इन्हें ही निशाने पर रखा. स्पष्ट है कि लालू प्रसाद फिर चुनाव का मुद्दा बने. अब इससे किसे और कितना लाभ मिला, इसका आकलन तो होता रहेगा, पर इसके साथ यह भी तय है कि चुनावी नतीजे के बाद राजद ही नहीं, लालू – राबड़ी परिवार भी गंभीर उथल-पुथल का शिकार बनेगा. वह उथल-पुथल कैसा होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है.

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