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पूर्णिया : तोड़ पायेगा कोई इस ‘तिलिस्म’ को?

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अशोक कुमार
29 मार्च, 2022

PURNEA : बिहार विधान परिषद के पूर्णिया-अररिया-किशनगंज स्थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र की चुनावी तस्वीर राज्य के अन्य निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में कुछ अलग तरह की उभर रही है. परिणाम जो निकले, मुकाबला एकतरफा दिख रहा है. राजग में भाजपा (BJP) की उम्मीदवारी निवर्तमान विधान पार्षद डा. दिलीप जायसवाल (Dr. Dilip Jaiswal) को ही मिली है. लगातार दो चुनावों में उनकी जीत हुई है. उम्मीदवारी के मामले में तीसरा मौका मिलने का यह एक मजबूत आधार है ही, एक बड़ा कारण यह भी है कि स्थानीय स्तर पर भाजपा में फिलहाल ‘सर्वगुण संपन्न’ विकल्प नहीं है.

2015 में डा. दिलीप जायसवाल का मुकाबला महागठबंधन के कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी डा. अशद इमाम (Dr. Asad Imam) से हुआ था. इनके समक्ष वह (अशद इमाम) टिक नहीं पाये थे. राजद (RJD) और जदयू (तब के महागठबंधन का घटक) की ताकत साथ रहने के बावजूद मात खा गये थे. इस बार डा. दिलीप जायसवाल की राह रोकने के लिए राजद (RJD) ने पूर्व मंत्री हाजी अब्दुस सुबहान (Abdus Subhan) को मैदान में उतारा है, तो कांग्रेस ने बहादुरगंज के पूर्व विधायक तौसीफ आलम (Tausif Alam) को.

दूर हो जायेगी ‘बेरोजगारी’
हाजी अब्दुस सुबहान पूर्णिया (Purnea) जिले के बायसी (Bayasi) विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित होते थे. 2020में आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के उम्मीदवार रूकुनुद्दीन अहमद (Rukunuddin Ahmad) से पराजित हो गये. राजद नेतृत्व ने ‘बेरोजगारी’ दूर करने के मकसद से उन्हें विधान परिषद के चुनाव में उम्मीदवार बना दिया है. उस समझ पर वह कितना खरा उतरते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा. विश्लेषकों की मानें, तो कांग्रेस नेतृत्व ने भी ऐसा ही कुछ तौसीफ आलम के साथ किया है.


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हाजी अब्दुस सुबहान सीमांचल की मुस्लिम सियासत के बड़ा चेहरा हैं. विधान परिषद का यह निर्वाचन क्षेत्र मुस्लिम बहुल है. मोटा-मोटी 60 और 40 का अनुपात है. इस चुनाव के जो खास मतदाता होते हैं, उनकी संख्या भी लगभग इसी अनुपात में है. इसके बाद भी भाजपा के डा. दिलीप जायसवाल किला फतह कर ले रहे हैं. वह भी मुस्लिम उम्मीदवार को ही शिकस्त देकर. राजनीति के पंडितों की समझ में यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है.

भाजपा विरोधी मानसिकता
मुस्लिम आबादी की मानसिकता भाजपा विरोधी है, यह सर्वविदित है. कुछ अपवादों को छोड़ 2014 के संसदीय चुनाव के वक्त से ही मुस्लिम मतों में भाजपा विरोधी एकजुटता स्वतःस्फूर्त हो जाया करती है. लेकिन, विधान परिषद के पिछले दो चुनावों का अनुभव बताता है कि डा. दिलीप जायसवाल ने अनवरत समाजसेवा के जरिये मुस्लिम मानस में अपनी जो जगह बना रखी है उसके समक्ष वह एकजुटता छिन्न-भिन्न हो जाती है.

सामान्य समझ है कि समाजसेवा की यह साख किशनगंज (Kishanganj) में डा. दिलीप जायसवाल के कुशल प्रबंधन में संचालित माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कालेज-सह-लायंस अस्पताल की बुनियाद पर टिकी है. अन्य ‘उपकार’ अपनी जगह है, इस मेडिकल कालेज एवं अस्पताल से स्थानीय निकाय जनप्रतिनिधियों एवं उनके परिजनों को स्वास्थ्य संबंधी तमाम सुविधाएं उपलब्ध होती रहती हैं. ऐसे में उनके सेवा आधारित इस जनाधार को कौन तोड़ पायेगा?

यह है धरातली सच
संसदीय एवं विधानसभा के चुनावों के बाद हाल में संपन्न पंचायतों के चुनावों में भी मुस्लिम मतों की जो आक्रामक एकजुटता दिखी, उसके मद्देनजर राजद समर्थित प्रत्याशी पूर्व मंत्री हाजी अब्दुस सुबहान की स्थिति मजबूत मानी जा सकती है. पर, विश्लेषकों की नजर में धरातली सच यह नहीं है. चुनाव दलीय आधार पर होते और डा. दिलीप जायसवाल भाजपा प्रत्याशी के रूप में कमल के फूल चुनाव चिह्न पर मैदान में उतरते तो शायद यह आकलन सही साबित हो जाता. समाजसेवा के साथ-साथ डा. दिलीप जायसवाल का निर्दल चेहरा भी उनकी संभावना को चमकदार बनाता दिख रहा है.

हालांकि, राजद के रणनीतिकारों का मानना है कि इस बार त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के जनप्रतिनिधियों का जो सामाजिक स्वरूप उभरा है उससे सीमांचल में भाजपा विरोधी राजनीति कुछ अधिक ताकतवर हो गयी है. यानी राजद के ‘माय’ समीकरण के लोग ज्यादा निर्वाचित हुए हैं. इसका सीधा लाभ राजद समर्थित उम्मीदवार को मिल सकता है. इन नेताओं का दावा और दंभ जो हो, विधान परिषद के इस निर्वाचन क्षेत्र में राजद एकजुट नहीं दिख रहा है. अंदरुनी तौर पर इसका संगठन बिखरा-बिखरा सा नजर आ रहा है. विश्लेषकों के मुताबिक राजद का यह आंतरिक बिखराव भी डा. दिलीप जायसवाल के मंसूबों को मजबूत बनाता है.

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