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सर्वे का खुलासा : देश नहीं चाहता नीतीश कुमार को!

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अविनाश चन्द्र मिश्र
27 मई 2023

PATNA : इतिहास खुद को दोहराता है. पहले त्रासदी के रूप में, फिर प्रहसन के रूप में. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) का यह कथन अभी की राष्ट्रीय राजनीति (National Politics) में चरितार्थ होता दिख रहा है. याद कीजिये, 2019 के संसदीय चुनाव (Parliamentary Elections) से पहले आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू (Chandrababu Naidu) पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) को सत्ता से उखाड़ फेंकने की कैसी सनक सवार थी? इस कदर खार खाये थे कि बस चलता तो खुद दोनों हाथों से उठा यमुना नदी में डाल आते. लेकिन, अकेले कुछ उखाड़-बिगाड़ पाने की हैसियत थी नहीं, खुद जैसी भावना रखने वाले नेताओं को एकजुट करने का संकल्प लिये देश-भ्रमण पर निकल गये. इस दरम्यान वह वैसे हर नेता (Leader) से मिले जो मोदी विरोधी की पहचान रखते थे.

मंशा शायद यह भी थी
चन्द्रबाबू नायडू भाजपा (BJP) के साथ राजग में थे. अतिरिक्त स्वार्थ पूर्ति नहीं हुई, अलग हो गये. राष्ट्रीय राजनीति में अपनी औकात की थाह लिये बगैर नरेन्द्र मोदी का राजनीति में वजूद मिटाने की मुहिम में लग गये. संभव है, प्रधानमंत्री (Prime Minister) का पद पाने की लालसा भी रही हो. मुहिम नरेन्द्र मोदी विरोधी थी, विपक्षी दलों ने मंच साझा करने का अवसर उपलब्ध कराया. पर, उनकी मुहिम के प्रति कोई ज्यादा उत्सुकता-गंभीरता नहीं दिखायी. हालांकि, वैसा दिखाने से भी कोई फर्क पड़ता, महत्वाकांक्षाओं के टकराव के बीच से निकल केन्द्र की सत्ता विपक्ष की झोली में आ जाती, ऐसी स्थिति न बननी थी और न बनी.

माया मिली न राम!
नरेन्द्र मोदी विरोधी उस मुहिम की अंतिम (Last) परिणति क्या हुई? कांग्रेस (Congress) समेत तमाम विपक्षी पार्टियां एक-दूसरे को कोसती रह गयीं, पहले की तुलना में और अधिक सांसदों के साथ नरेन्द्र मोदी फिर से सत्ता में आ गये. उधर, राज्य हित को नजरंदाज कर देश हित की चिंता में घुले चन्द्रबाबू नायडू का प्रधानमंत्री पद का ख्वाब तो खंडित हुआ ही, कुछ समय बाद विधानसभा के चुनाव में मुंह की खानी भी पड़ गयी. मुख्यमंत्री (Chief Minister) का पद हाथ से निकल गया. माया मिली न राम!

त्रासदी की परछाई भी
चन्द्रबाबू नायडू से जुड़ी पांच साल पुरानी इस कथा की चर्चा अभी क्यों? प्रासंगिकता बताने की शायद जरूरत नहीं. राजनीति की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाले लोग भी इसे समझ रहे होंगे. कार्ल मार्क्स के कथनानुसार चन्द्रबाबू नायडू का इतिहास प्रहसन के रूप में दुहरा रहा है. इसमें आशंकित त्रासदी की परछाई भी है. अब खुले रूप में जानिये, संदर्भ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) से जुड़ा है. बिहार (Bihar) को भगवान भरोसे छोड़ जिस ढंग से सत्तू बांध विपक्षी दलों की एकजुटता के लिए अपनी और साथ में तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) की भी ऊर्जा खपा रहे हैं, गौर से देखियेगा तो उसमें इतिहास दुहराता नजर आयेगा.

नहीं जम रहा विश्वास
नीतीश कुमार राज्य-राज्य घूम रहे हैं. नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं. कहीं-कहीं मत्था भी टेक रहे हैं. भाजपा विरोधी नेताओं को उनकी यह भूमिका तो रास आ रही है, पर पलटी मारने की प्रवृत्ति उनमें विश्वास नहीं जमने दे रही है. संभवतः यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी के पुराने विरोधियों के बीच जिस गर्मजोशी से उनका स्वागत होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है. औपचारिकता भर निभायी जा रही है. जदयू (JDU) समर्थकों के गले यह निश्चय ही नहीं उतरेगा, पर राजनीति (Politics) ऐसा ही कुछ महसूस कर रही है.

हो जायेंगे बेदखल
चन्द्रबाबू नायडू की तरह नीतीश कुमार भी भाजपा के साथ राजग में थे. लंबे जुड़ाव में काफी गहराई थी. विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा की सदाशयता भरी उसी गहराई से उन्हें राजनीति में इतनी बड़ी हैसियत मिली. विडंबना देखिये, उस हैसियत का इस्तेमाल आज वह उसी के खिलाफ कर रहे हैं. यही है अभी की राजनीति का चरित्र! इस राजनीतिक प्रहसन का पटाक्षेप किस रूप में होगा, यह वक्त बतायेगा. पर, इतना तय है कि 2024 में नरेन्द्र मोदी की सत्ता रहे या उखड़ जाये, नीतीश कुमार बिहार की सत्ता से बाहर हो जायेंगे. त्रासदी के रूप में इतिहास (History) का दुहराव यही आशंकित है. चन्द्रबाबू नायडू को जनता ने बेदखल किया था. नीतीश कुमार खुद-ब-खुद उस गति को प्राप्त हो जायेंगे. वैसे, देव योग से देश की सत्ता पा लें, तो वह अलग बात होगी.

यह शगल है उनका
उनके आलोचकों के मुताबिक नीतीश कुमार की आदत में यह शुमार है कि राजनीति में प्राप्त करने की जो लालसा रखते हैं उसके बारे में खास मुस्कान लिये सार्वजनिक अनिच्छा व्यक्त करते रहते हैं. यह हर कोई जानता है कि उनके दिल में प्रधानमंत्री (Prime Minister) पद का अरमान 2014 से ही अंकुरित है. वर्तमान में इसके पल्लवित होने की संभावना जगी है, ऐसी उनकी समझ है. अपने तई जोर भी लगा रहे हैं. इसके बावजूद कहते हैं कि इस पद में उनकी कोई रुचि नहीं है, नीतीश कुमार अक्सर दुहराते हैं ‘… अरे नहीं… मना करते हैं सबको, हमारी कोई इच्छा नहीं है… कोई दिलचस्पी नहीं है.’


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कम हुई लोकप्रियता
बहरहाल, नीतीश कुमार को दिलचस्पी है या नहीं यह अलग मुद्दा है, पर प्रधानमंत्री के रूप में देश को उनमें दिलचस्पी नहीं है. इसका खुलासा उस सर्वे में हुआ है जिसे लोकनीति – सेंटर फॉर द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) ने एनडीटीवी के लिए किया है. कर्नाटक (Karnataka) के चुनाव में भाजपा को मिली घोर निराशा के बीच 10 से 19 मई 2023 तक 19 राज्यों में हुए इस सर्वे का निष्कर्ष नीतीश कुमार के लिए बेहद निराशाजनक है. सर्वे में नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर मामूली असर दिखा. राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की लोकप्रियता में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई. 2019 में नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता 44 प्रतिशत थी, वर्तमान में 43 प्रतिशत हो गयी है. यानी एक प्रतिशत की गिरावट हुई है. राहुल गांधी की लोकप्रियता 2019 में 24 प्रतिशत थी जो बढ़ कर 27 प्रतिशत हो गयी है. यह और किसी के लिए भले नहीं, भाजपा के लिए थोड़ी चिंता की बात जरूर है.

सिर्फ एक प्रतिशत
इस सर्वे की खासियत यह बतायी जा रही है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नेताओं का कोई नाम नहीं दिया गया था. सर्वे में शामिल लोगों से सीधे उनकी पसंद पूछी गयी थी. इसको थोड़ा स्पष्ट करें तो शासन के दसवें वर्ष में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ सत्ता विरोधी कोई खास रुझान नहीं है. 43 प्रतिशत लोग अब भी उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. 27 प्रतिशत लोगों की दिलचस्पी राहुल गांधी में है. नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के तौर पर कितने लोग देखना चाहते हैं, आंकड़ा उनके समर्थकों को घोर निराशा में डालने वाला है. सिर्फ एक प्रतिशत लोगों ने उनमें रुचि दिखायी है. ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के पक्ष में चार-चार प्रतिशत लोग हैं तो तीन प्रतिशत लोगों का साथ अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को मिला है. 18 प्रतिशत में अन्य नेता हैं.

बिहार के लोग भी नहीं चाहते !
यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जिन 19 राज्यों में सर्वे हुआ है, उनमें बिहार (Bihar) भी है तो आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके अपने राज्य (State) के लोग भी प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें नहीं देखना चाहते हैं. ऐसा ही एक सर्वे एबीपी न्यूज-सी वोटर ने भी किया है. उसमें भी प्रधानमंत्री के तौर पर एक प्रतिशत लोगों को ही नीतीश कुमार स्वीकार्य हैं. इस परिप्रेक्ष्य में ऐसा कहा जाता है कि एक-दो ऐसे ही निराशाजनक सर्वे सार्वजनिक हुए, तो अपने राजनीतिक आचरण के अनुरूप नीतीश कुमार (Nitish Kumar) विपक्षी दलों की एकजुटता की मुहिम से अलग कहीं दूर अपनी सत्ता की सलामती के लिए नयी जुगत भिड़ाते दिखेंगे.

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