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मुंडेश्वरी धाम: ऐसा शायद ही कहीं होता होगा…

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राजकिशोर सिंह
30 जून 2023

Bhabhua : मुंडेश्वरी भवानी मंदिर, विश्व के अतिप्राचीनतम मंदिरों में एक है. बिहार के कैमूर (Kaimur) जिले की पंवरा पहाड़ी पर 608 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस अष्टकोणीय मंदिर की स्थापना कब हुई इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, पर यह स्थापित सच है कि इसमें सैकड़ों वर्षों से अनवरत  (Incessantly) पूजा-अर्चना हो रही है. कुछ लोग 19 सौ वर्षों से ऐसा होने की बात करते हैं. रामगढ़ (Ramgarh) के समीप भगवानपुर प्रखंड क्षेत्र की जिस पहाड़ी पर यह स्थित है उसे मुंडेश्वरी पर्वत के नाम से भी जाना जाता है. हालांकि, यह बिंध्य पर्वत शृंखला का हिस्सा है. इसे करुआ भी कहते हैं. मां मुंडेश्वरी धाम (Mundeshwari Dhaam) का महात्म प्राचीनतम शक्तिपीठ के रूप में है. महिमा वैष्णे देवी (Vaishno Devi) , ज्वाला देवी (Jwala Devi) के समान है. यह शैव, शाक्त एवं वैष्णव उपासना का समन्वित केन्द्र है. ऐसा शायद ही कहीं और देखने को मिलता है.

वैष्णवी रूप है मां का
मुंडेश्वरी भवानी मंदिर के बारे में जो जानकारियां हैं, उनके मुताबिक यहां वैष्णवी रूप में स्थापित आदिशक्ति मां विभिन्न रूपों में पूजी जाती हैं. मूल देवता नारायण अर्थात भगवान विष्णु (Lord Vishnu) हैं. तथ्यों के मुताबिक यहां पहले नारायण की ही पूजा होती थी. मध्य युग में शक्ति की उपासना होने लगी. मार्कण्डेय पुराण में चर्चा है कि मां भगवती ने सनातन धर्म (Sanatan dharm) की संस्कृति को नष्ट करने वाले असुर मुंड का वध किया था. उनके उस पराक्रम को सम्मान और श्रद्धा देते हुए मां मुंडेश्वरी के रूप में उनका नामकरण हुआ था. हालांकि, विभिन्न सनातनी धर्मग्रंथों में इसकी अलग-अलग प्रसंग में चर्चा है. शतरूद्र संहिता, श्रीमद्भागवत, रामायण, वायु पुराण, अष्टाध्यायी, हरिवंश पुराण आदि में.

चमत्कारिक शिवलिंग
ऐसा कहा जाता है कि दुर्गा सप्तशती (Durga Saptshati) के दुर्गा कवच में जिस ‘वराही महिषासना’ महिष पर सवारबराही देवी का जिक्र है वहीं मुंडेश्वरी मंदिर में विराजमान हैं. आदि शक्ति (Aadi Shakti) की उपासना के क्रम में ही मंदिर के अष्टकोणीय गर्भगृह के मध्य में स्थापित चमत्कारिक चतुर्मुख शिवलिंग की भी पूजा होने लगी. चमत्कार यह कि शिवलिंग की छवि सूर्य की किरणों की बढ़ती तेज के अनुसार बदलती रहती है. यानी दिन में यह अलग-अलग समय में अलग- अलग छटा में दिखता है. स्कंद पुराण (Skanda Purana) में कहा गया है कि इस शिवलिंग की स्थापना अत्रि ऋषि ने की थी. यह पर्वत, जिसे त्रयक्षकुल पर्वत भी कहते हैं, अत्रि ऋषि की तपोभूमि रही है. मंदिर में गणेश, सूर्य एवं विष्णु की मूर्त्तियां भी हैं.

रक्तहीन सात्विक बलि!
चूंकि यह सिद्ध पीठ है इसलिए इसे तंत्र-मंत्र की साधनास्थली भी माना जाता है. नवरात्र (Navratra) में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है. रामनवमी और शिवरात्रि के दिन भी. अब नवरात्र के दौरान ‘मुंडेश्वरी महोत्सव (Mundeshwari Mahotsaw)’ का आयोजन होने लगा है. यह मंदिर की पौराणिक-धार्मिक मान्यता है. पर, इसका पुरातात्विक महत्व भी है. सिद्ध पीठ होने के कारण यहां बलि की परंपरा भी है. रक्तहीन सात्विक बलि  (Virtuous Sacrifice) की. मतलब बकरे का खून नहीं बहाया जाता है. मंत्र पढ़े अक्षत-पुष्प और भभूत से कुछ समय के लिए बकरे को संज्ञा शून्य बना दिया जाता है और फिर दूसरे मंत्र पढ़े अक्षत-पुष्प और भभूत से उसकी संज्ञा लौटा दी जाती है! बकरा खुद-ब-खुद मंदिर के गर्भगृह से बाहर निकल जाता है.

गुम्बद गायब है
मुंडेश्वरी धाम पर शोध करने वालों का मानना है कि अभी का मंदिर अपने मूल स्वरूप में नहीं है. मंदिर के इर्द-गिर्द बिखरे खंडित अवशेष बताते हैं कि इसका मूल स्वरूप कुछ और था. मंदिर के वर्तमान गर्भगृह (Garv Grih) के दक्षिण भाग में विशाल मंदिर रहने का अनुमान लगाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि आक्रमणकारियों ने उस मंदिर को ध्वस्त कर दिया था. अभी जो मंदिर है उसका गुम्बद गायब है. यानी उसे भी ध्वस्त कर दिया गया था. मंदिर छतविहीन था. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुनरुद्धार कार्यक्रम के तहत छत का निर्माण किया गया है. विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक मंचों से खंडित अवशेषों को जोड़कर मंदिर को पुराने स्वरूप में पुनर्स्थापित (Restored) करने की मांग उठती रही है, जो अब तक अनसुनी है.

मुंडेश्वरी धाम का प्रवेश द्धार.

नागड़ा वास्तु कला का अप्रतीम नमूना
पुरातात्विक सर्वेक्षण (Archaeological Survey) एवं शोध से ज्ञात हुआ है कि शक कुशाणकालीन यह मंदिर 635 ई. में अस्तित्व में था. 1891-92 में प्राप्त खंडित शिलालेख से इसकी प्राचीनता परखी गयी. 1902 में भी एक शिलालेख मिला. उससे प्रमाणित हुआ कि वह शिलालेख ईशा पूर्व 28 में लिखा गया था. यंत्र शैली पर आधारित मंदिर नागरा वास्तुकला (Nagara Architecture) का अप्रतीम नमूना है. ऐसा बिरले ही देखने को मिलता है. मंदिर निर्माण के वास्तु सिद्धांत का वर्णन अथर्ववेद (Atharvaveda) में है. इस अमूल्य धरोहर के जीर्णोद्धार-पुनर्निर्माण की बात दूर रही, इसकी सुरक्षा का भी कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं है. कहने के लिए यह मंदिर बिहार धार्मिक न्यास पर्षद के नियंत्रण एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है, पर वास्तव में यह भगवान भरोसे ही है. न मंदिर की सुरक्षा की उत्तम व्यवस्था है और न पुरातात्विक अवशेषों के संरक्षण की.

बिखरे पड़े हैं पुरावशेष
मंदिर के इर्द-गिर्द खंडित अवशेष (Khandit Avashesh) तो बिखरे पड़े हैं ही, आसपास के खेतों में मवेशी चराते चरवाहों और हल जोतते किसानों को अक्सर पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक महत्व की मूर्त्तियां मिल जाया करती हैं. वे मूर्त्तियां गुप्तकालीन (Gupta period) होती हैं. सब की सब यत्र-तत्र असुरक्षित पड़ी हैं. कुछ वर्ष पूर्व भगवान विष्णु की चार भुजाओं वाली मूर्त्ति मिली थी. लाल बलुआ पत्थर से निर्मित मूर्त्ति के गले में माला, जनेऊ, एक हाथ में गदा और दूसरे में सुदर्शन चक्र थे. उस बेशकीमती मूर्त्ति को खुले आसमान के नीचे असुरक्षित छोड़ दिया गया. ऐसा माना जाता है कि मुंडेश्वरी पर्वत पर प्राचीनतम सभ्यता के अवशेष जमीन के नीचे दबे पड़े हैं. इसके प्रति भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग गंभीर नहीं है. तभी तो महत्वपूर्ण पुरातात्विक अवशेषों की संभावना रहने के बावजूद उसकी खुदाई की कोई ठोस पहल नहीं हो रही है. यह मंदिर पर्यटन (Tourism) की दृष्टि से भी काफी महत्व रखता है. परन्तु, इस ओर किसी का ध्यान नहीं है.


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तस्करों की गिद्ध दृष्टि
मुंडेश्वरी पर्वत वैसे तो पहले से ही असुरक्षित रहा है, हाल के वर्षों से नक्सलियों (Naxal) का आखेट स्थल बना हुआ है. इस पर मूर्त्ति तस्करों की गिद्ध-दृष्टि भी जमी रहती है. इसके बावजूद मंदिर में स्थापित मूर्त्तियों और वहां के पुरातात्विक अवशेषों की सुरक्षा के प्रति भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (Archaeological Survey of India) और बिहार सरकार (Bihar Sarkar) दोनों सजग नहीं हैं. मंदिर में कई बार चोरियां हो चुकी हैं. तब भी उनकी तन्द्रा नहीं टूटी है. कुछ साल पूर्व मां मुंडेश्वरी की मूर्त्ति से सोने की आंख, टिकुली एवं चांदी की छतरी चुरा ली गयी. कैमूर पुलिस तत्काल न तो मंदिर में हाथ साफ करनेवालों को हथकड़ी लगा पायी और न चोरी गये सामान बरामद कर पायी.

कड़ी सुरक्षा की जरूरत
इससे पहले 18 एवं 20 दिसम्बर 2013 की रात में ऐसा ही प्रयास किया गया था. जिसे सुरक्षाकर्मियों ने विफल कर दिया था. लेकिन, 1968 में मूर्त्ति चोर अपने मकसद में कामयाब रहे थे. उस प्रयास में चोरों ने चमत्कारिक शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा चुरा लिया था. हालांकि, रामगढ़ के ग्रामीणों के प्रयास से चोर पकड़ में आ गये थे और चोरी गया शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा बरामद भी कर लिया गया था, जो लगभग 12 वर्षों तक भभुआ थाने में पड़ा रहा. 1980 में ‘रूद्र यज्ञ’ और ‘रूद्राभिषेक’ करा उसे पुनः स्थापित किया गया. 2002 में मुंडेश्वरी संग्रहालय (Mundeshwari Museum) से मां पार्वती की प्रतिमा की चोरी कर ली गयी.

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