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राजनीति : निर्लज्जता में समा गयी शुचिता, शालीनता और नैतिकता !

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अविनाश चन्द्र मिश्र
14 जुलाई 2023

Patna : बिहार (Bihar) में सत्ता की राजनीति के सभी पात्र व अपात्र हमाम में एक जैसे हैं. सब में सत्ता की अतृप्त भूख है. उनका यह रूप जनता का दिया हुआ नहीं है. निर्लज्ज नेताओं की सत्तालोलुपता ने फिर एक-दूसरे के इस घृणित चरित्र को बेनकाब कर दिया है. राजनीति  (Politics) की इस निर्लज्जता और विद्रूपता पर जनता की प्रतिक्रिया क्या और किस रूप में आती है, यह देखना दिलचस्प होगा. जनता की प्रतिक्रिया आमतौर पर चुनावों में आती है, दिखती है और नेताओं को महसूस भी होती है. इस दृष्टि से इसके लिए काफी समय है. 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनावों के दौरान ही उसकी राय सामने आ पायेगी. इस दरम्यान यह जाना और समझा जा सकता है कि सत्ता की खातिर गलबहियां डालकर मुस्कुराते चेहरों के पीछे कैसी कटुता और छल-कपट छिपी रहती है, कैसे एक-दूसरे का वे इस्तेमाल करते हैं और दुराव-अलगाव होते ही तमाम खूबियां खामियों में बदल जाती हैं.

भरोसा करना मुश्किल
क्षणभर पहले जो नायक था उसे खलनायक करार दिया जाता है. जो साम्प्रदायिक (Communal) था उसे धर्मनिरपेक्ष (Secular) का प्रमाण-पत्र मिल जाता है. उसके बाद क्या सब होता है यह भी देखने और समझने की बात है. 2013 से नेताओं के बनते-बिगड़ते चेहरों और रिश्तों के बीच जनता के लिए यह भरोसा करना मुश्किल है कि उनके किस रूप को सच माने. वर्तमान रूप को सच माने तो कल पलटीमार प्रवृत्ति की चपेट में आ फिर असत्य न हो जाये, इसकी क्या गारंटी है? जो शब्द और वाक्य 2013 में सुनाई पड़ते थे, थोड़ा उलटफेर के साथ वर्तमान में भी सुनाई दे रहे हैं. अंतर इतना कि तब ‘संघ मुक्त भारत’ का हुंकार भरा गया था, अभी ‘भाजपा मुक्त भारत’ का भरा जा रहा है. वह भी अपने बूते नहीं. अपनी हैसियत तो खुद चुनाव जीतने लायक नहीं है. विपक्षी दलों की ‘आभासी एकजुटता’ पर हवा-बयार बांधा जा रहा है.

महागठबंधन की बैठक में विपक्षी नेता गण.

घने अंधकार की ओर
यहां भी सवाल उठता है कि हवा-बयार बांधने वालों को कल की तारीख में राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) का कोई विकल्प नहीं दिखने लगे, इसका भरोसा कौन दिलायेगा? आत्ममुग्धता में उन्हें इसका तनिक भी आभास नहीं है कि विश्वास का यह संकट उनकी राजनीति को घने अंधकार की ओर ले जा रहा है. बिहार में सत्ता का जो सामाजिक समीकरण है वह काफी जटिल है. यहां तीन बड़ी राजनीतिक ताकतें (दल) हैं – भाजपा (BJP), राजद (RJD) और जदयू (JDU). इनमें किसी में अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल करने का सामर्थ्य नहीं है. दो ताकतों के गठबंधन को ही सत्ता की प्राप्ति संभव है. यह धु्रव सत्य है कि भाजपा और राजद में कभी मेल नहीं हो सकता. भाजपा हाथ बढ़ा सकती है, पर राजद को स्वीकार्य नहीं होगा. वजह वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं, छद्म धर्मनिरपेक्षता है, जो मुस्लिम जनाधार को छिटकने नहीं देने की बाध्यता पर केन्द्रित है. धर्मनिरपेक्षता के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता होती तो दीर्घकाल तक ‘साम्प्रदायिकता’ की गोद में किलकारियां भरने, हिन्दुत्व के आंगन में ठुमक-ठुमक कर चलने वाले से वह गठजोड़ नहीं करता. ऐसा एक बार नहीं, दो बार हुआ. सब सत्ता-स्वार्थ का खेल है.

माया महाठगिनी हम जानी…!
बिहार की राजनीति की इसी नियति का लाभ नीतीश कुमार (Nitish Kumar) उठा रहे हैं. सत्ता की राजनीति में दोहरा चरित्र अपनाकर. माया महाठगिनी हम जानी…! नीतीश कुमार की राजनीति में कभी शुचिता, शालीनता और नैतिकता समाविष्ट थी. लोग उनके इस आचरण का उदाहरण देते थे. ‘जाति नहीं जमात’ की बात पर विश्वास करते थे. कालांतर में सत्ता की अनबूझी प्यास में उनकी तमाम खूबियां विलीन हो गयीं. यह प्रतिद्वंद्वियों का आरोप नहीं , सामान्य धारणा है जो 2010 से 2022 के बीच के 12 वर्षों के दौरान उनके सात बार मुख्यमंत्री-मुख्यमंत्री खेलने पर आधारित है. नीतीश कुमार हमेशा यह प्रदर्शित और स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि उन्हें सत्ता की लालसा नहीं है, मोह नहीं है. उनके लिए यह सेवा का माध्यम भर है. पर, सच यह है कि सत्ता उनके लिए अपरिहार्य है. इसे हासिल करने के लिए वह किसी से भी दोस्ती कर सकते हैं. नीति-अनीति की हर सीमा लांघ सकते हैं.


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वर्तमान में भी उनकी भंगिमा वैसी ही कछ दिख रही है
2013, 2017 और 2020 के चुनावों के जनादेश का अपमान इसका प्रमाण है. 2010 का जनादेश राजग को मिला था. अकेले नीतीश कुमार या उनकी पार्टी जदयू को नहीं. नैतिकता का तकाजा था कि 2013 में ‘संघ मुक्त भारत’ का अभियान छेड़ने के लिए राजग से अलग हुए थे तो मुख्यमंत्री का पद त्याग नया जनादेश लेते. 2017 में महागठबंधन (Mahagathbandhan) और 2022 में राजग (NDA) के साथ वैसा ही दोहराया गया. उनका यह आचरण राजनीतिक अवसरवाद नहीं तो और क्या है? अन्य की बात छोड़ दें, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) भी उनकी सत्ता लिप्सा को अपने अंदाज में परोसते रहे हैं. ‘पलटू राम’ उन्हीं का दिया नाम है. 2017 में पलटी मारने के वक्त उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार सांप हैं. हर दो साल पर केचुल बदल लेते हैं. उसी लालू प्रसाद के साथ नीतीश कुमार आज राज्य की सत्ता में हैं. क्या इससे उनकी वह छवि खंडित नहीं हो गयी कि उन्हें सत्ता का मोह नहीं है?

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