यह तो उनकी राजनीति के डीएनए में ही है!
अविनाश चन्द्र मिश्र
तमिलनाडु में दो-तीन पीढ़ी ऊपर के संकीर्ण सोच वाले लोग भी सियासी स्वार्थ के लिए हिन्दी, हिन्दुत्व और हिन्दीभाषियों के खिलाफ कटु वचन बोलते थे, विषवमन करते थे. तमिल स्वाभिमान के नाम पर अपमानित करते थे. वैसी संकीर्णता नयी पीढ़ी में भी है, तो वह हैरान करने वाली कोई बात नहीं है. इसलिए कि यह तो उनकी राजनीति के डीएनए में है. इससे विरत कैसे रह सकते हैं! एम के स्टालिन (MK Stalin) हों, या उदयनिधि स्टालिन या फिर कनिमोझी करुणानिधि या दयानिधि मारन, सभी वैसे ही संस्कार पाये हैं, तो उनसे अलग बात-व्यवहार की उम्मीद कैसे की जा सकती है! हिन्दी, हिन्दुत्व और हिन्दीभाषियों के खिलाफ जहर उगलने से उनकी राजनीति चमकती है. सत्ता-संभावनाओं को मजबूती मिलती है, तो अपना संस्कार वे क्यों बदलेंगे! वैसे भी हिन्दीभाषी क्षेत्रों से न उनका कोई राजनीतिक (Political) लगाव-जुड़ाव है और न तमिलनाडु में हिन्दीभाषियों की वैसी कोई पकड़ है जिससे कि वहां की उनकी राजनीति प्रभावित हो. मुंह अपना है. जब जो मन में आता है, उगल देते हैं. न लोकलाज का ख्याल और न संविधान (Constitution) का सम्मान.
ऐसी नफरत क्यों?
इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र, खासकर बिहार (Bihar) के लोग उनके अपशब्दों को बड़ी निर्लज्जता से ग्रहण कर लेते हैं. किसी भी रूप में कोई असरदार प्रतिकार नहीं. शासक वर्ग का विरोध औपचारिकताओं में सिमटा रह जाता है. इसलिए कि राजनीति तो वह भी करता है! सवाल यहां यह है कि दक्षिण भारत, विशेष कर तमिलनाडु (Tamil Nadu) की राजनीति को हिन्दी, हिन्दुत्व और हिन्दीभाषियों के प्रति ऐसी नफरत क्यों है? सरसरी तौर पर कहें, तो यह हिन्दी विरोध पर आधारित भाषा, धर्म और संस्कृति के टकराव का प्रतिफल है. इतिहास बताता है कि इस टकराव की बुनियाद 1883 में पड़ गयी थी. अंग्रेजी हुक्मरानों ने ईसाई मिशनरियों को पांव फैलाने की आजादी दी, तो बड़ी आसानी से उसने दक्षिण भारत (South India) को अपनी गिरफ्त में ले लिया. उसके विस्तारवाद के खिलाफ हिन्दू जागृत हुए, विरोध के स्वर उठे, तो ईसाई मिशनरियों ने धार्मिक हमले शुरू कर दिये. सनातनी वर्ण-व्यवस्था की भर्त्सना और हिन्दू देवी-देवताओं के अपमान का अंतहीन अभियान छेड़ दिया.
‘तमिल शुद्धिकरण’ आंदोलन
वेद-पुराणों के ज्ञाता-अध्येता संस्कारित ब्राह्मणों ने प्रतिकार किया. ब्राह्मणों को आदि शंकर के अद्वैत दर्शन की गहरी समझ थी. संस्कृत जैसी परंपरागत धार्मिक (Traditional Religious) भाषा के प्रकांड पंडित थे, तो अंग्रेजी में भी लगभग वैसी ही प्रवीणता थी. साम्राज्यवादी व्यवस्था पर पकड़ के लिए ये सब गुण पर्याप्त थे. तमिलनाडु में ब्राह्मणों की आबादी तब मात्र तीन प्रतिशत थी. इसके बाद भी शासन-प्रशासन, शिक्षा, न्याय-व्यवस्था, पत्रकारिता और व्यवसाय, सब पर उन्हीं का बर्चस्व था. ईसाई मिशनरियों ने बड़ी चालाकी से इस बर्चस्व को तमिल भावना से जोड़ ‘तमिल अस्मिता’ का मुद्दा उछाल दिया. 1916 में ‘ब्राह्मणों से मुक्ति’ के लिए ‘तमिल शुद्धिकरण’ आंदोलन शुरू हुआ. वह आंदोलन सिर्फ ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं था, हिन्दी, हिन्दीभाषी, संस्कृत और आर्य भी उसके लक्ष्य थे. कालांतर में कट्टरता बढ़ी, आंदोलन ने तमिल अलगाववाद का रूप ग्रहण कर लिया. अलग द्रविड़नाडु यानी तमिल राष्ट्र की मांग उठ गयी. उस कालखंड में सरकार के स्तर से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की कई कोशिशें हुईं. तमिलों के हिंसक विरोध (Violent Protest) की वजह से कामयाबी नहीं मिल पायी.
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बढ़ रही लोकप्रियता
दरअसल हिन्दी, हिन्दुत्व और हिन्दीभाषियों के विरोध को तमिलनाडु के स्वाभिमान से जोड़ दिया गया है, जो सत्ता का महत्वपूर्ण आधार बन गया है. बुनियाद मजबूत रहे, तमिल नेता वक्त-बे-वक्त किसी न किसी रूप में इस मुद्दे को उठाते रहते हैं. इधर उनमें बौखलाहट इस वजह से भी आयी है कि नयी पीढ़ी के लोग तमिल स्वाभिमान के पीछे की राजनीति को समझने लगे हैं. भावनाओं को छोड़ हिन्दी (Hindi) को भविष्य के लिए फायदेमंद मानने लगे हैं. तीसरी भाषा के रूप में स्वीकार करने लगे हैं. उनमें हिन्दी के प्रति लगाव बढ़ रहा है, सीखने की ललक पैदा हो रही है. हिन्दी की बढ़ रही लोकप्रियता में भाजपा (BJP) के पांव जमने की झलक दिखती है. यह सब तो है, दयानिधि मारन (Dayanidhi Maran) के मारक बोल – हिन्दीभाषी राज्यों के लोग तमिलनाडु में पैखाना साफ करते हैं – ने बिहार की सरकार और जातीय भावनाओं में बह सक्षम-समर्थ राजनीतिक नेतृत्व का चयन नहीं कर पाने वाली जनता को यह विचारने का एक अवसर और दिया है कि प्रति व्यक्ति आय, रोजगार, बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बिहार इतना पिछड़ा क्यों है कि यहां के लोगों को दूसरे राज्यों के ऐसे नासमझ नेताओं (Foolish Leaders) के जहरीले बोल से जलील होना पड़ता है?
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