तापमान लाइव

ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल

ऐसा पड़ा ‘आह’ कि फिर जीत नहीं पाये…

शेयर करें:

राजेश पाठक
13 मार्च 2024

Madhubani : झंझारपुर संसदीय क्षेत्र पिछड़ों व अतिपिछड़ों की राजनीति की उर्वर भूमि की पहचान रखता है. ‘सामाजिक न्याय’ के राजनीतिक भुलावे के दौर के पहले से यहां इन्हीं दो वर्गों की राजनीति जमती-चमकती रही है. वर्तमान में उसमें और अधिक गाढ़ापन आ गया है. पहले यह मधुबनी संसदीय क्षेत्र (Madhubani Parliamentary Constituency) का हिस्सा था. स्वतंत्र रूप से 1972 में अस्तित्व में आया. कांग्रेस के तो कम, समाजवादी छवि के अनेक नेता इस क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए. हरियाणा के पूर्व राज्यपाल धनिक लाल मंडल उनमें प्रमुख थे. उनके वारिस राजनीति (Politics) में सक्रिय हैं, प्रयास भी कर रहे हैं. विधानसभा (Assembly) में जगह पाने में सफल रहे हैं, पर उस मुकाम तक अभी नहीं पहुंच पाये हैं.

पांच बार निर्वाचित हुए
उधर, 1974-77 के जयप्रकाश आंदोलन (Jayaprakash Movement) की उपज फुलपरास निवासी पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र प्रसाद यादव (Devendra Prasad Yadav) इस मामले में सौभाग्यशाली हैं. झंझारपुर से सर्वाधिक पांच बार सांसद निर्वाचित हुए हैं. महत्वपूर्ण बात यह कि लगभग डेढ़ दशक तक क्षेत्र की राजनीति को अपनी महत्वाकांक्षा के इर्द-गिर्द घुमाते रहे हैं. वैसे, अब उनकी राजनीति भी ढलान पर दिख रही है. इस डेढ़ दशक के दौरान देवेन्द्र प्रसाद यादव की सबसे बड़ी जीत 2004 में हुई थी. पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र (Dr. Jagannath Mishra) को पराजित कर उन्होंने राजनीति को चकित कर दिया था. लेकिन, उस जीत से उनके चुनावी भविष्य पर ग्रहण भी लग गया. जदयू के उम्मीदवार रहे डा. जगन्नाथ मिश्र को शिकस्त देने का ‘राजनीतिक पाप’ ऐसा चढ़ा कि उस चुनाव के बाद वह फिर कभी जीत नहीं पाये.

जमानत तक नहीं बच पायी
2004 के बाद चुनावों में अलग-अलग दल के उम्मीदवार (Candidate) हुए, लगातार पराजय का ही मुंह देखना पड़ा. 2019 में तो हद हो गयी. जमानत तक नहीं बच पायी. उनका जनाधार 25 हजार 630 मतों में सिमट गया और वह चौथे स्थान पर लुढ़क गये. 2024 में क्या होता है, राजद या किसी दूसरे दल की उम्मीदवारी मिलती है या निर्दलीय मैदान में उतरते हैं, जिस किसी भी रूप में वह ताल ठोंकते हैं तो हश्र क्या होगा, यह देखना-समझना दिलचस्प होगा. वैसे, क्षेत्र का एक तबका अब भी उनको मजबूत जनाधार का नेता मानता है. महागठबंधन में राजद (RJD) की उम्मीदवारी मिलने पर परिणाम को मनमाफिक मोड़ देने का माद्दा रहने की बात करता है.


ये भी पढें :
‘वक्त – वक्त की बात है , कल जो रंग थे , आज वो दाग हैं’
आयेंगे अभी सियासी हवाओं के कई झोंके
पद बड़ा, विभाग बड़ा : तब भी छिप-छिपा कर रहना पड़ा !


सर्वाधिक संख्या अतिपिछड़ों की
झंझारपुर (Jhanjharpur) पिछड़ा-अतिपिछड़ा बहुल क्षेत्र तो है, पर सर्वाधिक संख्या अतिपिछड़ों की है. एक अनुमान के अनुसार 35 प्रतिशत के आसपास उनकी आबादी है. दूसरे स्थान पर यादव हैं तो तीसरे स्थान पर ब्राह्मण. दोनों करीब 20-20 प्रतिशत हैं. अंतर थोड़े का है. ऐसा क्षेत्र की जातीय राजनीति के जानकार बताते हैं. दलित और मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या भी परिणाम की दिशा बदलने की हैसियत रखती है. मुस्लिमों की आबादी 15 प्रतिशत रहने की बात कही जाती है. वैसे, संख्या जिसकी जितनी भी हो, चुनाव का परिणाम अतिपिछड़ा समाज ही तय करता है. लेकिन,दुर्भाग्य यह कि 1972 से 2019 तक के13 चुनावों में पांच बार ही इस समाज को लोकसभा में झंझारपुर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व (Representation) करने का अवसर मिल पाया है.

हालात अब बदल गये
छह बार यादव जाति के उम्मीदवारों की जीत हुई तो सिर्फ दो बार ब्राह्मण प्रत्याशी विजयी हुए. 1972 के प्रथम चुनाव में पंडित जगन्नाथ मिश्र (डा. जगन्नाथ मिश्र नहीं) और 1984 में गौरीशंकर राजहंस की. यह हर कोई मानता है कि क्षेत्र के सामाजिक एवं राजनीतिक हालात अब पूरी तरह बदल गये हैं. पूर्व की तुलना में अतिपिछड़ा समाज काफी सजग हो गया है. राजनीतिक (Political) समझ में परिपक्वता आ गयी है. ऐसी कि ब्राह्मण को छोड़िये यादव का पांव भी जमने नहीं दे रही है.

आ गयी है सामाजिक चेतना
यही मुख्य आधार है कि 2009 के चुनाव से अत्यंत पिछड़ा समाज (Extremely Backward Society) के उम्मीदवार निर्वाचित हो रहे हैं. सिलसिला आगे भी बना रह सकता है. इसी समाज के अलग-अलग दलों के दो उम्मीदवारों के मुख्य मुकाबले में रहने के बावजूद इस क्रम के टूटने की कोई संभावना नहीं दिखती है. इसलिए कि क्षेत्र के अतिपिछड़ों में जो सामाजिक चेतना आयी है उसके अनुरूप यादव, ब्राह्मण और मुस्लिम को यह समाज समान रूप से ‘शोषक’ समझता है. समान दूरी बनाये रखता है. इसी समझदारी के तहत मतदान (Vote) करता है. (जारी)

#Tapmanlive

अपनी राय दें