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‘वक्त – वक्त की बात है , कल जो रंग थे , आज वो दाग हैं’

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राजकिशोर सिंह
12 मार्च 2024

Patna : बिहार के गांव – समाज में पूत प्राप्ति की उत्कंठा में पति गंवा बैठने से संबंधित एक कहावत काफी प्रचलित है. इतना कि इसका मायने- मतलब बताने -समझाने की जरूरत शायद नहीं है. इसमें दो मत नहीं कि हर सवाल के टेढ़ा जवाब से मीडियाकर्मियों को निरुत्साहित कर कानूनी कार्रवाई की धमकी देने वाले बहुचर्चित सियासी शख्स को यह उपमा पसंद नहीं आयेगी. पर, विश्लेषकों की नजर में यह कहावत उनकी राजनीति (Politics) पर सटीक बैठ रही है. हाल के राजनीतिक (Political) घटनाक्रमों पर नजर डालें तो उसके प्रतिफलों में यह भी शामिल दिखता है.

सब देख रहे हैं…
राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद यही वैसा बड़ा प्रकरण है जिसने राजनीति को हैरान कर रखा है. इस प्रकरण पर ये पंक्तियां – ‘वक्त- वक्त की बात है, कल जो रंग थे, आज वो दाग हैं’ बिल्कुल सटीक बैठती हैं. सोचिये, सत्तारूढ़ दल (Ruling Party) के सबसे बड़े सांगठनिक पद पर थे. सत्ता शीर्ष से आलोचकों-विरोधियों में जलन पैदा करने जैसी निकटता थी. राजनीति में उनके कहने – बोलने का अपना एक महत्व था. सांगठनिक पद (Organizational Position) गंवाने के बाद आज कहां हैं! सब देख रहे हैं. कल क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता, वर्तमान में सत्ता शीर्ष के साथ रहते हुए भी हाशिये पर हैं.

जमींदारी का लघु रूप
सत्ता परिवर्तन से पहले अपने क्षेत्र में रुतबा ऐसा था कि औरों की बात छोड़ दें, सत्ता शीर्ष से जुड़े मामलों में भी वहां उनकी ही मर्जी चलती थी. पूरा प्रशासनिक महकमा उनके इशारे पर नाचता-थिरकता था. क्या मजाल जो कोई उनकी अवहेलना कर दे! तमाम छोटे-बड़े अधिकारी-कर्मचारी उनके रुआब के नीचे गुलाम की माफिक सिर झुकाये रहते थे. कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था (Democratic System) में जमींदारी का लघु रूप था वह. इस जमींदारी के छांव तले समस्त इलाकाई अबांछितों को भी सुकून मिलता था. हालांकि, ऐसी स्थिति संपूर्ण क्षेत्र में नहीं थी. मुख्य रूप से उस खंड में थी, जो उनकी हनक को मजबूत आधार प्रदान करता रहा है.


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अब सलामी बजा रहा है
बड़ी बात यह भी कि उनकी इस हनक में दूसरी किसी क्षेत्रीय सियासी शख्सियत का कोई वजूद नहीं था. यहां तक कि संवैधानिक पद (Constitutional Post) धारण करने वाले को भी जन सरोकारों को लेकर प्रशासन के समक्ष चिरौरी करनी पड़ती थी, फजीहत झेलनी पड़ती थी. सत्तारूढ़ गठबंधन में संवैधानिक पद पर रहने के बावजूद जिलाधिकारी एंव पुलिस अधीक्षक को छोड़िये, दारोगा तक बात नहीं सुनता था, महत्व नहीं देता था. अब वक्त बदल गया है. पूरा प्रशासनिक महकमा उसी शख्सियत को सलामी बजा रहा है, जिसको हनक वाले की नजरों में सुर्खरू बने रहने के लिए कभी महत्व नहीं देता था. यदा-कदा अपमानित भी कर बैठता था.

यही है राजनीति!
वक्त इस रूप में बदला है कि जिस पूत के लिए हनक वाले सियासी शख्स पति गंवा बैठे उस पूत की प्राप्ति ‘उपेक्षित शख्सियत’ को बड़ी सहजता से हो गयी . महसूस कीजिये, कैसी मानसिक पीड़ा हो रही होगी हनक वाले सियासी शख्स को! जितनी पीड़ा पति गंवाने और पूत की प्राप्ति नहीं होने से हो रही होगी उससे कहीं अधिक पूत की प्राप्ति उस शख्सियत को हो जाने से हो रही होगी ,जो उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाते! यही है राजनीति!

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