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जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हकमारी!

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संजय वर्मा
29 मार्च 2024

Patna : मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भाजपा के सान्निध्य वाली सरकार के मंत्रिमंडल में सामाजिक समीकरण का विशेष ख्याल रखने का दावा किया गया. सत्तारूढ़ समूहों की खुद की समझ भरे इस दावे को एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता. पर, तटस्थ विश्लेषण में सामाजिक समूहों को मंत्रिमंडल में जिस अनुपात में और जिस आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया, कुछ मामलों में वह ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की जगह ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हकमारी’ को चरितार्थ करता प्रतीत हुआ. जदयू और भाजपा के रणनीतिकारों की समझ जो हो, संसदीय चुनाव पर इसका असर पड़ने की संभावनाओं को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता.

हैरान करने वाली बात नहीं
वैसे, बिहार (Bihar) की सत्ता राजनीति के लिए ऐसी ‘हकमारी’ हैरान करने वाली बात नहीं हुआ करती है. इसलिए कि सत्ता जिस किसी की हो, प्रायः हर सोपान में किसी न किसी सामाजिक समूह की हकमारी होती ही है. आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी नहीं मिलना अत्यंत पिछड़ा समाज का तो स्थायी दर्द है ही, इस बार अलग-अलग दो बड़े सामाजिक समूहों- यादव और मुस्लिम को भी करीब-करीब वैसे ही हालात में ला दिया गया है. हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. 1990 में लालू प्रसाद (Lalu Prasad) के सत्ता में आने के बाद से यह परम्परा-सी बन गयी है कि राजद (RJD) के प्रभुत्व वाले पिछड़ा वर्ग की ‘सामाजिक न्याय’ वाली सत्ता में मंत्रियों की संख्या के मामले में ‘मलाई’ मुख्यतः ‘माय’ के हिस्से में रहती है, सवर्ण पूरी तरह उपेक्षित रहता है.

कुछ तो महत्व मिला
इसके बरक्स भाजपा (BJP) की सहभागिता वाली पिछड़ा वर्ग की ‘सामाजिक न्याय’ की परछाई वाली सत्ता में सवर्ण ‘संतुष्ट’ रहता है, ‘माय’ उपेक्षित हो जाता है. गैर यादव पिछड़ा वर्ग और दलित-महादलित की स्थिति आमतौर पर ‘कोइ नृप होउ हमहि का हानि’ जैसी ही रहती है. यानी थोड़ा- बहुत इधर-उधर के साथ उनकी मौजूदगी लगभग समान रहती है. एक-दो अपवादों को छोड़, जिस अत्यंत पिछड़ा वर्ग की राज्य में सबसे बड़ी आबादी है, उसको भी एक सीमा में ही रखा जाता है. हालांकि, इस बार अतिपिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग को पूर्व की तुलना में कुछ अधिक महत्व मिला है. कह सकते हैं कि ऐसा आसन्न संसदीय चुनाव के मद्देनजर किया गया है.

भगवान ही जानते होंगे
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व वाली राजग सरकार के नये सोपान में मुख्यमंत्री समेत कुल 30 मंत्री हैं. संसदीय चुनाव में संतोषजनक कामयाबी मिली, तो मंत्रिमंडल का विस्तार हो सकता है. सीमा 36 मंत्रियों की है. 06 का तो नहीं 03 या 04 का समायोजन हो सकता है. नाराज सामाजिक समूह को संतुष्ट किया जा सकता है. निराशाजनक परिणाम की स्थिति में क्या होगा, यह भगवान ही जानते होंगे. वर्तमान 30 सदस्यीय मंत्रिमंडल में सवर्ण समाज के सर्वाधिक 09 मंत्री तो हैं, पर पूर्व की तुलना में ज्यादा महत्व मिला है वैसी बात नहीं है. बल्कि महत्व में कटौती ही हुई है. इस रूप में इसे सहजता से समझा जा सकता है.


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सवर्ण भी कम हुए
2020 में राजग की सरकार के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में सवर्ण समाज के 11 मंत्री थे. इस बार दो कम हो गये. पहले के 11 में क्षत्रिय पांच, ब्राह्मण तीन, ब्रह्मर्षि दो और एक कायस्थ थे. अभी क्षत्रिय समाज के चार, ब्राह्मण दो, ब्रह्मर्षि दो और एक कायस्थ हैं. स्पष्ट है कि सवर्ण मंत्रियों में संख्या क्षत्रिय और ब्राह्मण की कम हुई है. ब्रह्मर्षि और कायस्थ अप्रभावित हैं. संख्या सिर्फ सवर्ण समाज के मंत्रियों की ही नहीं, पिछड़ा वर्ग की भी कम हुई है. 2020 में इस वर्ग के आठ मंत्री थे. इस बार सात हैं. तब यादव समाज के दो मंत्री थे. इस बार खानापूर्ति के तौर पर सिर्फ एक हैं. हालांकि, विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, दोनों पदों पर यही समाज काबिज है.

खानापूर्ति की गयी
कुर्मी और कुशवाहा समाज को मंत्री के दो-दो पद प्राप्त हुए हैं. दो वैश्य बिरादरी के भी हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि अतिपिछड़ा वर्ग को मंत्रियों के छह पद प्राप्त हुए हैं. 2020 में इस वर्ग के सिर्फ 05 मंत्री थे. 2020 में पिछड़ा-अतिपिछड़ा वर्गों को मंत्री के कुल 13 पद मिले थे. इस बार भी उतने ही हैं. यादव समाज की तरह मुस्लिम समुदाय से एक मंत्री बना कर प्रतिनिधित्व की खानापूर्ति की गयी है. 2020 में मुस्लिम समुदाय के दो मंत्री थे. अत्यंत पिछड़ा वर्ग की तरह दलित वर्ग को भी तवज्जो मिली है. 2020 में इस वर्ग के पांच मंत्री थे, इस बार सात हैं.

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