बिगाड़ न दे खेलआक्रामकता…!
राजेश पाठक
17 अप्रैल 2024
Gaya : आंकड़ों पर आधारित गया संसदीय क्षेत्र (gaya parliamentary constituency) के चुनावी विश्लेषण के बाद इस आलेख में जातीय समीकरण की चर्चा है. मतदान वहां प्रथम चरण में 19 अप्रैल 2024 को होना है. चुनाव के आकलन-विश्लेषण के क्रम में पहले इस तथ्य को समझ लेना जरूरी है कि 2019 के चुनाव के बाद राजनीतिक व सामाजिक हालात में कोई बड़ा बदलाव आया है, कोई लहर चल रही है जिससे कि परिणाम का रुख बदल जाये या सबकुछ पहले जैसा ही है? इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि 2019 की तुलना में राजनीतिक दलों के गठबंधनों के स्वरूप थोड़ा बहुत परिवर्तित हुए हैं. किसी- किसी क्षेत्र में उम्मीदवार आधारित जातीय जुड़ाव से स्थानीय स्तर पर सामाजिक समीकरण भी बदल गया है. परन्तु, मुकम्मल रूप में राजनीतिक परिस्थितियां करीब – करीब वैसी ही हैं, जो 2019 के चुनाव के समय थीं.
एंटी इनकंबेंसी नहीं
बिहार (Bihar) में चुनाव के मुद्दे क्या होते हैं, यह सब को मालूम है. आमतौर पर सामाजिक समूहों की चुनावी गोलबंदी परिणाम तय करती है. विश्लेषकों की समझ है कि थोड़ा – बहुत उलटफेर के साथ वही राजनीतिक मुद्दे और वही जातीय गोलबंदी इस बार भी परिणाम तय करेंगे. चुनावों में एंटी इनकंबेंसी का भी रंग दिखता है. इस बार गया में वैसा कुछ नहीं है. एक तरफ पराजित चेहरा है तो दूसरी तरफ इस चुनाव के लिए बिल्कुल नया चेहरा. परिवर्तन इस रूप में अवश्य परिलक्षित है कि 2019 में राष्ट्रवाद के साथ हिन्दुत्व का जोश और नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) के व्यक्तित्व का आकर्षण चुनाव अभियान पर हावी था, 2024 में वह उस तरह उफनता नहीं दिख रहा है. पर, पूरी तरह लुप्त भी नहीं हुआ है.
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अपरिपक्व नेतृत्व को अंदाज नहीं
इसके बरक्स बदलाव यह दिख रहा है कि एनडीए विरोधी एक बड़े सामाजिक समूह की आक्रामकता से झांकती उदंडता पूर्व के अनुभवों के मद्देनजर दूसरे अनेक सामाजिक समूहों में नये सिरे से एकजुटता का भाव पैदा कर रही है. यह एकजुटता चुनाव परिणामों को किस हद तक प्रभावित कर सकती है, इसका अंदाज शायद ‘अपरिपक्व नेतृत्व’ को नहीं है. ऐसा सिर्फ गया संसदीय क्षेत्र में ही नहीं है, कमोबेश पूरे बिहार की यही स्थिति है. गया की बात करें, तो अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित इस संसदीय क्षेत्र पर 25 वर्षों से मांझी यानी मुसहर समाज काबिज है. दिलचस्प बात यह भी कि इस दौरान 1999 से लेकर 2019 तक के पांच चुनावों में मुख्य मुकाबला इसी समाज के उम्मीदवारों के बीच हुआ है. इससे इस क्षेत्र में इसकी बड़ी आबादी का अंदाज खुद-ब – खुद लग जाता है. इस बार मांझी के मुकाबले पासवान मैदान में है.
यह है जातियों का आंकड़ा
वैसे तो क्षेत्रवार या जिलावार जातीय जनसंख्या (Cast population) का कोई प्रामाणिक आंकड़ा सार्वजनिक नहीं हुआ है, पर जातीय राजनीति में रुचि रखने वालों के आंकड़ों पर विश्वास करें तो गया संसदीय क्षेत्र में मांझी समाज के मत तकरीबन तीन लाख हैं. उस तुलना में पासवान समाज के मतों की संख्या काफी कम है. बस एक लाख के आसपास है. करीब- करीब इतनी ही संख्या में रविदास समाज के मत हैं. बताने की जरूरत नहीं कि रविदास समाज की निष्ठा बसपा से जुड़ी मानी जाती है. लेकिन, उस जुड़ाव का वहां कोई खास असर नहीं दिखता है. गया संसदीय क्षेत्र में दूसरी बड़ी आबादी यादव समाज की है. मत भी करीब तीन लाख हैं. सवर्ण यानी राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ समाज के सम्मिलित मत भी तीन लाख के आसपास अनुमानित हैं.
चर्चा जातीय ध्रुवीकरण की
मुस्लिम (Muslim) मत दो लाख और वैश्य (Vaishya) मत पौने दो लाख के करीब रहने की बात कही जाती है. डेढ़ लाख मत कुशवाहा (Kushwaha) और कुर्मी (Kurmi) समाज के हैं. इनमें दांगी (Dangi) अधिक हैं. अत्यंत पिछड़ी जातियों में चंद्रवंशी समाज के मत अपेक्षाकृत ज्यादा हैं. दलितों में पासी और धोबी समाज के मत भी महत्व रखते हैं. विश्लेषण के तीसरे हिस्से में जातीय धुव्रीकरण की चर्चा की जायेगी. मसलन जातियों का राजनीतिक रुझान क्या है. किस राजनीतिक दल से जुड़ाव है. चुनावों पर उसका क्या असर पड़ता रहा है, इस बार क्या पड़ सकता है आदि की चर्चा.
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