महागठबंधन को नहीं है अतिपिछड़ों की जरूरत!
विष्णुकांत मिश्र
11 मई 2024
Patna : बिहार में सबसे बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है. जनसंख्या 36.01 प्रतिशत है. लालू प्रसाद (Lalu Prasad) के ‘सामाजिक न्याय’ के सूत्र ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ को आधार मानें, तो महागठबंधन (Mahagathbandhan) में कुल 40 संसदीय क्षेत्रों में से 14 में इस वर्ग के उम्मीदवार होने चाहिये थे. उम्मीदवारी मिली मात्र चार निर्वाचन क्षेत्रों में. यानी 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी. 26 प्रतिशत हड़पाय नम: ! महागठबंधन के मुख्य घटक राजद (RJD) के हिस्से के 22 निर्वाचन क्षेत्रों में सिर्फ दो पर अत्यंत पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवार हैं. इसके अलावा एक कांग्रेस (Congress) के और एक भाकपा-माले के हैं.
कुल जमा दस प्रतिशत
राज्य में दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों की है. इसकी अनदेखी इस रूप में हुई है कि 17.7 प्रतिशत जनसंख्या रहने के बाद भी इस समुदाय को चार उम्मीदवारों में समेट दिया गया है. दो राजद के और दो कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार हैं. हिस्सा कुल जमा दस प्रतिशत! आबादी के हिसाब से भागीदारी होती तो इसके कम से कम सात उम्मीदवार होते. राजद नेतृत्व ने इसका तनिक भी ख्याल नहीं रखा की पार्टी की चमक मुस्लिम (Muslim) समर्थन से ही है. ऐसा कहा जाता है कि महागठबंधन में मुसलमानों को हाशिये पर इसलिए रखा जाता है कि उनकी उम्मीदवारी से मतों का ध्रुवीकरण हो जाता है. बाजी भाजपा के हाथ लग जाती है.
राजनीतिक फरेब
लेकिन, मुसलमानों के ही एक तबके का मानना है कि यह राजनीतिक (Political) फरेब है. जो हो, इस बेतुके तर्क के तहत मुसलमानों को नजरंदाज करने के खिलाफ धीमे स्वर में ही सही आवाज उठने लगी है. सवाल भी खड़ा होने लगा है. इस तर्क के साथ कि संभव है मुस्लिम उम्मीदवार से कुछ हद तक मतों का ध्रुवीकरण हो जाता हो, पर 36.01 प्रतिशत आबादी वाले अत्यंत पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवार से कौन-सा ध्रुवीकरण हो जाता है कि उन्हें चार-पांच में समेट दिया जाता है? महागठबंधन में इस बार 27.12 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़ा वर्ग के 20 उम्मीदवार हैं. 36.01 प्रतिशत आबादी को 04 और 27.12 प्रतिशत आबादी को 20 का गणित अतपिछड़ों के गले नहीं उतर रहा है.
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भर देते हैं भूसा
पिछड़ा वर्ग में 14.2 प्रतिशत आबादी वाले यादव (Yadav) समाज के 11 और 04, 2 प्रतिशत की जनसंख्या वाले कुशवाहा समाज के सात उम्मीदवार (Candidate) हैं. आबादी के हिसाब से यादव समाज की हिस्सेदारी अधिकतम छह की बनती है. कुशवाहा (Kushwaha) समाज की दो की. यह सब तो है, पर अवाम के लिए इन आंकड़ों का कोई खास मायने नहीं है. इसलिए कि मामला राजनीतिक दलों की स्वतंत्रता का है. मायने है उन सामाजिक समूहों के लिए जिनकी भावनाओं से भरे मतों के बल पर राजनीतिक दल अपनी राजनीति चमका लेते हैं और चमकाने वालों के भाग्य में भूसा भर देते हैं.
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