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यही है सामाजिक न्याय का गणित?

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विष्णुकांत मिश्र
07 मई 2024

Patna : यादव आबादी 14.2 प्रतिशत… उम्मीदवार 11, कुशवाहा आबादी 04.2 प्रतिशत… उम्मीदवार 07, मुस्लिम आबादी 17.7 प्रतिशत… उम्मीदवार सिर्फ 04… यही है बिहार (Bihar) में उम्मीदवारी के मामले में महागठबंधन में आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी का अनुपात. सबको पता है कि बिहार में चालीस संसदीय क्षेत्र हैं. उनमें 06 अनुसूचित जाति (Cast) के लिए सुरक्षित हैं. 34 सामान्य में सिर्फ‌ 04 पर मुस्लिम उम्मीदवार हैं.‌ बचे 30 में से 18 दो कथित दबंग मध्यवर्ती‌ जातियों यादव और कुशवाहा में बांट दिये गये हैं‌. 12 में शेष सभी जातियां. यही है महागठबंधन (Mahagathbandhan) के ‘सामाजिक न्याय’ का गणित!

खूब ढोल पीटते थे
यह विश्लेषण इसलिए कि आधिकारिक जातीय आंकड़े सार्वजनिक होने से पहले राजद (RJD) अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) और पार्टी के अघोषित सुप्रीमो तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejaswi Prasad Yadav) ‘सामाजिक न्याय’ का खूब ढोल पीटते थे. ऊंची आवाज में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी‌, उसकी उतनी हिस्सेदारी’‌ का राग अलापते थे‌.‌ गौर कीजिये, यह राग अब‌ उनके कंठ से नहीं निकलता है. ‌निकले भी कैसे!

निर्णय की स्वतंत्रता
सामान्य समझ में राजद की सत्ता व सियासत में आबादी और हिस्सेदारी का जो अनुपात होता है उसमें‌ गैर यादवों के लिए उसका गणित ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हकमारी’ हो जाता है. वैसे, यह महागठबंधन का आंतरिक मामला‌ है. राजनीतिक दलों और गठबंधनों को दबाव मुक्त निर्णय करने की स्वतंत्रता है. किसको उम्मीदवार बनाना है किसको नहीं, उसके‌ विवेक पर निर्भर करता है. नफा-नुकसान उसको झेलना होता है.


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मामला कुछ भिन्न है
तमाम जातियों और वर्गों में सियासत की भूख जगाने वाले राजद का मामला कुछ भिन्न है. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ आधारित‌ ‘सामाजिक न्याय’ का सिद्धांत वह बघारता है तो समर्थक सामाजिक समूहों को उससे भी ऐसी पहल की अपेक्षा रहती है. इस परिप्रेक्ष्य में संसदीय चुनाव में उम्मीदवारी को आबादी के अनुपात के नजरिये से देखें तो वैसी कोई पहल होती नहीं दिखी . बल्कि यादव (Yadav) और कुशवाहा (Kushwaha) को छोड़ शेष के लिए ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हकमारी’ की धारणा को मजबूती मिली है.

असर तो है चुनाव पर
और जातियों की तो घोर अनदेखी हुई ही है, महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य की पहली बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ा वर्ग और दूसरी बड़ी आबादी मुस्लिम (Muslim) समुदाय को भी अपेक्षा के अनुरूप महत्व नहीं मिला है. दोनों को चार-चार सीटों में ‌समेट दिया गया है. क्या इन आंकड़ों से ऐसा नहीं लगता है कि ‘सामाजिक न्याय’ राजद के राजनीतिक स्वार्थ साधने का साधन मात्र है? भावनात्मक बोल के अलावा सामान्य सामाजिक समूहों के लिए इसमें कुछ नहीं है? महागठबंधन, विशेष कर राजद की समझ जो हो, इस अनदेखी का अंदरूनी असर संसदीय चुनाव पर पड़ता दिख रहा है.

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