भाजपा में बयानबाजी : है कोई मतलब इनके प्रवचन का ?
विशेष संवाददाता
30 जून 2024
Patna : भाजपा (BjP) के मध्यम स्तरीय दो नेताओं के ‘प्रवचनों’ ने बिहार की एनडीए (NDA) की राजनीति में विवाद खड़ा कर दिया है. उनके प्रवचन का निहितार्थ क्या है, यहां उसकी विवेचना की जा रही है. दो प्रवचन कर्ताओं में एक अश्विनी चौबे (Ashwini Choubey) हैं. बक्सर (Buxar) से दो बार सांसद (Member of parliament) रहे हैं. दोनों ही बार नरेन्द्र मोदी की सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. सांसद बनने से पहले वह भागलपुर (Bhagalpur) से विधायक निर्वाचित होते थे. बिहार में एनडीए की सरकार में मंत्री भी बनते थे. हिन्दुत्व के मुखर पैरोकार होने की वजह से भाजपा में महत्व मिलता रहा है. अब भी मिल रहा है. लेकिन, 2024 के संसदीय चुनाव में उन्हें उम्मीदवारी से महरूम कर दिया गया. क्यों, यह उनसे ज्यादा बेहतर कौन बता सकता है? इधर, राज्यपाल (Governor) बनने की संभावना जगी थी. परन्तु, जिस तरह के उनके बयान आ रहे हैं उससे लगता है कि वह भी समाप्त हो गयी है.
दवाब की राजनीति
दूसरे प्रवचन कर्ता हैं डा. संजय पासवान (Dr. Sanjay Paswan). भाजपा से इनका लम्बा जुड़ाव है, पर अखंड नहीं. कुछ समंय के लिए इन्होंने राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था. 1990 में नवादा (Nawada) से भाजपा के सांसद निर्वाचित हुए थे. केन्द्र में शिक्षा राज्यमंत्री (Minister of State for Education) का पद मिला था. उसके बाद चुनावों में उम्मीदवारी मिली, पर कामयाबी का दुहराव दूर रह गया. 1998 में विधान पार्षद बनाये गये. चाहत मंत्री पद की थी. पूरी नहीं हो पायी. 2024 में विधान पार्षद का कार्यकाल पूरा हो गया. दोबारा अवसर नहीं मिला. इस परिप्रेक्ष्य में भाजपा के लोग उनके प्रवचन को दवाब की राजनीति के नजरिये से देख रहे हैं.
कड़वा अवश्य लगा होगा
डा. संजय पासवान का बयान आया कि 2024 के संसदीय चुनाव में जदयू (JDU) साथ नहीं होता तो भाजपा शून्य में सिमट जाती. लोकसभा की 12 सीटों पर उसकी जीत नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के साथ रहने के चलते हुई. मतलब ‘मोदी की गारंटी’ का कोई योगदान नहीं रहा! प्रदेश भाजपा नेतृत्व को उनका यह कथन कड़वा अवश्य लगा होगा. पर, डा. संजय पासवान की इस समझ को सिरे से इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि बहुत हद तक यही जमीनी हकीकत है. जदयू महागठबंधन का हिस्सा रहता तो सचमुच भाजपा की मिट्टी पलीद हो जाती.
विरोधाभासी बयान
विश्लेषकों का मानना है कि बिहार (Bihar) की चुनावी राजनीति के इसी सच को समझते हुए नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार से गठजोड़ करने को विवश हुए. इस दृष्टि से डा. संजय पासवान के बयान में ऐसा कुछ भी नयापन नहीं है कि इससे भाजपा और जदयू के रिश्तों में तल्खी आ जाये. नयापन इतना भर है कि यही डा. संजय पासवान ने साढ़े चार साल पहले जनवरी 2020 में मुख्घ्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व का यह कह विरोध किया था कि जनता एक चेहरे से ऊब चुकी है, अब भाजपा से नया मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिये. उनके यही विरोधाभासी बयान दवाब की राजनीति की धारणा को मजबूत बनाते हैं. यहां जानने वाली बात है कि भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता डा. गुरु प्रकाश पासवान (Dr. Guru Prakash Paswan) इनके ही पुत्र हैं. इनकी काबिलियत की तारीफ सब करते हैं.
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सम्राट चौधरी पर निशाना
अब अश्विनी चौबे के बयान पर गौर कीजिये. जो मुद्दा डा. संजय पासवान ने 2020 में उठाया था, उसे अब वह उठा रहे हैं. 2025 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार से अलग होकर लड़ने की बात कर रहे हैं. व्यक्तिगत इच्छा बता खुले तौर पर कह रहे हैं कि 2025 का विधानसभा चुनाव भाजपा के नेतृत्व में लड़ा जाये और इसी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बने. अश्विनी चौबे ने भाजपा संगठन में आयातित व्यक्ति को महत्व नहीं देने की बात कह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सम्राट चौधरी (Samrat Chaudhary) पर भी निशाना साधा है.
अनुचित नहीं
डा. संजय पासवान और अश्विनी चौबे ने भाजपा को लेकर अपनी भावना व्यक्त की है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसे किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित नहीं माना जा सकता. पर, एनडीए की देश और प्रदेश की राजनीति के वर्तमान हालात के मद्देनजर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ही नीतीश कुमार स्वीकार्य हैं तो फिर डा. संजय पासवान और अश्विनी चौबे के प्रवचनों का कोई मायने मतलब रह जाता है क्या?
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