नागार्जुन और तरौनी : घुलते रहे औरों की चिंता में…
जन कवि नागार्जुन की जयंती पर तापमान लाइव की खास प्रस्तुति की यह पांचवीं किस्त है :
अश्विनी कुमार आलोक
05 जुलाई 2024
नागार्जुन (Nagarjuna) का साहित्य (Literature) समय से समझौता करने की प्रवृत्ति के विरुद्ध रहा, सभी वर्गों के एक समान अधिकार और प्रगति की कामना उनकी कविताओं (poems) का प्रमुख स्वर रही. बोलने की प्रवृत्ति विद्रोह की प्रवृत्ति का आरंभ भी होता है और उद्देश्यकामी भी. लेकिन, विद्रोह को राजनीति के विषधरों ने अनेक बार दबाया. नागार्जुन की विद्रोही कविताओं ने भले उनके प्रभामंडल को जनस्वीकृति दिलाकर उन्हें जनकवि (Janakavi) की पहचान दिलायी, राजनीति ने उन्हें दर्दनाक स्तर पर उपेक्षित किया. पढ़ने-लिखने वाले लोग नागार्जुन को पढ़ते-लिखते रहेंगे, लेकिन बिहार सरकार (Bihar Government) उनके नाम पर एक चबूतरा तक बनवाने की योजना नहीं बना रही.
पटना में कहीं कोई मूर्ति नहीं
उनके नाम पर बिहार सरकार का मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा विभाग) दो लाख रुपये का नागार्जुन पुरस्कार (Nagarjuna Award) देने के अतिरिक्त उनकी जयंती और पुण्यतिथि के अवसर पर साहित्यिक कार्यक्रम तो आयोजित करता है, लेकिन सरकार राजधानी पटना (Patna) में कोई मूर्ति नहीं स्थापित कर सकी. बीते कई दशकों से बिहार में समाजवाद के कथित ध्वजवाहकों की सरकारें बनती आ रही है, लेकिन समाजवाद का जयघोष करनेवाला जनकवि उपेक्षा के घोर अंधकार से निकाला न जा सका.
कहां गया धनपति कुबेर वह
कहां गयी उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास का
व्योम वाहिनी गंगाजल का
ढूंढ़ा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर
कौन बताये यह यायावर
बरस पड़ा होगा न यहीं पर….
उद्धार का कोलाहल लिखा
प्रकृति में सौंदर्य तलाशना न जाने कवियों ने कहां से सीखा, कोई आंतरिक ध्वनि-प्रतिध्वनि सुनी या अंतःप्रेरणा ने उन्हें ऐसा करने से रोकना नाजायज समझा. नागार्जुन जैसे कवि ने प्रकृति और पारंपरिक प्रभावों को आधुनिक जीवन में सृजन और सौभाग्य के स्रोत के रूप में देखा. परंतु, अधिकार, जीविका और भविष्य की आवश्यकताओं के लिए आंदोलन उनकी कविताओं का पूंजीभूत ज्वाल बना रहा. नागार्जुन फक्कड़ कवि रहे. अर्थात अपनी अभिव्यक्ति को फिकरे और मुहावरे की तरह स्वाभाविक उद्धरणशीलता का गुण देकर कवि के रूप में अमर हुए, उपन्यासों में मिथिलांचल की मिट्टी (Mithilanchal soil) की स्थानीय अर्थवत्ता और दलितों के उद्धार का कोलाहल लिखा. लेकिन, यह कोलाहल आज तक सुना कहां गया?
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गांव आते-जाते रहे
नागार्जुन विद्रोही कवि रहे. पिता से किसी बात पर नाराज होकर उन्होंने अल्पवय में ही घर छोड़ दिया था. पिता गोकुल मिश्र (Gokul Mishra) को लगा कि इकलौता बेटा उनसे वैचारिक मतभेद कर बैठा, तो उन्होंने अपनी जमीन-जायदाद बेच दी. नागार्जुन के जीवन का अधिकांश समय अन्यत्र ही बीता. परंतु, पत्नी अपराजिता देवी (Aparajita Devi) और बच्चों के मोह में वह गांव आते-जाते रहे. उनकी बेटी मंजु मिश्रा (Manju Mishra) बताती हैं कि नागार्जुन को पत्नी ने कभी लिखने-पढ़ने से नहीं रोका, फिर भी वह प्रायः तब लिखते थे, जब रात्रि में घर के लोग सो जाते थे. नागार्जुन का जीवन अभावों में बीता. लेकिन, उनका अपना जीवन उन्हें वंचित वर्ग के अन्य नागरिकों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त लगा.
कौन कहेगा आजादी के…
नागार्जुन को अपनी चिंता शायद ही कभी हुई, वह औरों की चिंता में घुलते रहे, आजादी से असंतुष्ट होकर कविताएं लिखते रहे –
देखो धंसी-धंसी ये आंखें,
पिचके-पिचके गाल
कौन कहेगा आजादी के
बीते तेरह साल.
वह समूचा भारत (India) घूम गये, राजनीति के क्षेत्र में सेवा और परहित का स्वांग भरनेवाले लोगों पर व्यंग्य उनकी कविताओं का मूलभूत आवेग रहा-
गांधी जी का नाम बेचकर
बतलाओ कब तक खाओगे
यम को भी दुर्गंध लगेगी
नरक भला कैसे जाओगे.
छठी किस्त :
नागार्जुन और तरौनी (6)
याद आते कमल, कुमुदिनी और ताल मखान
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