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मोहन बिंद : वारिसों को मिला दरिद्रता का अट्टहास!

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एक था ‘मोहन राजा’. कौन था, क्या था, कब था और कहां था? दुनिया जो जानती है उससे अलग ढेर सारी ऐसी बातें हैं जो उसके खात्मे के तकरीबन चालीस साल बाद भी रहस्य बनी हुई हैं. यहां उन रहस्यों पर से पर्दा हटाया जा रहा है. घ्किस्तवार किस्सा की पहली कड़ी में जानिये कि जिसके कदमों की आहट से पहाड़ सिहर उठता था, नाम सुन पुलिस के कान खड़े हो जाते थे, आम से लेकर खास तक सभी हुक्म के पाबंद थे, उसके परिजन आज किस हाल में हैं. पत्नी की जिन्दगी कैसे कट रही है, बेटा क्या कर रहा है. आदि,आदि…


तापमान लाइव ब्यूरो
24 जुलाई 2024

Malav (Rohtas) : मोहन बिंद (Mohan Bind) पुलिस और प्रशासन (Police and Administration) की नजर में अनगिनत नरसंहार (Massacre) करने वाला दुर्दांत खूनखोर दस्यु सरगना (दस्यु सरगना) था. पर, बिंध्य-कैमूर पर्वतमाला (Bindhya-Kaimur Range) के 240 वर्ग किलोमीटर के विस्तृत पठार के 211 गांवों के मूलवासी बिंद समाज (Bind Society) की श्रद्धा में उसने ‘गरीबों का मसीहा मोहन राजा’ का स्थान बना रखा था. बीसवीं सदी के आठवें दशक के एक दौर में आतंक का पर्याय बन गये खुंखारी मोहन राजा के सफाये के लिए पुलिस ने अनेक अभियान चलाये. उन अभियानों पर तब 50 लाख रुपये से ज्यादा खर्च हुए. तकरीबन सौ बार मुठभेड़ें हुईं. ‘कैमूर का राजा’ हमेशा पुलिस पर भारी पड़ता रहा. परन्तु, आस्तीन के सांपों से खुद को नहीं बचा पाया. बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों का यह आंतक अपने ही सहयोगियों के हाथों मारा गया.

दाने – दाने को मोहताज

उस दौर में ‘मोहन राजा’ का इस पूरे इलाके में ‘एकछत्र राज’ था. एक इशारे पर बिना विलम्ब इच्छा पूरी हो जाती थी. नाफरमानी का मतलब मौत होता था. उसकी इस ‘हुकूमत’ को देखने-सुनने वाले लोग समझते होंगे कि मोहन बिंद ‘कैमूर का राजा’ था तो उसके वारिसों यानी पत्नी और बच्चों को विरासत (Heritage) में अकूत धन मिला होगा. ऐशोआराम की जिन्दगी होगी. पर, हकीकत इसके उलट है. मोहन राजा (Mohan Raja) इनके लिए छोड़ गया सिर्फ सामाजिक तिरस्कार और मुफलिसी की जिंदगी! ऐसा नहीं कि बदनसीबी बाद के दिनों की देन है. कंगाली मोहन बिंद की मौत के साथ ही छा गयी थी. ऐसी कि परिवार के लोग दाने-दाने को मोहताज हो गये.

मजदूरी पर टिकी जिन्दगी

हाड़ तोड़ मेहनत के बाद बमुश्किल दो जून की रोटी नसीब हो पाती थी. मोहन बिंद की मां, पत्नियां और बच्चे जंगलों से लकड़ियां चुनकर लाते, उन्हें बेचते और मजदूरी करते तब पेट भर पाते थे. दुर्भाग्य (Unfortunately) ऐसा कि दशकों बाद भी उनकी फटेहाली करीब-करीब जस की तस है. वरिष्ठ पत्रकार- छायाकार देवव्रत राय ने जेठ की तपती धूप में भूख, अभाव और दरिद्रता में पल रही ‘मोहन राजा’ के वारिसों की जिंदगी को बिल्कुल करीब से देखा. क्या देखा, क्या सुना, इस जमीनी रिपोर्ट में सब कुछ है.

मलांव में है पुश्तैनी घर

रोहतास (Rohtas) के जिला मुख्यालय सासाराम से तकरीबन आठ किलोमीटर दूर पहाड़ की तलहटी में बसा है मलांव गांव. पंचायत सिकरिया, थाना दरिगांव, प्रखंड सासाराम. इसी गांव में मोहन बिंद का पुश्तैनी घर है. लगभग आधा कट्ठे की बासगीत जमीन और टूटा-फूटा मकान. सासाराम से शेरशाह सूरी (Shershah Suri) के मकबरा के पीछे से सड़क मार्ग से कादिरगंज, शिवपुर, सिकरिया होते हुए इस गांव में पहुंचा जा सकता है. मोहन बिंद का घर गांव के पिछले हिस्से में है. 26 साल पहले जून 1998 में बिहार की चर्चित पत्रिका समकालीन तापमान के वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र सिंह भी आग उगलती ऐसी ही धूप को चीरते हुए ‘मोहन राजा’ की विरासत देखने- समझने के लिए मलांव गये थे.


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नहीं बदली तकदीर

तब अभी की तरह चमचमाती सड़कें नहीं थीं. उबर-खाबड़ कच्चे-पथरीले रास्ते से वहां पहुंचना काफी कठिन था. यह कहें कि मलांव गांव उस वक्त बिहार के पिछड़ापन (Backwardness) का साक्षात प्रमाण था तो वह कोई अतिश्योक्ति (Exaggeration) नहीं होगी. बदले वक्त के साथ इस गांव की तस्वीर भी बदल गयी है, समृद्धि (Prosperity) झलक रही है. पर, मोहन राजा’ के वारिसों की तकदीर नहीं बदली है. पत्रकार नरेन्द्र सिंह तब ‘मोहन राजा’ के टूटे-फूटे झोपड़ीनुमा ‘राजप्रासाद’ में अट्टहास करती दरिद्रता को देख सन्न रह गये थे. उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ था कि वही ‘मोहन राजा’ का घर और उनके परिजन हैं! नरेन्द्र सिंह की खास रिपोर्ट समकालीन तापमान के जुलाई 1998 अंक में प्रकाशित (Published) हुई थी.

बेबस, लाचार और जर्जर जिन्दगी

उस दिन ‘राजप्रासाद’ के द्वार पर बैठी मिली थी 80 वर्षीया रामदेई कुंवर. बालरूप बिंद की पत्नी और मोहन बिंद की मां. बेबस, लाचार और जर्जर जिंदगी ! मोहन बिंद के अच्छे-बुरे कार्यों को रामदेई कुंवर ने यादों में समेट रखी थी. लगभग सात सौ घरों वाले मलांव की पहचान सिकरिया पंचायत के सबसे बड़े गांव की है. गांव में सभी जाति के लोग रहते हैं. पर, ज्यादा आबादी बिंद समाज की है. बालरूप बिंद और रामदेई कुंवर को तीन बेटा थे. बिगु बिंद, मूरत बिंद और मोहन बिंद. सबसे छोटा मोहन बिंद था. मूरत बिंद और मोहन बिंद बहुत पहले काल के गाल में चले गये. बिगु बिंद मुहाने पर थे. लगभग डेढ़ माह पूर्व वह भी उसी गति को प्राप्त हो गये.

दूसरी किस्त :

ऐसे बन गया दस्यु सरगना से ‘मोहन राजा’ !

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