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बड़ा सवाल : कहां लुप्त हो जाती है काबिलियत?

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महेश कुमार सिन्हा

12 अगस्त 2024

PATNA : बिहार (Bihar) की अनियंत्रित (Uncontrolled) विधि-व्यवस्था (Order of Law) आमजन में ही नहीं, ‘सुशासन’ में भी सिहरन‌ पैदा कर रही है. उच्च स्तरीय बैठक-दर-बैठक (High level Meeting) से तो ऐसा ही कुछ आभास‌ होता है. ‘कानून के राज’ का दावा करने वालों की पेशानी पर भी बल पड़े हुए हैं. संभवतः इसलिए कि उच्चस्तरीय बैठकों के दौर के बाद भी हालात में कोई बदलाव होता नजर नहीं आ रहा है. बल्कि स्थिति दिन‌-ब-दिन बदतर ही होती जा रही है. कानून का राज स्थापित करने की जिम्मेदारी अपेक्षाकृत अधिक काबिल माने जाने वाले कड़कमिजाज पुलिस अधिकारियों को सौंपे जाने के परिणाम भी निराशाजनक रहे हैं.

भरोसे पर खरा नहीं उतरे

विश्लेषकों की मानें, तो इस मसले पर शर्मिंदगी झेल रही नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की सरकार को पुलिस‌ महानिदेशक (DGP) आर एस भट्टी‌ (RS Bhatti) से काफी उम्मीद थी‌. पारदर्शिता भरी उनकी कार्यशैली से आमलोग भी आशान्वित थे. परन्तु, विधि-व्यवस्था के मामले में वह भी सरकार के भरोसे‌ और जनता (Public) की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरे. उनकी विदाई की संभावनाओं के बीच यह सवाल खड़ा हो गया है कि पुलिस अधीक्षक के तौर पर अपराधियों की नकेल कसने वाले अधिकारियों की काबिलियत (Capability) पुलिस महानिदेशक का पद संभालने के बाद गुम क्यों हो जाती है?

याद कीजिये उस दौर को

सरकार की नजर में काबिल ऐसे पुलिस अधिकारियों की ‘कानून के राज’‌ में काबिलियत लुप्त हो जाने के कारणों को जानने-समझने से पहले 2005 के सत्ता परिवर्तन के बाद के दौर को याद कीजिये. ‘जंगल राज’ में ही पदस्थापित आशीष‌ रंजन सिन्हा (Ashish Ranjan Sinha) पुलिस‌ महानिदेशक थे.‌ काफी दिनों तक इस पद पर रहे. आशीष‌ रंजन सिन्हा के नीतीश कुमार के स्वजातीय रहने के कारण पुलिस महानिदेशक के पद पर बनाये रखने को लेकर टीका-टिप्पणी भी हुई. पर, सच‌ यह भी है कि ‘सुशासन’ की बुनियाद उसी कालखंड में पड़ी. कुछ समय बाद आशीष रंजन सिन्हा हट गये.

कारगर नीति-रणनीति नहीं

तकरीबन पांच साल तक सुशासन (Susashan) का अहसास हुआ. फिर बदले स्वरूप में ‘जंगल राज’‌ धीरे-धीरे दस्तक देने लग गया. पुलिस (Police) की कमान सख्त हाथों में दिये जाने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया. इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि ‘सुशासन’ का दंभ भरने वालों ने शुरुआती कामयाबी के मद्देनजर ‘कानून के राज’ का लोक लुभावन नारा तो उछाल दिया, पर यह कैसे कायम रहे इसके लिए कोई कारगर नीति-रणनीति नहीं बनायी. ‘सुशासन’ के शुरुआती सुकून के बाद हालात फिर से ‘जंगलराज’ जैसे क्यों हो गये, इसके कारणों का जमीनी सर्वेक्षण नहीं कराया. इसका भी अध्ययन-विश्लेषण नहीं किया कि ‘सुशासन’ के शिल्पकारों में शामिल आईपीएस अधिकारी अभयानंद (Abhayanand) पुलिस महानिदेशक के रूप में अपनी कोई छाप क्यों नहीं छोड़ पाये ?

अहसास ही नहीं हो रहा

हर किसी को मालूम है कि अपर पुलिस महानिदेशक-मुख्यालय के पद पर रहते हुए उन्होंने त्वरित न्याय को गति दे सुशासन की साख जमायी थी. पुलिस महानिदेशक के रूप में उस साख को बनाये नहीं रख पाये तो उसकी वजह क्या थी? राज्य सरकार ने इसकी जमीनी हकीकत जानने का कोई प्रयास नहीं किया. ऐसा ही कुछ सख्त मिजाज पुलिस महानिदेशक डी एन गौतम (DN Gautam) और गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) के कार्यकाल में हुआ. के एस द्विवेदी (KS Dwivedi) के खाते में भी विफलता ही आयी. पूर्व की बातें तो अपनी जगह हैं ही‌, पुलिस महानिदेशक के पद पर अभी आर एस भट्टी‌ विराजमान हैं, बिहार के लोगों को इसका अहसास ही नहीं हो रहा है.


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कारण क्या है?

कहते हैं कि बिहार पुलिस को ‘अनुशासित’ कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराने की उन्होंने कोशिश की. कामयाबी नहीं मिली, तो खुद को समेट लिया. बहरहाल, अभयानंद से लेकर आर एस भट्टी तक की निराशाजनक उपलब्धियों के ‌मद्देनज़र सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या कारण है कि काबिल से काबिल पुलिस महानिदेशकों को विधि-व्यवस्था नियंत्रित रखने में कामयाबी नहीं मिल पाती है?

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