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नागार्जुन और तरौनी : चित्त से यात्री प्रकृति से फक्कड़

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जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जन कवि हूं मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं

जन कवि नागार्जुन के 113वें जन्म दिवस (30 जून 2024) पर तापमान लाइव की खास प्रस्तुति की यह पहली किस्त है :


अश्विनी कुमार आलोक

चित्त और प्रकृति (Nature) किसी व्यक्ति के वैशेषिक विस्तार के आधार होते हैं. चित्त उसके निजी मानसिक वृत्त की परिधि में जैविक स्थापनाएं लेकर प्रकट होता है, तो प्रकृति समाज (Society) एवं समीपस्थ वातावरण (Environment) के प्रभाव से जन्म लेती है. दोनों की समेकित संगति से मनुष्य का व्यक्तित्व निर्मित होता है. जन कवि नागार्जुन (Jan Kavi Nagarjun) चित्त से यात्री और प्रकृति से फक्कड़ यायावर रहे. उनका साहित्य (Literature) सामान्य मनुष्य की परिस्थितियों से जन्मा और शोषितों की पीड़ा देखकर विस्तृत हुआ. उन्होंने आजीवन मनुष्य की मनुष्यता बचाये रखने के लिए कविताएं लिखीं, शोषितों से सहानुभूति और शोषकों से संघर्ष उनके लेखन और जीवन का संकल्प रहा.

गांव से जुड़ा जीवन

अपनी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने मिथिलांचल (Mithalanchal) के ग्रामीण प्रस्तावों एवं उपनगरीय जीवन के साथ आजीवन संवाद किया. वह किशोरावस्था (Adolescence) में गांव से अलग हुए थे, परंतु गांव का उन्होंने त्याग नहीं किया था. गांव उनके जीवन से जुड़ा रहा, गांव की माटी, गांव के संबंध और मित्रों की स्मृतियां उनकी कविताओं से जा नहीं पाये. वह अपने गांव में बार-बार लौटे. यह लौटना सिर्फ शरीर का लौटना था. क्योंकि मन से तो वह गांव को छोड़ ही नहीं पाये थे.

सहमत हो गये

उस दिन हम भी उनके गांव की यात्रा पर थे. दलसिंहसराय (Dalsingsarai) कालेज के हिन्दी के प्राध्यापक डा. महेश चन्द्र चौरसिया ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) से प्राप्त शोधवृत्ति को क्रियान्वित करने में मेरा सहयोग चाहा था. वह फणीश्वरनाथ रेणु (Phanishwarnath Renu) और नागार्जुन की कथाओं में आये स्त्री-पात्रों का तुलनात्मक अनुशीलन कर रहे थे. मेरा मन स्थिर नहीं रहता, तन भी मन के संसर्ग में चार दशकों से अधिक का समय बिता चुका है. सो, मैंने महेश चंद्र चौरसिया (Mahesh Chaurasia) से निवेदन किया था कि वह दस किताबों को सामने रखकर ग्यारहवीं किताब भले लिख लें, लेकिन यह शोध के उद्देश्यों में नव्यता का समावेश शायद ही कर पाये. वह मेरे आग्रह पर रेणु (Renu) और नागार्जुन के गांव-घर में घूमने को सहमत हो गये थे.

उत्साह बढ़ गया

जून के महीने में आसमान का क्रुद्ध आवेश धरती के संयम की परीक्षा ले चुका था. बाग-बगीचों के नये पत्तों की समझ में यह आ गया था कि यह उनके निकलने का समय नहीं, पुराने पत्तों ने अपने लिए वैसी अनुकूलताएं बना ली थी कि गर्मी (Garmi) और धूप (Sunlight) उनकी हरीतिमाओं से समाविष्ट होकर उनके नीचे छाया का कोई शीतल संसार गढ़ लें, जहां मनुष्य जैसे दूसरे जीव अपने जीवन की कठोरताओं में मिटने से बचा सकें. एक साल पूर्व मेरा ऑपरेशन हुआ था, लेकिन मैं जब रेणु के घर हो आया, तो मेरा उत्साह बढ़ गया था. हफ्तेभर बाद नागार्जुन के घर जाने के लिए महेश चन्द्र चौरसिया की कार मेरा इंतजार कर रही थी.


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कर रहे थे इंतजार

मैंने अपने साथ मित्र डा. सुशांत कुमार को ले लेना इसलिए भी आवश्यक माना था कि वह नागार्जुन की छोटी बेटी मंजु के पति अग्निशेखर के भतीजे हैं. नागार्जुन के निकट के रिश्तेदार. वार्ता के अनुरूप सुशांत कुमार दरभंगा (Darbhanga) में एनएच (NH) पर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे. हम इस लंबी-चौड़ी प्रशस्त सड़क सकरी से दाहिनी ओर मुड़े. बांयी ओर मुड़ते तो मधुबनी (Madhubani) चले जाते. सीधे जाते तो झंझारपुर (Jhanjharpur) होते हुए पूर्णिया (Purnea) अर्थात रेणु के गांव ‘औराही हिंगना’ (Auhari Hingna).

नेहरा में लाल साग

यह जो बाजार (Market) था, उसका नाम था नेहरा बाजार (Nehera Bazar). एक छोटी-सी खाने-पीने की दुकान में एक लड़का अपनी मां के साथ लाल साग बना रहा था, बेचने-खिलाने के लिए नहीं. तब भी, मैंने पूछ दिया-‘साग बनाने में कितनी देर लगेगी?’ लड़के के जवाब में व्यावसायिकता नहीं थी, अपनापन था-‘खाइयेगा, तो कुछ देर इंतजार करना पड़ेगा. अभी तो बीछने में समय लगेगा.’ हमने नाश्ता किया और साग का लोभ संवरण करते हुए फिर दाहिनी ओर मुड़ गये, तरौनी गांव में. आगे बढ़े, तो बांयें हाथ की ओर संस्कृत कालेज दिखा, दीवार पर लिखा था नागार्जुन संस्कृत कालेज (Nagarjun Sanskrit Collage).

गांव का प्रवेश द्वार

मन आह्लादित हुआ कि गांव का प्रवेश द्वार (Entry Gate) नागार्जुन के स्मृति गौरव के रूप में एक शिक्षण संस्थान को स्थापित कर चुका है. तरौनी (Tarauni) में जन्मे जनकवि नागार्जुन ने समूचे देश को साम्यवाद, समता और समवेत प्रयासों की कविताएं सुनाकर उनमें जो तीव्र उत्तेजना भरी थी, उसे उनके गांव ने स्वीकार किया था और उस पर अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहा था. यह समाज की संवेदनशीलता का आभास कराने के लिए पर्याप्त था.

दूसरी किस्त :

नागार्जुन औंर तरौनी (2)

हें हए, के बनबौलक अछि
बीच बाध में जोड़ा मंदिर?

@tapmanlive

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