बेचारे त्यागी जी! : कटपीस वाली सीट भी नहीं हुई नसीब
विशेष प्रतिनिधि
24 जून, 2022
PATNA : शास्त्रों में और कहानियों में भी त्याग को श्रेष्ठजनों का आभूषण (Ornament) माना गया है. श्रम की तरह त्याग के बारे में भी यह अफवाह फैला कर रखी गयी है कि ये दोनों कभी व्यर्थ, मतलब निष्फल नहीं जाते हैं. हो सकता है कि कुछ मामलों में यह बात सही भी हो, पर त्यागी जी के मामले में शत प्रतिशत मिथ्या है. त्यागीजी (Tyagijee) ने बहुत त्याग किया. सबसे बड़ा त्याग अपने प्रदेश का किया. अपने प्रदेश की राजनीति छोड़ कर बिहार की राजनीति में सक्रिय हुए.
राजनीति के सबसे करीबी मित्र शरद यादव (Sharad Yadav) तक का त्याग किया. कुल त्याग का फल यह मिला कि राज्यसभा (Rajyasabha) की कटपीस वाली मेम्बरी मिली. एक बार मिली. चली गयी. तब से एक और कटपीस वाली मेम्बरी के लिए बेचैन बने हुए थे. बेचैनी दूर नहीं हुई. कटपीस वाली मेंबरी किसी और को मिल गयी. वह भी ऐसे शख्स को जिसके नाम पर नाक-भौं भी नहीं सिकोड़ सकते हैं. त्याग का प्रभाव परिवार पर पड़ गया.
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यह भी है किस्से का एक हिस्सा
पुत्र ने पिता की पार्टी (Party) का त्याग कर उस दल की सदस्यता (Membership) ले ली, जिसे त्यागीजी दिल से नापसंद करते हैं. लोगों ने इस बाबत पूछा तो उनका जवाब था कि परिवार में पूरी तरह लोकतंत्र सक्रिय है. परिवार के जिस सदस्य (Member) को जो भी पार्टी पसंद है, वह उसमें जा सकता है. त्याग के निष्फल होने का किस्सा यह है कि पिछली बार शरद यादव की राज्यसभा वाली मेम्बरी खत्म करने की सिफारिश उनकी पार्टी ने कर दी. त्यागीजी को लगा कि उन्हीं से उस सीट की भरपाई होगी. हो भी जाती. मगर, मामला अदालत (Court) में लटक गया.
चुनाव का मामला जब कभी अदालत में जाता है तो उसकी सुनवाई मेम्बरशिप का कार्यकाल पूरा होने के बाद ही पूरी हो पाती है. इस मामले में भी यही हो रहा है. इस साल शरद यादव (Sharad Yadav) का कार्यकाल पूरा हो जायेगा. त्यागीजी निराश थे. अचानक एक अन्य राज्यसभा सदस्य का देहावसान हो गया. त्यागीजी को उम्मीद थी कि इस कटपीस वाली सीट की भरपाई उन्हीं से होगी. कारण भी था. त्यागीजी खुद को उसी जाति का बताते हैं, जिस जाति के दिवंगत सदस्य थे.
अब शायद ही कभी
राजनीति में कुछ भी हो सकता है. मगर, त्यागीजी के मामले में कुछ भी होने जैसा सीन नहीं था. बात हो रही थी कि त्यागीजी भले ही दिवंगत सांसद (Sansad) के स्वजातीय हों, बिहार (Bihar) के तो नहीं हैं न. ऊपर से दिवंगत राज्यसभा सदस्य के परिवार के एक मजबूत दावेदार सामने खड़े हो गये थे. भाई भोला जी को असली राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाने लगा. त्यागीजी को इस सीट पर भी मौका नहीं मिला, भाई भोला की गति भी वही हुई. किस्मत अनिल हेगड़े (Anil Hengre) की खुल गयी. पूर्णकालिक (Purnkalik) मिलना था नहीं, सो त्यागीजी फिर लटक गये. अब शायद ही कभी मौका मिल पायेगा.
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