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सभा गाछी : अब न दूल्हे जुटते हैं और न मेला जमता है

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मैथिल ब्राह्मणों की शादी की अनूठी पद्धति से जुड़ी सौराठ सभा पान, मखान, मांछ और मीठी मुस्कान के लिए विख्यात मिथिलांचल की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है. पाश्चात्य सभ्यता जनित आधुनिकता इसकी पौराणिकता को निगल रही है. इससे मिथिलांचल के ब्राह्मणों के विश्व के इस इकलौते सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है. क्या है सौराठ सभा का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व और क्यों उत्पन हो गया है इसके अस्तित्व पर खतरा, इस आलेख में इसपर दृष्टि डाली गयी है. प्रस्तुत है उसकी दूसरी कड़ी :


विजयशंकर पांडेय
05 जुलाई, 2022

MADHUBANI : इतिहास में वर्णित है कि पौराणिक काल में मैथिल ब्राह्मणों की शादी की अनूठी पद्धति थी. वर मेलों के आयोजन की पद्धति. यह आयोजन मिथिलांचल (Mithilanchal) की सांस्कृतिक (Sanskritik) पहचान थी. उस काल में हर साल 42 स्थानों पर वर मेलों का आयोजन (Ayojan) होता था. मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा और अररिया जिलों में. सहरसा (Saharsa) जिले के वनगांव-महिषी से शुरू होता था और मिथिलांचल की हृदयस्थली मधुबनी के सौराठ गांव (Saurath Village) में समाप्त हो जाता था. वर्तमान में सिर्फ सौराठ में ही वर मेला लगता है.

पहले समौल में लगता था मेला
पहले यह आयोजन सीतामढ़ी (Sitamarhi) जिले के समौल (Samaul) गांव में हुआ करता था. कुछ मुद्दों को लेकर गांववालों के बीच विवाद खड़ा हो गया. तब पंडित धारे झा और पंडित होरिल झा ने दरभंगा (Darbhanga) के तत्कालीन महाराज नरेन्द्र सिंह (Narendra Singh) की कृपा से रहिका (Rahika) प्रखंड के सौराठ गांव में आयोजन शुरू कराया. इसके लिए राज परिवार ने 22 बीघा जमीन उपलब्ध करायी थी. वह जमीन संभवतः माधवेश्वरनाथ महादेव मंदिर (Madhweshwarnath Mahadeo Mandir) ट्रस्ट के नाम से है. ट्रस्टी दरभंगा राज की महारानी हैं.

कभी-कभार ही दिखता है ऐसा दृश्य.

थी वैज्ञानिक सोच
यह स्थापित तथ्य है कि वर मेला (Mela) के आयोजन के पीछे सारगर्भित सामाजिक व वैज्ञानिक सोच थी. समाज के लोगों को करीब लाना, वर खोजने में समय (Time) एवं पैसे की बर्बादी रोकना और योग्य संतान की प्राप्ति के लिए आवश्यक नियमों के पालन को आसान बनाना. पुराने दौर में यातायात (transportation) के साधन बहुत कम थे. लोगों का आवागमन न के बराबर होने के सामाजिक परिचय भी बहुत सीमित था. इस परिस्थिति में वर ढूंढ़ना बहुत कठिन कार्य था.

कन्या पक्ष को हुई आसानी
आमतौर पर पंडित (Pandit) और नाई (Nai) ही यह काम करते थे. वर मेले के आयोजन से मैथिल ब्राह्मणों (Brahman) का आपसी मेलजोल बढ़ा और कन्या वालों को वर चुनने में आसानी हुई. एक साथ शादी के इच्छुक वरों के मौजूद रहने से चयन में श्रम, समय एवं पैसे की बर्बादी रुकी. इससे दहेजमुक्त (dowry free) सामूहिक विवाह की परंपरा भी विकसित हुई.

वर्जित है समगोत्री शादी
अन्य जातियों और वर्गों की तुलना में मैथिल ब्राह्मणों में कुल, मूल व गोत्र का काफी महत्व था. कुछ लोग आज भी इसे महत्व देते हैं. बड़े कुल व अच्छे मूल-गोत्र को समाज में अच्छी प्रतिष्ठा मिलती थी. तब ऐसी मान्यता थी कि योग्य संतान के लिए वर एवं वधू को समगोत्री (Samgotri) नहीं होना चाहिये. यानी सीधा रक्त संबंध नहीं रहना चाहिये. माता (Mother) का सपिंड होने पर भी संतान योग्य नहीं होगी और पिता (Father) के सात एवं माता की पांच पुश्तों में शादी (Marriage) से भी लायक संतान नहीं पैदा हो सकती. इस कारण इसे निषेध कर दिया गया.


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चिकित्सा विज्ञान की भी है मनाही
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (Medical Science) भी समान रक्त वर्ग के लड़के-लड़कियों में शादी की मनाही करता है. इन सबके मद्देनजर मैथिल ब्राह्मणों में विवाह (Marriage) में सात निषेधों की व्यवस्था की गयी. पंजीकार (Panjikar) दोनों पक्षों की सात पीढ़ियों के उतेढ़ (वंशावली) का मिलान कर बताते हैं कि जो शादी तय की गयी है वह होने के योग्य है या नहीं. निषेधों की जांच में योग्य ठहरने पर पंजीकार स्वीकृति पत्र (स्वस्ति पत्र) प्रदान करता है. स्वस्ति पत्र की मान्यता अदालत (Court) में भी है. कहा जाता है कि इस मामले में पंजीकार को दंडाधिकारी (Magistrate) के समान अधिकार प्राप्त है. विश्व (World) में संभवतः मैथिल ब्राह्मण अकेले हैं जो अपने बच्चों की शादियां पंजीकारों से वंशावलियां देखकर तय करते हैं. शायद किसी अन्य जाति की ऐसी वंशावली (genealogy) नहीं है.

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